मानव गुढ़ रहस्य भाग -३ ।

गुढ़ रहस्य भाग -३ ।
अब कुछ गहरी चर्चा करेंगें , और यह भी श्री महाराज जी के द्वारा ही दिया गया तत्वज्ञान के आधार पर हैं , मैने बहुत बारिकी से  समझा है इसमें उनकी कृपा से । वहीं शेयर कर रहां हुं ।‌
थोड़ा यह टेक्निकल है और जटिल भी है क्योंकि यह गहरा विज्ञान है ।
पर आसान है समझना ।

तो शुरू करतें हैं - व्यक्तित्व ( personality - यह ग्रीक शब्द persona  से बना है जिसका मतलव होता है बाहरी मुखौटा , आप सब जानते हैं ) होता है वो दो हैं एक बाहरी दृश्यमान और दूसरा आंतरिक दोनों का मिश्रण हीं व्यक्तित्व कहलाता है । कोई कोई मल्टी व्यक्तित्व का स्वामीं होता है । दो या तीन या चार प्रकार का व्यक्ति एक हीं पर्सनैलिटी में होता है। यह जब बिगड़ता है तो इसको शरीर विज्ञान में  प्रसनैल्टि डिसऔर्डर कहतें हैं । यह खतरनाक होता है ।

अब‌ पराविज्ञान ( आध्यात्म विज्ञान का हिस्सा) में यह व्यक्तित्व समझाया गया है बहुत बढ़िया से  । (श्री महाराज जी का प्रवचन याद किजिए ) 
बाहर का पर्सनालिटी जो है वो दृष्यमाण है और बाहर का फिजिक ही प्रथमतया लोगों को आकर्षित करता है । पर आगे का आकर्षण बना रहना भीतर के प्रसनाल्टी पर निर्भर करता है । तो संसार में आकर्षण और विकर्षण का यही कारण है ( यह कैसे काम करता है और आगे के पोस्ट से हम समझेंगे )
तो क्या है भीतर का पर्सनालिटी ? तो यह आप लोग जानते हैं यह है अंत:करण चातुष्ट्य ।
यानि मन बुद्धि चित्त और अहंकार ।

अब आगे समझेगे़ इस जटिल मशीन को डिटेल में, उससे 
पहले दो उदाहरण लेते हैं महाभारत से ।
एक अर्जुन का और दुसरा दुर्योधन का । दोनो महत्त्वपूर्ण है जानने ,‌समझने के लिए ।
याद होगा सबको कि भगवान पांडवों के तरफ से शांतिदूत बन कर गए थे हस्तिनापुर में  ।
दुर्योधन को समझा रहें हैं कि पांच गांव हीं दे दो पांडव को सिर्फ , बहुत लौजिक दिया भगवान ने धर्म , कर्म का ।
पर दुर्योधन कहता है भगवान् को कि - 

 जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। 
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि॥' 
जानता हूँ धर्म पर हुई न प्रवृत्ति। अधर्म जानता हूँ पर न हुई निवृत्ति।।

मतलव वो कह रहा है कि हे कृष्ण मुझे प्रवचन मत दिजिए धर्म , अधर्म का , मैं बहुत अच्छी तरह जानता हुं धर्म क्या है अधर्म क्या है । पर मैं क्या करूं ? मेरा न धर्म में प्रवृत्ति हो पा रही और ना अधर्म से निवृत्ति हो पा रही है ।‌ मेरी मनोवृत्ति हीं ऐसी है । मतलव पर्सनैलिटी ही ऐसी है । एक हीं गुरू के हम सब शिष्य हैं , दस हजार हाथी का बल भीम में हैं तो मुझमें भी है पर मनोवृत्ति अलग अलग है ।
अब आप सब जानते हैं कि अर्जुण क्या कहा भगवान को जब गीता का ज्ञान दे रहे थे भगवान  । 

चंचलं हि मन:कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। ( गी.६.३४)
वो कहतें हैं भगवान से की यह मन हीं तो बश में नहीं है , मन का ही गुलाम हुं मैं , आप कहें तो मैं हवा के रूख को मोड़ दु़ , नदी के धारा को बदल दुं , पर मन को बश में करना कठीन है ।
फिर भगवान बोलते हैं कि - 
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।

 आप सब भावार्थ जानते हैं इसका । लिखने की जरूरत नहीं है ।
 वहीं पर अर्जून शरेंडर कर देता है खुद को ( हालाकी वो पहले से महापुरुष हैं हमारे शिक्षा के लिए यह सब कर रहें हैं )  ।‌ और उस पात्र में भी दर असल वो शरेंडर तो पहले से हीं है पांडव भगवान के प्रति , इसिलिए तो अर्जुण भगवान‌ से सेना ना मांगकर भगवान को ही मांग लिया था । 
तो दोनों में अंतर है । अर्जुण को प्रपत्ति (शरणागति ) है।
प्रपत्ति मूला भक्त हैं अर्जुण , वो शरणागत है  भगवान के प्रति , इसलिए उसका मनोवृत्ति बदल गया है , मनोवृत्ति बदल गया तो उसकी प्रवृत्ति शुद्ध हो गया है इसलिए उसका व्यक्तित्व बदल गया इसलिए आज भी अर्जुण के प्रति लोगों का आकर्षण है । व्यक्तित्व आकर्षित करता है । 
पर दुर्योधन का वृत्ति नहीं बदला ,, वो प्रपत्त नहीं है किसी का भी भगवान‌ का छोड़िए यहां तक कि ना भिष्म का ना विदुर का , वो माया के दुर्गुण रूपी शकुनी से प्रभावित हैं  इसलिए उसकी निवृत्ति अधर्म से नहीं हुआ । जैसी संगती वैसी मनोवृत्ति । जैसी मनोवृत्ति वैसी प्रवृत्ति , जैसी प्रवृत्ति वैसी वृत्ति , जैसी वृत्ति  वैसा संकल्प , जैसा संकल्प वैसा दृष्यमाण कर्म ।

अत: उसकी मनोवृत्ति अशुद्ध है इसलिए वो उपहास का पात्र है । और यही कारण था कि अग्नी पुत्री , यज्ञशैनी द्रोपदी उस पर हंस दी थी की अंधे का पुत्र अंधा , एक स्वाभाविक विकर्षण था उसके प्रसनाल्टी में । मजाक बना लिया था खुद को । 
तो अब यह बात करते हैं कि यह व्यक्तित्व बनता बिगड़ता कैसे हैं । तो यह अंत:करण चातुष्ट्य के विज्ञान का कमाल  है ।
आप सब जानते हैं कि यह चातुष्ट्य क्या हैं ।
मन , बुद्धि , चित् और अहंकार । तो ऐ मन क्या है बुद्धि क्या है ,‌ चित् किसे कहतें हैं , अहंकार क्या हैं । यह कहां रहता है शरीर में कैसे काम करता है यह । कैसे यह संस्कार और कु संस्कार का , तो कैसे विवेक का तो कैसे कुबुद्धि का निर्माण करता है ।
यह मशीन‌ कैसे हमारा उद्धार करता है और बर्बाद भी ।
कैसे यह शुद्ध होता है कैसे और अशुद्ध हो जाता  है । 
तो यह एक विज्ञान है इस पर चर्चा अगले पोस्ट नंबर 4 में करेंगें । 
श्री राधे । क्रमश: अगले पोस्ट में ।

Comments

  1. जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।
    केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि॥'
    जानता हूँ धर्म पर हुई न प्रवृत्ति। अधर्म जानता हूँ पर न हुई निवृत्ति।।
    यह श्लोक महाभारतसे है ? कौनसे पर्वमें ? श्लोक क्रमांक बता सकते है ? कृपया जानकारी अवश्य दें । धन्यवाद ।

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