श्री कृपालु जी महाराज जी
आईये हमारे श्री महाराज जी के श्री मुख से सुनते हैं , आदि जगद्गगुुुरु शंकराचार्य के बारे में कि श्री शंकराचार्य जी क्या कहते हैं श्री कृष्ण की भक्ति के बारे में ।
" हमारे प्यारे श्री महाराज जी कहते हैं कि श्री शंकराचार्य ने भी अपने अंतिम जीवन समय में श्री कृष्ण - भक्ति ही की थी । उन्होने अंत:करण शुध्दि के लिए कहा था -
"शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज-भक्तिमृते ।"
अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अनंत:करण शुद्ध हो ही नहीं सकती ।
उनके एक शिष्य ने पुछा :-
"मुमुक्षणा किं त्वरितं विधेयम् ?"
अर्थात् मुमुक्षु जीव को तुरंत क्या करना चाहिए ? तो शंकराचार्य जी ने उत्तर दिया -
" सत्संगतिर्निर्ममतेशभक्ति: "
अर्थात् सत्संग , एवं संसार से ममता तोड़ना तथा भगवान् की भक्ति करनी चाहिए ।
उनसे पुन: शिष्य ने पूछा -
'किं कर्म कृत्वा न हि शोचनीयम्'
अर्थात् ऐसा कौन कर्म है जिसे करने वाला बुद्धिमान व्यक्ति कभी नही पछताता ?
तो उन्होने उत्तर दिया -
'कामारि-कंसारि-समर्चनाख्यम्।'
अर्थात् भगवान की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है । अपनी माता को श्री शंकराचार्य ने श्रीकृष्ण भक्ति का उपदेश दिया एवं श्रीकृष्ण दर्शन कराए । इतना ही नहीं , उनका ( श्री शंकराचार्य जी का ) दुन्दुभिघोष भी सुनिए :-
' काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम्
केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि: ।
अस्माकं यदुनन्दनांघ्रियुगल-ध्यानावधानार्थिनाम्,
किं लोकेन दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम् ।।'
अर्थात् सकाम कर्म करने वाले भोले लोग स्वर्ग प्राप्ति के हेतु सकाम कर्म करें , मैं नही करता एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों , हमें नहीं चाहिए । हम तो आनंदकंद श्रीकृष्ण चरणारविन्दमकरंद के भ्रमर बनेंगें ।
हमें लौकिक या परलौकिक या मौक्षादि सुख नही चाहिए, हम तो प्रेम रस के रसिक हैं ।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य द्वारा श्रीकृष्ण भक्ति संबन्धी सभी श्लोकों को हमारे श्री महाराज जी पुन: पुन: अपने प्रवचनों में उद्धरित करके यह सिद्ध करते हैं कि श्री शंकराचार्य प्रच्छन्न श्रीकृष्ण भक्त हीं थे । अत: हमारे श्री महाराज जी ने जगद्गुरु श्री शंकराचार्य के व्यक्तित्व के श्रीकृष्ण भक्ति संबन्धी पक्ष को पूर्ण सम्मान दिया ।
राधे राधे श्री राधे।।
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