विश्व शान्ति कैसे हासिल हो ?
विश्व शान्ति कैसे हासिल हो ? ( विश्वशांति भाग-१)
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विश्व शान्ति में दो शब्द हैं -एक विश्व और दूसरा शान्ति ।
हमें ये समझना होगा कि विश्व का भावार्थ क्या है ? और शान्ति का भावार्थ क्या है ?
विश्व - तीन पदार्थों के सम्मिश्रण को विश्व कहते है । परमात्मा, जीवात्मा , माया , तीनो को अलग-अलग करके बोल देते है । एक जीव है , एक भगवान् है और एक माया है । हिन्दू फिलॉसफी के अनुसार इस विश्व में भगवान व्याप्त है । भगवान ने माया के द्वारा यह विश्व बनाया है और भगवान् विश्व में व्याप्त ही नही हो गया अपितु वो विश्व रुप हो गया - ये कहा जाता है । लेकिन यह भगवान् अव्यक्त है, दिखाई नहीं पड़ता ।
अब दूसरी पर्सनैलिटि है इस विश्व में जीव दिखाई देता हैं, अनुभव में आते हैं। वृक्ष से लेकर मनुष्य तक ये सब हम लोग देखते है । और तीसरी चीज है माया । जो आप पृथ्वी, जल , तेज वायु, आकाश आदि देखते हैं, जो जड़ हैं निर्जीव वस्तुएँ सब माया का विकार है। इन तीनो के मिश्रण का नाम है विश्व ।
इस विश्व की शान्ति हम चाहते हैंं । इस विश्व में जड़ वस्तु की तो कोई शान्ति होती नही कि कोई मिट्टी अशांत है, उसको शान्त करना है और भगवान् की भी शांति नहीं करना है क्योंकि वह तो नित्य आनंद देने वाला परिपूर्ण है । भगवान् और आनंद पर्यायवाची ही है । रसो वै स: । इसलिए भगवान को भी शान्ति की अपेक्षा नहीं ।
अब एक जीव बचा । अपनी हिन्दू फिलॉसफी के अनुसार अनादिकाल से भगवत्बहिर्मुख होने के कारण जीव अशांत है, दु:खी है, अतृप्त है, अपुर्ण है। क्यों है ? कब से है ? ये भले ही नही जानता ।
तो विश्व शान्ति का मतलब है विश्व में रहने वाले मनुष्यों की शान्ति । उनको शान्ति मिले । सबमें एक दूसरे के प्रति दैवी गुण , सात्विक गुण आयें । दया , एकता , परोपकार और भाईचारा हो , सबमें मित्रता हो । विश्व- शान्ति का यह अर्थ नहीं है कि युद्ध नहीं हो रहा है , सब शांत है । अरे ! बाहर युद्ध नही हो रहा है तो क्या, भीतर तो युद्ध हो रहा है प्रत्येक व्यक्ति के अनंत:करण में । तो शान्ति क्या होगी ? विश्व शान्ति से तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को शान्ति या सुख मिलना ।
हमारे हिन्दू धर्म की जो फिलॉसफी है, वो है "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति "।
सब भगवान के हि स्वरुप है । एक ही भगवान अनेक रुप से प्रकट होता है । जीव भी उसके स्वरुप हैं । फिर अशान्ति का क्या कारण है ?
संसार की वस्तुओं में सुख मानना ।
वास्तव में हम सब शान्ति चाहते हैं भले ही हम भौतिक पदार्थों से ही क्यों नही चाहते हों । किन्तु आज भी जिनके पास खरबों का वैभव है क्या वे आन्तरिक शान्ति का लेश भी प्राप्त कर सके? उत्तर यही होगा कि वे लोग और भी अशान्त हैं रुस , अमेरिका इसके उदाहरण हैं जहाँ आधे से ज्यादा व्यक्ति नींद की गोली खाकर सो पाते हैं । अत: हम यह नहीं कह सकते हैं कि संसार का सामान मिलने से शान्ति मिल जाएगी ।
एक व्यक्ति को ऐसे महल में रख दिया जाए जहाँ सारी सुख सुविधाएँ हैं, सोने की दीवारें बनी हूई हैं , लेकिन आन्तरिक शान्ति नही मिल सकती , शान्ति मिलने के लिए मायिक सामान कारण या साधन नहीं है क्योंकि मायिक सामान जहाँ बहुत ही उच्च कक्षा का है उन देशों में और अधिक अशान्ति है ।
शान्ति दो प्रकार की होती है । एक क्षणिक, एक सदा-सदा के लिए । क्षणिक शान्ति जैसे जलती हुई आग में हम घी छोड़ देते हैं , तो आग दबती है । ऐसा लगता है कि आग बुझी । एक बार आग नीचे लपक जाती है और फिर चौगुनी होकर उपर उठती है ।
इसी प्रकार जैसे संसार का सामान पाने की हमको भूख है , प्यास है, कामना है । वो वस्तु मिली तो क्षणिक ऐसा अनुभव हूआ कि हां आनंद मिल गया , लेकिन अगले क्षण शान्ति से दुगुनी अशान्ति फिर पैदा हो जाती है, क्योंकि पहले से बलवती कामना उत्पन्न हो जाती है, यह कामना कभी समाप्त नहीं होती । अपने से आगे के लिए प्रयत्न हमारा बंद नहीं हो रहा , प्यास बन्द नहीं हो रही । ये शान्ति क्षणिक हो गई, इसमें बहुत बड़ी हानी है क्योंकि अशान्ति बढ़ रही है ।
संसार के सामान से जो क्षणिक शान्ति मिलती है वो शारीरिक होती है, मानसिक होती है , बौद्धिक होती है बस । ये सब माया के बने हैं -शरीर माया का बना है, मन माया का बना है , बुद्धि भी माया की बनी है, इसलिए इन तीनों की जो शान्ति होती है -संसार के पदार्थ पाने पर ये क्षणिक है ।
ये कोई शान्ति नहीं , इसका परिणाम तो बहुत बड़ी अशान्ति है । और हम लोग जो शान्ति चाहते है वो केवल जीव की चाहते हैं । जब जीव की हम शान्ति चाहते है तो जीव और शरीर अलग-अलग रखना है, समझना है । अगर शरीर की शान्ति को हम जीव की शान्ति का अर्थ लगा लेंगें तो हमे कभी शान्ति नहीं मिल सकती ।
जीव की शान्ति भगवान् को प्राप्त करके हो सकती है क्योंकि जीव भगवान् का सनातन् अंश है । अत: आध्यात्मिक उन्नति से ही शान्ति हो सकती है । ये जो (आत्मा की ) शान्ति है , यह परमात्मा की प्राप्ति से ही होगी ।
जितने समीप आग के पास कोई जाएगा , उतना ही उसका शीत , उसकी ठंडक कम हो जाएगी , उतना ही उसका ताप बढ़ता जाएगा ।
उसी प्रकार हम जितना -जितना भगवान् के पास भक्ति के द्वारा जाएँगें, उतनी ही भगवत्शक्ति हमको मिलती जाएगी और चूँकि भगवान् नित्य शांत , नित्य आनंदमय है इसलिए उसकी शक्ति से हम शान्त होते जाएँगें । इस प्रकार से यदि सभी मनुष्य , सभी जीव शान्ति की तरफ अग्रसर होंगे तो हमारा हिन्दू धर्म कहता है कि एक-एक मिलकर समूह बनता है , तो सारे विश्व शान्ति हो सकती है । शेष अगले पोस्ट विश्वशांति भाग २ में ...........
:- पंचम मूलजगद्गुरुत्तम श्री 'कृपालु जी महाराज ।।
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