मित्र कौन ?

मित्रता दिवस पर श्री रामचरितमानस मानस से मित्रता की परिभाषा-*श्रीरामचरितमानस के किष्किन्धा कांड में प्रभुश्रीराम ने जो मित्रता की परिभाषा सुग्रीव को बताई थी।वैसे तो भारतीय इतिहास अनेको महापुरुषों के महान गाथाओ से भरा पड़ा है इनमे मर्यादा पुरुषोत्तम राम और सुग्रीव की मित्रता आज भी लोगो के बीच याद किया जाता है।रामचन्द्रजी जो अपनी पत्नी सीताजी की खोज में सुग्रीव से मिले तो यही उनकी मुलाकात हुई फिर आपस में मित्रता की डोर में बध गये और जीवन भर दोनों ने एक दुसरे का साथ निभाया और एक दुसरे के सुखदुःख के साथी बने।यानी इनकी दोस्ती से यही पता चलता है की हम चाहे कितने भी बड़े क्यू न हो जाये अगर किसी से दोस्ती की जाय तो वह उचनीच अमीरी गरीबी या मानव भेदभाव नही देखा जाता है मित्र के लिए निस्वार्थ किसी भेदभाव से सिर्फ उसके हितो को सबसे उपर रखा जाता है।*प्रभुश्रीराम ने सुग्रीव को बताई थी मित्र की परिभाषा-**जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।* *तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥**निज दुख गिरि सम रज करि जाना।* *मित्रक दुख रज मेरु समाना॥*भावार्थ:-जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥*जिन्ह कें असि मति सहज न आई।* *ते सठ कत हठि करत मिताई॥**कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।* *गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥*भावार्थ:-जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥*देत लेत मन संक न धरई।* *बल अनुमान सदा हित करई॥**बिपति काल कर सतगुन नेहा।* *श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥*भावार्थ:-देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥*आगें कह मृदु बचन बनाई।**पाछें अनहित मन कुटिलाई॥**जाकर ‍चित अहि गति सम भाई।**अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥*भावार्थ:-जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥*सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। *कपटी मित्र सूल सम चारी॥**सखा सोच त्यागहु बल मोरें।* *सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥*भावार्थ:-मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥*।।जय जय श्री राम।।*

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