प्रश्न - स्वर्ग के देवी देवता आदि माईक हीं है और स्वर्ग भी माया के एरिया में है तो देवी देवता दिव्य लोक , गोलोक, वैकुंठ लोक , शिवलोक आदि में जाकर भगवान से कैसे मिल लेतें हैं ?

प्रश्न - स्वर्ग के देवी देवता आदि माईक हीं है और स्वर्ग भी माया के एरिया में है तो देवी देवता दिव्य लोक , गोलोक, वैकुंठ लोक , शिवलोक आदि में जाकर भगवान से कैसे मिल लेतें हैं ? 

उत्तर इस प्रकार है :-
स्वर्ग लोकादि के उपर एक विरजा नदी है जिसको माया लोक का सीमा रेखा कहा जाता हैं। इसके ऊपर का लोक - सिद्धलोक , शिव लोक, नरसिंग भगवान का लोक, भगवान के तमाम अवतारों का लोक हैं, उसके ऊपर साकेत पुरी ( भगवान राम का लोक ) और सबसे उपर भगवान श्रीकृष्ण का गोलोक है, इन लोकों में माया का प्रवेश नहीं है। 

कहने का मतलव है कि माया तो भगवान की हीं अपरा शक्ति , जड़ शक्ति है अतः माया भगवान के लोक तो जा सकती है परंतु वहां वो निष्क्रिय हो जाती है , माया का वहां कुछ नहीं चलता है ।
 विरजा नदी के नीचे का तमाम लोक मायाधिन हैं और इसमें रहने वाले सभी जीव मायाबद्ध हीं हैं चाहे वो ब्रह्मां का ब्रह्मलोक , इंद्र का स्वर्गलोक या देव लोक, गंधर्व लोक, पितृ लोक आदि क्यों नहीं हो, ।
किन्तु निम्नलिखित कारणों से स्वर्ग या देवलोक के देवता को मायाबद्ध और मायिक दोषों के बावजुद, जन्म और मृत्यु के बंधन में बंधे होने के बाद भी भगवान के लोक में जाकर उनसे मिलने का विशेषाधिकार प्राप्त है। कारण:- 
१. देवताओं को उनके पुण्य के तेज का बल है । अत:अपने पुण्य के तेज से ए देवतादि भगवान के लोक जाते हैं और उनको देख पाते हैं , उनसे बातें कर पाते हैं । किंतु वो भक्ति नहीं कर पाते हैं । कारण उनके पास मानव के समान कर्म प्रधान शरीर नहीं है । 

२. इनका शरीर सूक्षम तथा दिव्य होता है। मानव के स्थूल शरीर की तरह इनका शरीर पंचमहाभौतिक तत्व से नहीं बना होता हैं। अत: मानवीय शरीर के विकारों से मुक्त हैं इनका शरीर। पर स्थूल शरीर नहीं होने के कारण ए कर्म नहीं कर सकते हैं मनुष्य की तरह । देवता एक भोग योनि है । अपने पुण्य का भोग करने के लिए  मनुष्य ही देवता योनि प्राप्त करते हैं । 

३. इनके शरीर से खुशबु निकलती रहती हैं। इनका शरीर दिव्य  प्रकाश युक्त होता है । इनके शरीर की छाया नहीं बनती और पृथ्वी पर आने पर भी इनका पैर पृथ्वी को नहीं छुता है । इनके शरीर में अत्यंत सुंदर , आनंदात्मक खुशबु होती है । इनकी पलकें नहीं झपकती कभी , ए अतिसुंदर शरीर और सौंदर्य वाले होते हैं । इनका ज्ञान उत्तम होता है ।

४. अपने शुभ कर्मो के फलस्वरूप हम मानव ही स्वर्ग लोक या देवलोक में देवता के रूप को प्राप्त करतें हैं। जैसे राजा हरिश्चंद्र जैसे धर्मवीर इंद्र बन चुके हैं स्वर्ग में।

५. ए सभी देवता  भगवान के द्वारा नियुक्त होकर, उनके शक्ति से हीं ब्रह्मांड और प्रकृति के संचालन , पोसन की भुमिका में रहते है।

६. अत: भगवान से प्राप्त विशेष कृपा के फलस्वरूप ये देवगण ऊनसे कहीं भी कभी भी मिल सकते़ हैं, भगवान से प्राप्त एक विशेषाधिकार के फलस्वरूप भगवान से भगवान के लोक जाकर मिलने का सामर्थ्य रखतें हैं अपने पुण्य के तेज से। किंतु जितनी बार ए देवता गण अपने पुण्य के तेज के बल पर भगवान के लोक जाकर उनसे मिलते हैं उतनी बार इनके पुण्य का क्षय होते जाता है। और एक दिन ए देवता गण सभी पूण्यो के क्षय के बाद मृत्यु लोक में अन्य योनियों में जन्म लेतें हैं।

ए अपने पुण्य के तेज से भगवान का दर्शन करके उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करतें हैं। अस्त्र शस्त्रादि प्राप्त कर सकतें हैं। सहायता प्राप्त कर सकतें हैं, आदि आदि।

ठीक उसी प्रकार जैसे एक चीफ मिनिस्टर या मिनिस्टर, किसी कार्य विशेष और शिष्टाचार के लिए प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति से आसानी से मिल सकतें हैं। परंतु इनमे भगवान के प्रति माधुर्य प्रेम भक्ति भाव नहीं होता, न ए व्यक्त कर सकतें हैं, न पुरूषार्थ कर भगवान के प्रेम को प्राप्त कर सकतें हैं अपने उस शरीर से , न भगवद प्राप्त कर सकतें हैं इस शरीर से। यही कारण है कि देवता भी मानव शरीर प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए मानव शरीर को शास्त्रों ने सुर दुर्लभ कहा है।
देवता भगवान के वनाए नियम का नियमन कर संसार को चलाने के लिए, प्रकृति के कार्य, स्वर्ग के कार्यो के निष्पादन के लिए भगवान से प्राप्त एक विशेषाधिकार के फलस्वरूप भगवान से भगवान के लोक जाकर मिलने का सामर्थ्य रखतें हैं अपने पुण्य के तेज से। श्री राधे ।
( मां से प्राप्त उत्तर के आधार पर )

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।