मानव गुढ़ रहस्य भाग - 10 अंतिम भाग ।।

गुढ़ रहस्य भाग - 10 
यह ब्रह्मक ज्ञानियों के ज्ञान , साधन सिद्ध महापुरुषों और उनके लिखे शास्त्रो, पुस्तकों तथा उपनिषदों और भगवद्गगीता एवं भागवद् महापुराण के आधार पर है , इसलिए प्रमाणिक है । रसिक संतों ने इस पर बहुत गहराई से  प्रकाश नहीं डालें हैं पर हां दूसरे रूप में  कहीं कहीं पर जिक्र किए हैं । भगवद् महापुराण में भी इसका कहीं कहीं पर जिक्र है, डिटेल है । 
तो अब इस गुढ़ आध्यात्मिक रहस्य को समझतें हैं - 
आप सभी लोग जानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण के चरण से अवतरित गंगा का तेज बल इतना था की हमारी माया का बना पृथ्वी इसको धारण नहीं कर सकती थी सीधे  । नहीं तो पृथ्वी का विनाश हो जाता । माया किसी भी गोलोक से उतरा शक्ति को कैसे संभाल सकती है भला ।
तो इस प्रकार भगवान शंकर जी गंगा जी को अपने जटा में धारण करके इसकी अनलिमिटेड शक्ति को सिमित कर दिय। फिर गंगा अपने संकुचित शक्ति के रूप में धराधाम पर उतरी । 
अब जब भगवान के चरणों से निकली गंगा जी की शक्तियां अनलिमिटेड है तो फिर अनुमान लगा सकते हैं कि स्वयं भगवान श्री कृष्ण या नित्य सिद्ध आदि शक्तियों जिनके सारे गुण , शक्तियां  आदि अनंत ओर अनलिमिटेड है तो इनके अवतार का भार धरती कैसे संभाल सकती है भला ।
अगर ए सभी शक्तियों में से कोई एक दिव्य शक्ति भी धरती पर अपने पुर्ण स्वरूप में चले आएगे तो पृथ्वी का हीं नहीं सूर्यमंडल तो क्या आकाशगंगा का हीं विस्फोट हो जाएगा ।
कारण अनलिमिटेड शक्तियों का भार माया का बना लिमिटेड शक्ति वाला सौर्यमंडल ( हमारा गलैक्सी)  नहीं उठा सकता ।।

तो ए अनलिमिटेड शक्तियां ( भगवान या उनके संत ) जब धरा धाम पर अवतरित होते है तो अपने योग माया के द्वारा अपने शक्तियों का संयोजन उसी हिसाब से करके अवतरित होते हैं ।
यही कारण था कि भगवान श्री कृष्ण के अवतरण के  समय भी सबसे पहले योग माया की अध्यक्ष ( गवर्नर ) उनकी ह्रालादिनी शक्ति राधा रानी अपने अनंत शक्तियों का संयोजन सिमित करके भगवान श्री कृष्ण से पहले धरा धाम पर अवतार धारण की और तबतक आंख नहीं खोली जबतक भगवान आ नहीं गए और उनको देखते हुए अपनी आंखें खोली , आपलोग जानते हैं यह बात  । इसलिए यह प्रचलित है कि श्री राधा रानी भगवान श्री कृष्ण से पृथ्वी पर बड़ी है । श्री महाराज जी ने भी कहें हैं कि राधा रानी के प्रेम का एक अंश भी प्रकट हो जाए पृथ्वी पर तो पृथ्वी का विस्फोट हो जाए , उन्होंने कहें हैं कि जिस प्रकार दीपक का लौ होता है उसका लौ के उपर एक धुंए की लकीर होती है वो भी बहुत गर्म होता है , कोई उसे छुआ ले अपनी अंगुली से तो अंगुली जल जाए । तो ठीक उसी प्रकार राधा रानी के प्रेम का एक बुंद , उनके प्रेम महाभाव के आंसु का एक बुंद का करोड़वा हिस्सा अगर  गिर परे पृथ्वी पर तो पृथ्वी भष्म हो जाए । 

अब इन्हीं अवतारी शक्तियों की सामर्थ्य को समझने के लिए कलाओं को आधार मानते हैं। कलां वो आर्ट वाला कला नहीं । कलां आध्यात्म में दिव्य अवतरित शक्तियों को अपने मापने कि इकाई है पृथ्वी पर ,‌ऐसे तो उनको मापा नहीं जा सकता , पर अवतार काल में उनकी पूर्ण शक्तियां प्रकट नहीं होती है ।
 अब कलां को अवतारी शक्ति की एक इकाई मानें तो इस माप के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण सोलह कला के अवतार माने गए हैं। वर्णा भगवान के कलां या शक्तियां तो अनंत है , अनलिमिटेड है । 
तो भागवत महापुराण के अनुसार सोलह कलाओं में अवतार की पूरी सामर्थ्य खिल उठती है। अवतारों में श्रीकृष्ण में ही यह सभी कलाएं प्रकट हुई थी। जब वही भगवान राम बन कर त्रेता में आए थे तो जितनी जरूरत थी उतने हीं शक्ति के साथ आए थे , इसलिए उनको 12 कला का कहतें हैं संत लोग , या शास्त्र ,  इन कलाओं के नाम हैं आगे लिखा है । 

तो भगवान राम 12 कलाओं में ,  भगवान श्रीकृष्ण  16 कलाओं में अवतार लिए थे । 
अब चंद्रमा की भी कलां हैं , चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा। आखिर ये 16 कलाएं क्या है? उपनिषदों के अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्‍वरतुल्य होता है। हमारे श्री महाराज जी तो युगल सरकार के कृपावतार हैं । 

आपने सुना होगा  कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है।  

चन्द्रमा की सोलह कला है - : अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है।

उक्तरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही कारण शरीर से छुटकारा  है या   मोक्ष है।

*मनुष्य (मन) की तीन अवस्थाएं : प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। क्या आप इन तीन अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जानते हैं? जगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है। तो इस प्रकार जीवात्मा का भी कलां हैं और साधारण मनुष्य तीन कला से लेकर चार कला तक में शरीर धारण करता है । जानवरों की कला ढाई से निचे होता है । और जिस मनुष्य का कलां तीन से कम हो जाए तो वो उसी अनुपात में विकलांग शरीर और मस्तिष्क से पैदा होता है मां के गर्भ से । 
आप पुछेंगे कि क्या मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद अपने कलां ( शक्ति का ) का विकाश कर सकता है तो उत्तर हैं हां विल्कूल कर सकता है और हम आप सब करतें हैं । पतन भी होता है और उत्थान भी , पर इसकी चर्चा आगे के पोस्ट नंबर 11 में करेंगे । 

तो तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है मानसिक शक्तियों से है । मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। पर प्रत्येक मनुष्य में ये  12 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। यह आधुनिक मनोविज्ञान ने भी साबित किया है कि आज तक कोई मनुष्य कलयुग में अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल 30% से ज्यादा नहीं कर पाया है । अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं। यथा...  अब जानिए उन 16 कलाओं के नाम :-

इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं।

1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।

* दुसरे शास्त्र में   कलां का नाम - 1.श्री, 3.भू, 4.कीर्ति, 5.इला, 5.लीला, 7.कांति, 8.विद्या, 9.विमला, 10.उत्कर्शिनी, 11.ज्ञान, 12.क्रिया, 13.योग, 14.प्रहवि, 15.सत्य, 16.इसना और अनुग्रह।

*कहीं पर 1.प्राण, 2.श्रद्धा, 3.आकाश, 4.वायु, 5.तेज, 6.जल, 7.पृथ्वी, 8.इन्द्रिय, 9.मन, 10.अन्न, 11.वीर्य, 12.तप, 13.मन्त्र, 14.कर्म, 15.लोक और 16.नाम यानि प्रसिद्धि , या यश 

16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

19 अवस्थाएं : भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की 3 प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की 15 कला शुक्ल पक्ष की 01..हैं। इनमें से आत्मा की  यानि परम पुरूष , यानि पृथ्वी पर अवतरित परमात्मा या उनके नित्य सिद्ध संत की 16 कलाएं हैं।

आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ (गीता 8:24) 

अर्थात : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।- (8-24)
अब इसमें यह ध्यान देना आवश्यक है कि केवल साधन सिद्ध जीव हीं उत्तरायण में मृत्यु को प्राप्त करने के बाद भगवान के धामादि जातें हैं ‌ । और नित्य सिद्ध तो अपनी इच्छा से देह त्यागते है जैसे भिष्म पितामह । पर साधन सिद्ध भी अपनी इच्छा से हीं देह त्यागते हैं । और अवतारी महापुरुषों कि भगवान की  क्या कहना , उनके लिए तो बारहों माह बसंत है उनके लिए काल का प्रतिबंध कभी नहीं होता है ।

पर आज के आंशिक ज्ञानि पोंगा पंडित यह कह कर अनर्थ फैलाया है कि कोई साधारण मनुष्य सूर्य के उत्तरायण काल में मरने के बाद या ब्रह्म मुहूर्त में मरने के बाद स्वर्ग गया तो यह पुर्ण अज्ञानता है , अंधविश्वास है । और शास्त्रों को ठीक से ना समझने बाले प्रवचन करने वाले ऐसा मिथ्या संभाषण करते रहतें हैं । 

तो इस प्रकार भगवान  श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन महान साधन सिद्ध पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का और भगवद्ज्ञान का भी  प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना और केवल ऐसे हीं महान आत्मा भगवान के धाम जातें हैं इस काल में देह त्यागने के बाद । ( पोस्ट लंबा होने के डर से श्लोक नहीं डाला गया है ) 

अब सोलह  कालां का विस्तार इस प्रकार है :- 

1.अग्नि:- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है।
2.ज्योति:- ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है।
3.अहः- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है।
तो चंद्रमा में 16 कला = 15कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला  = 16 कला ।

अब इस  सिद्ध महापुरुषों  में कलां इस प्रकार से है :- 
1.बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना।
2.अनेक जन्मों या अवतारों की सुधि रहती है। अपना ही नहीं दुसरे जीव का भी , परा अपरा का भी , यानि जड़ चेतन का भी । 
3.चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है पंचकोषों का भष्म हो जाना ।
4.अहंकार नष्ट हो जाता है।
5.संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के वास्तविक भगवद्मय  स्वरुप का बोध रहता  है।
6.आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। उनका कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य और दिव्य होता है।
7.वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि स्पर्श मात्र से रोग शोक मुक्त कर देते है किसी का  चाहें तो ।
8.अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है इनमें , जिसपर कृपा करना चाहें कर दें , न चाहे ना करें ।
9.जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो रहता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।
10.पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती।
11.जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है। जब चाहे देह त्याग सकते हैं , काल का प्रभाव नहीं रहता । काल इनको याद दिलाती है केवल कि आपके जाने का समय आ गया लेकिन आप जब जाना चाहे जा सकते हैं परम धाम , आपकी जैसी इच्छा ।
12.समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इनके इच्छानुसार कार्य करते हैं। समस्त सिद्धियां नौकरानी हो जाती है । 
13.समय ( काल) पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।
14.सर्वव्यापी सर्वांतर्यामी हो जाते है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकते है , अनेक जगह एक हीं समय में अनेक प्रकार से प्रकट हो सकतें हैं  । पूर्णता अनुभव करते है यानि पूर्णमिदं हो जातें हैं  ।  लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर लेतें  है।
15.कारण का भी कारण हो जातें है। यह अव्यक्त अवस्था है।
16.उत्तरायण कला- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे भगवान राम, कृष्ण या उनके नित्य सिद्ध संत , यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उनकी दिव्यता फैलती है।

तो हमारे श्री महाराज जी तो नित्य सिद्ध है तो उनमें यह सब के अलावा अनंत शक्तियां नित्य  हैं । उनकी करूणा अपरंपार है । हम सब परम भाग्यशाली हैं उनको पाकर । 
इस अनंत कृपावतार  को देखा और कृपा पाया हमने ,  सानिध्य पाया  यह सोंच कर रियलाइज करने से हीं  रोंगटा खड़ा हो जाता है । 

सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त महापुरुषों में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है। यही चिन्मयता है । पर प्राकृत आंख से यह दिखाई नहीं परता है महापुरुषों या भगवान के अवतार काल का शरीर , लेकिन महापुरुष लोग देखतें हैं , समझते हैं अपने दिव्य दृष्टि से ।
******समाप्त ****

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।