भगवान का नाम स्मरण करने से क्या लाभ होता है ?

लगभग दस से उपर प्यारे , भोले साधक भाई मुझे मैसेंजर पर श्री महाराज जी के प्रबचन का कट क्लीप भेजा है मुझे यह समाझाने को कि भगवान के नाम लेने से पाप कटता है ।
 इतना पुराने साधक होने के बाद तो श्री महाराज जी के साधारण शब्दों में दिए गए सिद्धांतों को ठीक से समझना हीं चाहिए ,  बड़े भोले हैं  ।
एक दो भाई होते तो मैं उनको मैसेंजर पर ही उनके कन्फ्यूजन दुर करने का कोशीश कर देता पर यहां तो कुछ ज्यादा लोग थे  ।
भगवान के नाम लेने से पाप कटता तो लोग पाप करते रहता और अपने आप काटते रहता संसार में । 

तो मुझे यह पोस्ट लिखना पर रहा है ।
सबसे पहला - उसी क्लीप में सबसे पहले श्री महाराज जी ने शरणागति की बात सबसे शुरू में कहें है, जिसको लोग इग्नौर कर दिए । और उनके आगे का यह बात पकड़ लिए की बड़ा से बड़ा पापी भगवन नाम लेता है तो उनके पाप नष्ट हो जाते हैं । तो यह प्रुफ है कि अपने समझ के अनूसार सुविधा से अर्थ लगा लिए ऐसे लोग और शरणागति का शर्त भूल गए लोग । इसलिए बार बार मैं कट विडियो का और कट आऊडियो का विरोध करता हुं कारण इससे हीं भ्रांति फैलती है । 

सबसे पहले अजामिल बाला प्रबचन सुनिए श्री महाराज जी का ठीक से ।
अजामिल बहुत पापी था पहले ,  नारायन नाम अपने बेटे का रखा था । तो लोग अनुमान लगा लिए की अजामिल नारायण नाम लिया तो उसका पाप मिट गया , दरअसल शास्त्र को लोग नहीं समझ पाए , ऐसा श्री महाराज जी ने कहें हैं । 
तो लोग अंदाज लगा लिए कि अजामिल भगवान का नाम लिया मरते व्यक्त इसलिए गोलोक गया ।
जबकि श्री महाराज जी ने समझाएं हैं कि अजामिल देवदुत का बात सुना और वो समझ गया सब , सारा शंका मिट गया , अंत:करण शुद्ध हूआ उसी समय  और फिर शरणागत हो गया बात सुनकर भगवान का  और शरणागत होने के पश्चात जाकर मन से भक्ति  किया भगवान का । फिर उनको भगवद् प्राप्ति हुआ , और उसके पाप पुण्य दोनों भष्म हुए   , फिर मृत्यु के समय भगवान का नाम उनके मुख पर आया फिर गोलोक गया ।
अन्यथा मृत्यु के समय साधारण जीव के मुख पर भगवान का नाम नहीं आता कभी ।‌ इतना कष्ट होता है मृत्यु के समय ।

अनेक बार सुना है श्री महाराज जी से की प्रत्येक जीव का अनंत जन्म हुआ तो अनंत पाप और पुण्य दोनों जमा है । और अनंत में से अनंत चला जाए तौ भी अनंत हीं बचेगा । इसका मतलव किसी भी साधन से कभी भी न पाप कट सकता है और पुण्य । अगर थोड़ी देर के लिए इन साधको का ( जिसने मुझे मैसेज दिया है का ) बात मान भी लिया जाए की पाप नाम लेने से कटता है )तो अनंत पाप में से अनंत पाप कट भी जाए तो अनंत पाप हीं बचेगा । तो फिर क्या फायदा पाप कटने से ।
तो आप समझ लिजिए की श्री महाराज जी ऐसा बात कभी नहीं बोलें है जिससे भगवान का नाम लेने से पाप कट जाएगा ।

अत: मैं तो यही आग्रह करूंगा की एक बार ठीक से ध्यान देकर समझिए, सुनिय  फिर से श्री महाराज जी के प्रवचन को ।

अब दूसरा उदाहरण वाल्मिकी जी , डांकु रत्नाकर बहुत पाप किया ।
नारद जी मिले , नारद जी उसको सबसे पहले तत्वज्ञान दिए।   जिससे वो पाप कर्म करना छोड़ दिया और नारद जी पर दृढ़ विश्वास और प्रोढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुआ उसको संत संग से ,  वो पुर्णरूप से शरणागत हो गया, ( perfect surrendered) सतयुग का समय था जिससे शरणागत हो गया वो तुरंत उनके तत्वज्ञान पर दृढ़ विश्वास के फलस्वरूप ,  फिर नारद जी उसको भगवान का नाम राम राम रटने का आदेश दिए सबसे पहले , वो इतना पाप किया था कि राम राम भी नहीं बोल पा रहा था ठीक से  । तो नारद जी बोले उससे की जबतक मैं ना आऊं लौट कर , तुम मरा मरा हीं बोलो  भगवान राम का ध्यान करते हुए  ।
कारण की नारद जी को उसका अंत:करण शुद्ध करना था पहले , कुसंस्कारों को मिटना था  । 
अब जब बहुत सालों तक भगवान का नाम लेने से डांकु रत्नाकर का अंत:करण शुद्ध हो गया तो  फिर नारद जी अपने दिव्य दृष्टि से उसको देखकर उसके पास आए और उसके तमाम  पाप पुण्य को भष्म करके  अंत:करण को दिव्य बना कर दिव्य प्रेम दान कर दिया और डांँकु रत्नाकर वाल्मिकी हो गए  । 

तो दोनों कहानी से श्री महाराज जी ने साबित किया है कि नाम लेने से पाप नहीं कटता , अंत:करण शुद्ध होते जाता है । पाप पुण्य काटने या भष्म करने का शक्ति  महापुरुषों का है , गुरू का है केवल  । 

अब अगर केवल भगवान का नाम लेने से पाप कट जाता तो गुंगा बोल नहीं सकता , बहरा सुन नहीं सकता तो  कभी वो भक्त बन ही नही सकता । तो ऐसा बात श्री महाराज जी कभी नहीं बोलें है कि नाम लेने से पाप कटता है । यह समझने का बलिहारी है ।

अब आईए श्री महराज जी ने अच्छी तरह से समझाया है कि रूपध्यान युक्त होकर भगवान का या संत का , गुरू का  नाम , रूप लीला , धाम का किर्तन , मनन चिंतन से अंतःकरण शुद्ध होता है । अंतःकरण शुद्ध होने का मतलव कुसंस्कार मिटता है ‌ ।
उन्होने साधक को पहले उसके अंत:करण शुद्धि पर बल दिए हैं । पाप पुण्य कटने या भष्म होने का बात अंत:करण के शुद्धि के बाद शरणागति के बाद अंत:करण को दिव्य बनाते समय हीं गुरू पाप-पुण्य भष्म करते हैं ।
उसके पहले कभी पाप पुण्य कट हीं नहीं सकता ।
कौई अपने बल से नाम लेकर अपना पाप काट लेने का दावा करे तो मैं बहस में नहीं परता भाई।
जब पाप पुण्य नाम लेने से कट जाता , भष्म हो जाता तो फिर गुरू की क्या आवश्यकता है ?
  कोई अपने बल से नाम लेकर भगवान का अपना पाप पुण्य खुद काट लें तो फिर महापुरुषों का क्या काम , सोचना चाहिए । 
 अनंत पाप काटिएगा फिर भी अनंत हीं बचेगा । अनंत का फर्मुला नहीं बतलाया है श्री महाराज जी ने क्या हम सबको ?
कुछ लोग इतना पोस्ट पढ़ते हैं , विडियो देखते हैं फिर भी ठिक से नहीं  समझते  ।
हमने एक प्रवचन सुना दुसरा भूल गए , दुसरा सुना पहला भुल गए तो गलतफहमी तो पैदा होगा ही और भोले ल़ोग लगते हैं उल्टा मुझे समझाने कट आडियो भेज कर । जबकि उसी कट आडियो में सबसे पहले श्री महाराज जी ने कहें है कि पूर्ण शरणागति के बाद हीं पापी का पाप भष्म होता है हरिगुरू द्वारा  ।

और बिना अंत:करण शुद्धि के कोई पूर्ण शरणागत हो जाए , असंभव । 
तो यह भगवन् नाम आदि "मन" से रूप को ध्यान मैं लेकर हीं लेने से अंत:करण के कुसंस्कारों का सफाया होता है । मैं अपने पोस्ट गुढ़ रहस्य सिरियल पोस्ट में भी लिखा है अस्पष्ट रूप से । 
सारा  नाम रूप गुण लीला गान साधना , साधन अंत:करण की शुद्धि के लिए है । 
शुद्धि के बाद हीं सभी  प्रकार का किंतु परंतु शंका आदि सब मिट जाता है , लेंस मात्र भी नहीं रहता तब जाकर जीव पूर्ण शरणागत होता है । और पूर्ण शरणागत होते हीं गुरू अंत:करण को दिव्य बना कर , अनंत पाप पुण्य दोनों भष्म कर देते हैं और उसके पश्चात हीं दिव्य प्रेम दान देते हैं । उससे पहले नहीं ।
एक भी शंका अगर मन में बचा  हैं तो  इसका मतलव अंत:करण गंदा हीं है थोड़ा बहुत , और शंका रहने से पूर्ण शरणागति होना असंभव है । और बिना पूर्णशरणागति के ना पाप पुण्य भस्म होगा और ना हीं दिव्य प्रेम दान मिलेगा गुरू से ।
भाई उनकी कृपा से मैं जो भी जानता हुं मेरा तत्वज्ञान पक्का हुआ है , तो  मैं भ्रमित कैसे हो सकता  हुं । ए मुझे ना चाहते हुए भी कहना पर रहा है कारण कि कुछ भोले भाई लोग अपना  समझ मुझ पर थोपने का कोशीश करते हैं और अपना समय और इनर्जी दोनों नष्ट करते हैं ऐसा करके , तो मुझे यह पोस्ट लिखना परा । 

तो इस प्रकार कन्क्लुजन ए हुआ कि भगवान का ध्यान करके उनका नाम लेने से जीव का अंत:करण शुद्ध होता है, व आगे पाप ना करने की प्रवृति बनती है, संस्कार ठीक होता है,  पर पहले से संचित पाप तो भगवद्प्राप्ति के बाद हरिगुरू द्वारा हीं भष्म होता है। नहीं तो पाप का फल तो हमें मिलता  हीं है । उससे कोई नहीं बच सकता । चाहे हम कितना भी चालाकी से पाप क्यूं ना करें । सजा भोगना हीं परता है । 

माफ करियगा  , 
वो गीत हैं ना कि , "तुझसे नाराज़ नहीं , जिंदगी हैरान हुं मैं , तेरे मासुम सवालों से परेशान हुं मैं "। 

मुझे आप किसी से भी दुर्भावना नही है आपने मुझे लिखा  , तो मैं आपको बता दिया । राधे राधे ।

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।