मानव गुढ़ रहस्य भाग -7 ( हमारे बड़े काम की बात , बहुत बहुत महत्त्वपूर्ण )
गुढ़ रहस्य भाग -7 ( हमारे बड़े काम की बात , बहुत बहुत महत्त्वपूर्ण )
कल भाग 6 में हमने अंत:करण चातुष्ट्य के चित्त एलिमेंट को समझा । आज हम अंतिम एलिमेंट अहंकार की बात करेंगें , लेकिन उससे पहले मिसिंग एलिमेंट "विवेक " की बात करेंगें । यह शब्द बड़ा कौमन है पर अर्थ बड़ा गहरा है , बिना विवेक के बुद्धि अनाथ होता है , गलत फैसला हो जाता है बहुत विद्वान से भी , शिक्षित से भी , ज्ञानि से भी ।
तो विवेक क्या है ? विवेक है सदगुरू , विवेक है गणपति , ।
इसलिए गुरूनिष्ठ जीव कोई भी कार्य में सबसे पहले अपने गुरू को अपने ह्रदय में धारण करता है।
"प्रथम नमन गुरूवर पुनि गिरिधर ।"
और जिसके जीवन में सद्गुरू नहीं मिला अबतक वो जीव गणपति जी को धारण करतें हैं ।
प्रथमतया गणपति सुमिरिए , कोटि विघ्न टल जाई रे।
प्रथमतया गुरू को सुमिरिय , सर्ब कार्य सफल होई जाई रे।
याद होगा दुर्योधन , कौरव आदि विवेक धारण नहीं किया था तो उसका विनाश बड़ा भयानक , मौत कष्टदायक हुआ था । विना विवेक के ऐसी हीं गति होती है मनुष्यों की , विवेक धारण करने से मन बुद्धि चित्त अहंकार विवेक युक्त हो जाता है तो जीव गलत फैसला नहीं करता है । दुर्योधन भगवान से शस्त्र सेना यानि बल मांगा , विवेक हीन बल , और अर्जुण भगवान को हीं मांग लिया , यानि विवेक को चुना था । इसलिए विजयी हुआ ।
अर्जुण के पास जगद्गुरू श्री कृष्ण रूपी महाविवेक था इसलिए वो सफल रहे ।
हमारे पास श्री कृपालु महाप्रभु और हमारे इष्ठ दोनों अति उत्तम विवेक है ।
गुरू स्थूल शरीर नहीं होता , गुरू अपने सिद्धांतों , तत्त्वज्ञान के रूप में महाविवेक होतें हैं जिसको वरण करने से नहीं होता केवल , वल्कि सही सही धारण करने से होता है , जानने के बाद मानना , मानने के बाद स्वीकार करना , ह्रदय में धारण करना , अपनी बुद्धि को जोड़ देना गुरू से ( याद किजिए गुरू देव का सिद्धांत ) अपनी बुद्धि को विवेक से युक्त कर देना , तो स्वीकार करने के बाद उनके सिद्धांत को जीवन में उतारना आवश्यक है ,नही तो हमारा बुद्धि विवेक युक्त नहीं होगा केवल गुरू बना लेने भर से और आरती उतारने से , घर में फोटो सजा लेने मात्र से ।
गुरूदेव ने इसिलिए कहें है कि" कोई कार्य करने या औफिस के लिए घर से निकलो तो अपने हरि और गुरू को ह्रदय में बैठा के निकलो " फिर विवेकयुक्त बुद्धि से सब काम सफल होगा ।
अब जैसा गुरू वैसा विवेक । कोई कर्म मार्ग का गुरू हैं कोई धर्म मार्ग का तो कोई योग मार्ग का , कोई ज्ञान मार्ग का पर हमने सर्वश्रेष्ठ गुरू और इष्ट पाया है । भक्तियोग रसावतार , रसिक गुरू , सब कर्म , धर्म ,योग ज्ञान के पिता सद्गुरूदेव श्री कृपालु महाप्रभु को पाया है हमने । इसलिए हम सब परम सौभाग्यशाली हैं ।
संसार में संसारिक शिक्षक हैं वो विवेक नहीं , वो बुद्धि को सार्प करने का गाईड हैं । वो स्किल डेवेलपर हैं । विवेक नहीं डेवेलपर नहीं , कोई है तो वो मौरल शिक्षक भर हैं । यह अंतर ध्यान रखना है।
अब विवेक को समझने के लिए एक पौराणिक कथा याद करतें हैं , सब जानते हैं इस कथा को पुज्य. मां रासेश्वरी देवी जी ने बड़ा सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। मैं इसमें थोड़ा और डिटेल से व्यवहारिक रूप में चर्चा करेंगें यहां:-
जब मां पार्वती नहाने के लिए जा रही थीं तो अपने शरीर के उवटन से गणेश जी को जन्म दिया , ध्यान दिजिए - पार्वती जी का उबटन यहां बुद्धि का प्रतिक है । तो पार्वती जी ने अपने शक्ति से ,( पार्वती शक्ति है शिव जी के ) गणेश जी को प्रकट किया । तो गणेश जी केवल बुद्धि का पराकाष्ठा थे , पर विवेक हीन थे उस समय ।
( देखिए हमारे हिंदु धर्म में प्रत्येक कथा प्रतिकात्मक है पर अर्थ गुढ़ है पर साधारण पंडित केवल कथा कह देतें हैं और हम लोग सुन लेतें हैं पर्व भी मनाते हैं , कर्मकांड भी करते हैं पुजा पाठ पर मूल अर्थ से बंचित रह जाते हैं । इसलिए कोई फल नहीं मिलता इन कथा और कर्म कांड का ,पर्व का , केवल जश्न के तरह पर्व मनाना पाप है पुण्य भी नहीं )
तो पार्वती जी नहाने जाते समय बुद्धि को यानी गणपति को प्रकट किए और द्वार पर बैठा कर आदेश दे गई बुद्धि को की किसी को अंदर नहीं आने देना ।
अब आगे क्या हुआ सब जानते हीं हैं । शिव जी आ गए पर द्वार पर तो बुद्धि बैठा है गणपति , अभी बुद्धि विवेक हीन है । इसलिए गणपति उनको अंदर नहीं जाने दिया ।
विवेक युक्त बुद्धि होता तो जान लेते की शिव जी पिता हैं , आधा अंग है पार्वती जी के । आधा भाग शरीर का अंदर हैं और आधा भाग बाहर है जो अंदर जाने के लिए गणेश जी ( विवेकहीन बुद्धि ) को समझा रहें हैं । पर वो नहीं मान रहें हैं ।
(विवेक हीन बुद्धि , अतिबाद का शिकार हो जाता है , अतिशयोक्ति का शिकार , विवेक हीन बुद्धि अपने भावना का दुरूपयोग हीं करता है )
तो गणपति जी बुद्धि की पराकाष्ठा है पर विवेक शुन्य , इसलिए शीव जी के समझाने पर भी नहीं मान रहें हैं । शीव जी स्वयं विवेक हैं । पर विवेकहीन बुद्धि नहीं माना , अहंकार है । बुद्धि अहंकार को जन्म देता है ( अहंकार माने अभिमान है यहां ) इसलिए ज्ञानि , विद्वान विवेक हीनता के कारण अहंकारी हो जाता है।
इसलिए भगवान शिव को गणपति जी के अहंकार युक्त बुद्धि रूपी सिर को काटना परा और हांथी के सिर जोड़ना परा ।
हांथी का सिर क्यूं ? तो यह प्रतिकात्मक है ? हांथी का कान बड़ा होता है यानि यह कहता है कि हमें ज्यादा और ध्यान से सुनना चाहिए , अध्ययन करना चाहिए कम बोलना चाहिए , जरूरी हो वहीं बोलना चाहिए,
सुड़ यानी नाक बड़ा , यानी घ्राण शक्ति तीव्र , हांथी सुड़ उठाकर दुर से हीं गंध लेकर पानी , भोजन या किसी जंगली शेर के उपस्थिति यानी (विघ्ध बाधा ) का पता लगा लेता है , (इसिलिए गणपति जी को बिघ्नहर्ता , दूखहर्ता कहा गया है )
आंख छोटी यानि आंख पर भरोसा कम , क्योंकि जो दिखता है वो हो हीं यह जरूरी नहीं ।
"The things are not what is it seems" - शेक्सपियर ।
यानी जो दिखता है वो हमेशा सही नहीं होता , पर्दे के पीछे सच्चाई है , चेहरा से किसी को भोला मत मान लिजिए , साधु के रूप में डांकु भी हो सकता है ।
फिर हांथी का सिर बड़ा यानी मस्तिष्क का विकाश । विवेक युक्त मन बुद्धि का भंडार । ज्यादा बड़ा मेमोरी पावर , हांथी को हर बात सौ साल तक याद रहता है । वो तीन सौ पैसठो दिन अलग अलग जगह पर खाना ढुढ़ने जाता है । बड़ा शरीर यानी बड़ा सोचना , उदार बनना , संकुचित बिचार का नहीं । दुर दृष्टि , पक्का इरादा , कड़ी मेहनत , सेवा , और अनुशासित जीवन , हांथी की तरह
वो जनता है कि गर्मी में पानी कहां मिलेगा , यादास्त अच्छी होती है ।
लंबा उदर , लंबोदर है गणपति । यानि बात को पचाना है , बिवाद नहीं करना चाहिए ।
तो हांथी का सिर लगाया गया और प्राण ? तो भगवान श्री कृष्ण परम ब्रह्म प्रकट हुए स्वयं और अपने आत्मा का अंश डाले दिए गणपति जी में , प्राण प्रतिष्ठा यानि अपना स्वरूप शक्ति , इसलिए गणपति जी को द्वितियो ब्रह्मासी कहा गया है ।
तो हम लोग अतिबाद का शिकार होकर यह नहीं करें की गणपति जी को ना माने , श्री महाराज जी ने स्पष्ट कहें हैं कि मन को भगवान के किसी भी रूप यहां तक की किसी भी भगवद् प्राप्त वास्तविक संत में ले जाना या उनको सम्मान देना अनन्यता का भंग नहीं है कहीं से । अतिबाद विवेकहीन बुद्धि है और पाप है , नामापराध है ।
तो गणपति जी अब विवेकयुक्त हो गय ।
अब कर्म कांड में प्रथम पुज्य देवता के चुनाब के लिए प्रतिस्पर्धा रखा गया तो विवेक युक्त गणेश जी अपने विवेयुक्त बुद्धि से सबसे स्लो सवारी चुहा के साथ ही प्रति स्पर्धा जीत लिए , बिजई हुए। वो अपनी माता पिता का चक्कर लगा लिए । भगवान शिव अपने शक्ति पार्वती से युक्त इस ब्रह्मांड का ही साकार रूप है । हरेक ब्रह्मांड का एक शंकर होतें हैं , विवेक युक्त गणेश जी सही फैसला किए ।और लिमिटेड साधन से , यानि चुहा पर बैठ कर मैदान मार लिए ।
अब हमलोग उनसे यह अर्थ ना लगावे कि हम भी किसी काम से पहले अपने माता पिता का चक्कर लगा लें । यह अतिवाद होगा , भावना सही है पर सम्मान तक हीं संसार में सिमित हो तो अच्छा है । पैर छुए मां वाप का , बल और आशिर्वाद मिलता है और कुछ फल भी मिलता है अगर मां वाप भक्त हैं, सतोगुणी है तो , नहीं तो पैर छुकर सम्मान करना हमारा फ़र्ज़ है ।
तो गणपति जी प्रथम पुज्य हुए संसार में , इसिलिए सभी लोग कोई काम से पहले इनको याद करतें हैं ,व्यापारी अपने प्रतिष्ठान में इनकी पुजा करतें हैं पर कोई कोई गणपति जी के विवेक रूपी सिद्धांत को जीता है , जी जीता है वास्तव में वो जीव गलत काम , समाज विरोधी काम , घी के नाम पर जहर नहीं बनाता और बेचता है । यह विवेक हीन काम हुआ , ऐसे जीव का विनाश, मृत्यु कौरवों से भी भयानक तरीके से होता है, मृत्यु अधिक कष्टदायी होता है और अगला जन्म तिर्यक योनि में होता है ।
हम लोग महाविवेक रूपी दिव्य गुरू और इष्ट वाले हैं । हमे किसी काम में अपने गुरू देव को प्रथमतया याद करना चाहिए , कोई फैसला करना है महत्त्वपूर्ण तो एक दो मिनट अपने गुरू का रूपध्यान करें , पुछें उनसे मन हीं मन एकांत में फिर एक मिनट मौन रहें , संकेत मिल जाता है । अवश्य मिलता है और हम सफल होते हैं किसी काम में ।
अब अंत:करण का अंतिम एलिमेंट अहंकार - तो इस अहंकार का मतलव ना अभिमान है ,ना घमंड ना हीं मद ना ही स्वाभिमान । यह अहंकार अस्मिता को कहते हैं ।
यह है मैं और मेरा का भान , एहसास , मैं माने आत्मा और मेरा शरीर ,देहाभिमान । और यह कारण शरीर में रहता है कारण शरीर यानि वासनाओं का शरीर , स्थूल में भी नहीं और सूक्ष्म शरीर में भी नहीं । और यह ऐसे नहीं मिटता आसानी से । भगवद प्राप्ति के बाद हीं यह नष्ट होता है ।
इसके बारे में, तथा अब कुछ वैज्ञानिक पहलु आगे के पोस्ट में , तो वह पोस्ट भी बहुत इंटरेस्टींग होगा , नया नौलेज होगा हमलोगों को , श्री राधे ।
यह सब मैं जिस रूप में लिख रहा हुं आसान बना कर वो किसी एक किताब में नही मिलेगा वो भी ऐसे । शरीर योग विज्ञान में भी नहीं । अभी ब्रह्म मुहूर्त बेला में साधना किया , प्रेरणा हुई लिख दिया । मैं एक दिन पहले संकल्प करता हुं । शिष्य को केवल संकल्प करना होता है , गुरु पुरा करते हैं , क्योंकि बल और विवेक उनके पास है । वो मदद करतें हैं ।
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