योग का क्या मतलब है ? योग क्या हैं ? योग का असली अर्थ - श्री महाराज जी
योग का क्या मतलब है ? योग क्या हैं ? योग का असली अर्थ - श्री महाराज जी के श्री मुख से :- " संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्म परमात्मनो:। " (याज्ञवल्क्य ) जीवात्मा परमात्मा का मिलन हो उसका नाम योग। योग माने मिलन। तो जीवात्मा परमात्मा का मिलन तो सदा से है ही। होना क्या है? वो मन बुद्धि का मिलन। यानी आपके मन का अटैचमेंट सेन्ट परसेन्ट भगवान् में हो, निरंतर। अर्जुन को यही कर्मयोग बताया श्री कृष्ण ने। काम तो हत्या का, इतना बुरा काम किया हत्या करना, लाखों करोड़ो की हत्या की अर्जुन ने और जिनकी जिनकी हत्या की पुरुषों की उनकी स्त्रियाँ विधवा हो गयीं। अब विधवा होने के बाद बहुत सी स्त्रियाँ करैक्टरलेस हो गईं, दुश्चचरिता हो गईं। इतना सारा रियक्शन बुरा होगा, भविष्य में, लेकिन युद्ध कोई अच्छी चीज तो नहीं हैं ? ये अर्जुन ने स्वयं किया। हाँ और गवाही ? करोड़ो। लेकिन श्रीकृष्ण जो भगवान् बनें हैं उन्होंने अपने वहीखाते में कुछ लिखा ही नहीं। अरे दफा 323 भी नहीं लिखा। मर्डर वगैरह की बात कौन करता। क्यों ? इसलिये कि योग था उसके मन का श्रीकृष्ण में। " तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। " 'युध्य च ' लेकिन पहले ' मामनुस्मर ' योग हो जाय। फिर कोई कर्म करो तुम्हे उसका फल ही नहीं मिलेगा। क्योंकि कर्म की परिभाषा है जिस में तुम्हारे मन का अटैचमेंट हो उसका नाम कर्म। जिसमें मन का अटैचमेंट न हो उसका नाम ऐक्टिगं। ससुराल की गाली, अप्रेल फुल, पिक्चर में देखो कितने नाटक होते हैं वह कर्म नहीं है। क्योकि हिरो के मन का अटैचमेंट नहीं है वह तो ऐक्टिगं कर रहा है। तो उसी प्रकार अगर मन का अटैचमेंट भगवान में है तो हमारे किसी भी कर्म का कोई फल नहीं मिलेगा। - श्री महाराज जी ( कामना और उपासना भाग-2, पेंज 407)
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