हमारे यहां छह शास्त्र कौन कौन से हैं ? - मीमांसा, न्याय, सांख्य, वैशेषिक, पातंजलि, वेदांत ।

हमारे यहां छह शास्त्र हैं - मीमांसा, न्याय, सांख्य, वैशेषिक, पातंजलि, वेदांत । ये आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। माने ? वेद को अथॉरिटी मानते हैं ।
लेकिन आप सुनेंगे तो हैरान हो जाएंगे । पहला - मीमांसा दर्शन । वेद में दो काण्ड है - पूर्व कांड, उत्तरकाण्ड । तो पूर्व कांड को पूर्व मीमांसा कहते हैं , और उत्तर काण्ड को जिसमे उपनिषद हैं उसको उत्तर मीमांसा कहते हैं । वेदांत भी कहते हैं । शारीरिक भाष्य भी कहते हैं ।
तो मीमांसा दर्शन क्या कहता है ? वह भगवान्-वगवान् को नहीं मानता । वह कहता है - यज्ञादिक कर्म करो और उसी के फल के अनुसार वह कर्म ही फल बन जाएगा , अगले जन्म में और फिर उसका फल मिलेगा यज्ञ का - स्वर्ग । बस स्वर्ग की प्राप्ति ही अंतिम लक्ष्य है । वेद के अनुसार यज्ञ करो,  उसके अनुसार स्वर्ग जाओ,  स्वर्ग में बड़ा आनंद है , बस छुट्टी । और हमको क्या चाहिए ? आत्यन्तिक दु:ख निवृत्ति यानी सदा को दु:ख चला जाए ।

 नहीं, यह लक्ष्य नहीं है हमारा, अनन्त काल को अनंत मात्रा का सुख मिले यह लक्ष्य है।  दु:ख निवृत्ति तो अपने आप हो जाएगी । दु:ख निवृत्ति होने से आनंद मिलेगा यह कंपलसरी नहीं,  लेकिन आनंद मिलने से दु:ख निवृत्ति अवश्य हो जाएगी । 
(ध्यान दो ) तो मीमांसा दर्शन तो ना दु:ख-निवृत्ति कर सकता है और न आनंद प्राप्ति , वह तो स्वर्ग तक पहुंचा देगा और फिर उसके बाद "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति" ! फिर आओ 84 लाख में । यह तो बेकार है ।

नं. 2 सांख्य । एक सांख्य होता है निरीश्वर सांख्य । एक सांख्य होता है सेश्वर सांख्य ।  महाभारत के बन पर्व में अग्निकुल में अग्निवंशीय एक कपिल हुए हैं तो उनका सांख्य निरीश्वर सांख्य है यानी ईश्वर को नहीं मानते । २५ तत्त्व को मानते हैं । पुरुष, प्रकृति, अहंकार, महान्, पंचतन्मात्रा,  पंचमहाभूत एकादश इंद्रियांँ,  यह २५ तत्त्व, और इनके तत्वज्ञान से दुख निवृत्ति हो जाएगी । आनंद-वानंद नहीं । ये सिद्धांत वो नहीं मानते ।

और एक कपिल हुए हैं देवहुती के पुत्र । ये भगवान के अवतार हैं । भागवत में इनका बड़ा लंबा-चौड़ा निरूपण है। इनके सेश्वर सांख्य है, यानी एक तत्त्व और मानते हैं २६ वांँ ईश्वर ।
तो सांख्य से दु:ख निवृत्ति मात्र अगर हो भी गई तो हमारा कोई काम नहीं बनेगा । हमको तो दिव्यानंद चाहिए - अनलिमिटेड ।
अब तीसरे आए - न्याय दर्शन । ये गौतम का है । इनके यहांँ तत्त्वज्ञान है,  प्रमाण, प्रमेय आदि 16 तत्त्व हैं और ये ईश्वर को मानते हैं,  खाली मानते हैं । परमाणुओं से सृष्टि हुई । पृथ्वी, जल, तेज, वायु इन चार तत्त्व के जो सूक्ष्म परमाणु है उनसे संसार बना ।  लेकिन वह परमाणु अपने आप नहीं बन सकते इसलिए ईश्वर की जरूरत है। वह इन परमाणुओं के द्वारा सृष्टि करता है । लेकिन ईश्वर की उपासना वगैरह आवश्यक नहीं है । बस तत्त्वज्ञान कर लो हो गया ।

अब इसके बाद आए वैशेषिक - कणाद ऋषि इनके प्रवर्तक हैं । ये भी न्याय की तरह बातें करता है लेकिन तत्त्व इसका अलग है । इनके छः तत्त्व हैं । उनका ज्ञान प्राप्त कर लो तो दु:ख निवृत्ति हो जाएगी, आनंद-वानन्द की बात नहीं । 
अब आम  पातंजलि , पातंजलि का बनाया हुआ दर्शन । ये ईश्वर को मानते हैं लेकिन ईश्वर भक्ति-वक्ति नहीं । यह कहते हैं योग-चित्तवृत्ति निरोध । मन का निरोध कर लो तो अपने स्वरूप में स्थित हो जाओगे , आनंद-वानन्द नहीं । आनंद को निकृष्ट मानते हैं । संप्रज्ञात समाधि, असंप्रज्ञात समाधि - ये दो प्रकार की होती है इनकी ।

तो घूम-घूम कर यह पांचों दर्शन हमारे काम के नहीं हैं। ये बहुत से बहुत अगर कुछ करें भी तो टेंपरेरी दु:ख निवृत्ति कर सकते हैं ।आत्यन्तिक दु:ख निवृत्ति नहीं होगी ।
(ध्यान दो)  बिना माया समाप्त हुए दु:ख समाप्त नहीं हो सकता सदा को । और माया समाप्त करने के लिए भगवान की शरणागति - 
"मामेव ये प्रपद्यन्ते  मायामेतां तरन्ति ते ।" (गीता 7-14)

 इसलिए इन पांँचों दर्शन के अनुयायियों को मोक्ष नहीं मिल सकता । आत्यन्तिक दु:ख निवृत्ति सदा को नहीं हो सकती । ऋद्धि, सिद्धि हो जाएगी, अणिमा, लघिमा, गरिमा भी पा लेंगे, मान लिया । लेकिन दो लक्ष्य जो है,  एक कम अक्ल का - सदा को दुख चला जाए और एक अक्ल का - सदा को आनंद मिल जाए । ये दो में एक भी हल नहीं हो सकता ।

 अब वेदांता आया । मनुष्य शरीर का जो वास्तविक लक्ष्य है वह वेदांत के द्वारा हल होता है । क्योंकि वेदांत का जो प्रतिपाद्य ब्रह्म है वो " रसो वै स:"  वह रस है- "आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात् "। (तैत्तिरीयो. उपनिषद ३-६) 
वह आनंद है । हमको आनंद चाहिते और वह आनंद है और हम उनके अंश हैं ।
( ध्यान दो ) हम उसके अंश हैं ? किसके ? आनंद के। आनंद भगवान् का पर्यायवाची शब्द है । भगवान् ही आनंद है , आनंद ही भगवान् है,  या भगवान में आनंद है, आनंद में भगवान् है या आनंदमय  भगवान् है, भगवन्मय आनंद है। 
:- श्री कृपालु जी महाराज । 

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