मानव गुढ़ रहस्य भाग - 8 ( यह पोस्ट बहुत महत्त्वपूर्ण और टेक्निकल है ।

गुढ़ रहस्य भाग - 8 ( यह पोस्ट बहुत महत्त्वपूर्ण और टेक्निकल है । 
गुढ़ रहस्य भाग - 8 ( यह पोस्ट बहुत महत्त्वपूर्ण और टेक्निकल है । आपके जानकारी के लिए है बड़ा काम का जानकारी है । यहां आपको बतलाऊंगा जीव के भावना का प्रकार, प्रवाह आदि का माध्यम और मानसिक और शारीरिक रोग का कारण  , जीवशरीर रोग का शिकार कैसे होता है , मनुष्य सफल असफल किसी भी क्षेत्र में क्यों होता है आदि ) 
 भक्तियोग तो सर्वश्रेष्ठ है भक्ति से सब ज्ञान अपने आप हो जाता है । 
देखिए ज्ञान और जानकारी में अंतर होता है ।
ज्ञानी उसको बोलते हैं जिसको ज्ञान का साक्षात्कार हुआ हो । और किसी के लिखे पुस्तक को पढ़ कर जानकारी हासिल करना , रट लेना बिना प्रैक्टिकल के उसको जानकारी कहतें हैं । जितने भी वैज्ञानिक हुए हैं या ऋषि-मुनि आदि वो सब ज्ञानी थे । 

ज्ञान अपने साधना के परिणामस्वरूप उतरता है तेज द्वारा और वो जीव पुस्तक लिखता है । जैसे कपील ऋषि , परासर , पतंजलि , इनलोगों ने ग्रंथ लिखा । कपील भगवान श्री कृष्ण ( उनके विष्णु के विलास अवतार )  के पांचवें अवतार थे , भगवान ने स्वयं गीता में कहा हैं कि मैं ऋषियों में कपील हुं । जिन्होने सांख्यदर्शन दिया संसार को ।  और योगदर्शन छः आस्तिक दर्शनों (षड्दर्शन) में से एक है। इसके प्रणेता पतञ्जलि मुनि हैं। यह दर्शन सांख्य दर्शन के 'पूरक दर्शन' के नाम से प्रसिद्ध है। 
अब आधुनिक भौतिक संसार के ज्ञानी जितने भी आधुनिक वैज्ञानिक थे वो हैं जैसे, आर्यभट्ट, न्यूटन , गैलिलियो , आर्कमिडिज, आइंस्टीन, होमीजाहांगिर भाभा , जगदिशचंद्र बोस , विक्रम साराभाई , डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन,  रमन साहब , कलाम साहब आदी, स्टीफन हाकिंग आदि । 
एक ज्ञानी सिग्मंड फ्रायड का नाम सुना होगा 1928 में मनोविज्ञान दिया , इनको मनोविज्ञान का फादर कहतें हैं ।

  ज्ञान इनके मस्तिष्क में स्वत: उतरा और इन्होंने सिद्धांत लिखा अनेक प्रकार के अलग अलग क्षेत्र में अपना अलग अलग  । जाहिर है कोई पुस्तक सबसे पहले भगवान से ज्ञान पाकर हीं सबसे पहला पुस्तक लिखा है , वही आगे बढ़ता गया ।
और इस पुस्तक , सिद्धांत को पढ़ के कोई समझ पैदा कर लें उसको ज्ञानि नहीं कहेंगे , उसको कौपीकेटर कहते हैं , रीडर कहते हैं संसारिक बोलचाल में , पर दरअसल ए सैद्धांतिक जानकार होतें हैं असली प्रैक्टिकल विद्वान नहीं  । 

अब ज्ञानी अनेक प्रकार के हैं अलग अलग बिषय के अलग , तो हमलोग यहां सांख्ययोग दर्शन द्वारा समझेंगे शरीर विज्ञान को । यानि कपील ऋषि का सांख्य दर्शन प्लस पतंजली का योग दर्शन = सांख्ययोग दर्शन ।

तो पहले के पोस्ट से सबको मालुम हो गया होगा की पूर्वजन्मों के कर्म फल अंत:करण में संचित रह कर ज
 जीवात्मा एक शरीर छोड़कर दुसरा शरीर पाता रहता है । 84 लाख योनि का यह चक्र अनवरत चलता रहता है जबतक जीव भक्तियोग द्वारा अपने आत्मा को सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर से मुक्त ना कर लें । भक्ति द्वारा हीं यह संभव है  । क्योंकि अन्य मार्ग जैसे  ज्ञान मार्ग , योग मार्ग , कर्म मार्ग , धर्म मार्ग , या दान मार्ग का लिमिट है । कोई आत्मज्ञान करा के छोड़ देगा रास्ते में फिर भक्ति हीं करनी पड़ेगी , तो कोई स्वर्ग में ले जाकर इंद्र बना‌ कर या देवता बना कर छोड़ देगा , कोई संसार में राजा बना देगा , धनीमनी आदमी के घर जन्म दे देगा आदि। तो कोई बुरा कर्म ,   पतन कराकर नरक ले जाकर छोड़ देगा तो कोई मनुष्य शरीर फिर दिलवा देगा लेकिन आभाव ग्रस्त घर में   आदि ।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है :- 

वंसासि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहण्याति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।
गीता ( २.२२)
भावार्थ - जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है , वैसे हीं जीवात्मा को पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर की प्राप्ति होती है , ठीक वैसे हीं पूर्व जन्म के कर्म ( पाप, पुण्य की गठरी )  और संस्कार ( सुसंस्कार और कुसंस्कार दोनों की गठरी ) अपने अंत:करण में सूक्ष्म शरीर में जीवात्मा के साथ एक शरीर से दुसरे शरीर में जाती रहती है ।

अब समझते हैं अटैज्ड डाईग्राम से -
यह सब ध्यान में रखियेगा की सूक्ष्म शरीर में रहता है और स्थूल शरीर पाने पर एक्टिभ हो जाता हैं ।
तो कारण शरीर और सूक्षम शरीर के बिच संतुलन बनाना , बिचारों के प्रवाह , भावनाओं का संचार इन्ही के माध्यम से होता है । अच्छा बुरा दोनों प्रकार का भाव आदि ।
फिजिकल शरीर में रक्त धमनियां होती है और न्यूरोंस होतें हैं , रक्त धमनियां फिजिकल शरीर के अंग और कोशिकाओं का पोसन करतें हैं पर 72000 नाड़ियां मन बुद्धि चित अहंकार के न केवल विचारों के प्रवाह को संचालित करती है जबकि प्राण शक्ति भी देती है आत्मा द्वारा , और आत्मा भगवान का जीव शक्ति है  हम भगवान का डाईरेक्ट अंश नहीं है , उनके तटस्थ शक्ति जीव शक्ति के अंश है । (भगवान की तीन शक्ति है , स्वरूप शक्ति , जीव शक्ति और माया शक्ति । तो स्वरूप शक्ति जो है भगवान श्री कृष्ण का वो उनका पर्सनल दिव्य शक्ति है । और माया शक्ति अपरा शक्ति यानि जड़ शक्ति है या इसको बहिरंगा शक्ति भी कहते हैं । और सभी जीवात्मा उनका तटस्थ शक्ति यानी जीवशक्ति या परा शक्ति का अंश होता है ।
अब भगवान सत् चित्त और आनंद है तो उनका स्वरूप शक्ति भी तीन है , सत से संधिनी शक्ति , चित् से संबित शक्ति और आनंद से ह्रलादिनी शक्ति । तो संबित और संधिनी शक्ति से जितने भी भगवान कहे जाते हैं जैसे शकंर जी , गणेश जी , ब्रह्मा विष्णु , पार्वती , काली , दुर्गा , उमा , रमा , लक्ष्मी , हनुमान जी है । और ह्रलादिनी शक्ति जो सबसे ऊंचा और आनंद यानी परमानंद यानी परमानंद के प्रेम रूपी  महाभाव का सार तत्त्व राधा रानी है जो भगवान श्री कृष्ण की आत्मा है । इसलिए भगवान राधा रानी के दास हैं । हां स्वर्ग के देवी देवता भी हमारी तरह उनके जीव शक्ति का अंश है , मनुष्य हीं पुण्य करके इंद्र वरूण कुबेर बनाता है स्वर्ग में जैसै हरिचंद्र , दानवीर राजा वली आदी, दशरथ जी आदी और उनके पुर्वज आदी  । )

तो मनुष्य में इन सभी को संचालित करने का भार इन 72000 नाड़ियों पर है । जिसमें 72 मेन नाड़ियां हैं ।
और इन्ही के अवरोध को पैरालाइसिस मारना कहते हैं । आप देखा होगा पैरालाइसिस में अंग जीवित रहता है पर न्यूरोंस काम करना बंद कर देता है । कारण की उसका संचार मन के द्वारा नाड़ियों के माध्यम से कट जाता है , फिर उस अंग में मन का आदेश नहीं पहुचता । कोमा में जाने वाला जीव का तो मन से फिजिकल शरीर का संचार ध्वस्त हो जाता हीं है ।

तो सात चक्र होते हैं देखिय डाईग्राम में -
पद्मासन मुद्रा 1. मूलाधार चक्र 2. स्वाधिस्ठान चक्र 3. नाभि चक्र 4. अनाहत चक्र 5. विशुद्धि चक्र 6. आज्ञा चक्र 7. सहस्रार चक्र ; A. कुण्डलिनी B. ईड़ा नाड़ी C. सुषुम्ना नाड़ी D. पिंगला नाड़ी

योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में यह माना जाता है कि नाडियाँ शरीर में स्थित नाड़ीचक्रों को जोड़तीं है।

कई योग ग्रंथ १० नाड़ियों को प्रमुख मानते हैं[1]। इनमें भी तीन का उल्लेख बार-बार मिलता है - ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। ये तीनों मेरुदण्ड से जुड़े हैं। इसके आलावे गांधारी - बाईं आँख से, हस्तिजिह्वा दाहिनी आँख से, पूषा दाहिने कान से, यशस्विनी बाँए कान से, अलंबुषा मुख से, कुहू जननांगों से तथा शंखिनी गुदा से जुड़ी होती है। अन्य उपनिषद १४-१९ में मुख्य नाड़ियों का वर्णन करते हैं।

ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वाह करती है। इस नाड़ी का रंग शुभ्र व्रण का होता है ( देखें डाईग्राम में ) स्वर में शिव स्वरोदय, ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है - जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे स्थित है। कोई व्यक्ति देखें होंगें केवल निगेटिभ हीं सोंचता है हर बात में  हर व्यक्ति में  । इसका मतलव उसका यह नाड़ी अधिक एक्टिभ हो गया है, तीनों मुख्य नाड़ियों का संतुलन बिगड़ गया है । और हर बिषय वस्तु में वो केवल दोष हीं देखता है , निगेटिभ भावना‌ होती है । ऐसे को किसी पर भी विश्वास नहीं होता , भगवान और गुरू पर भी नहीं , खुद पर भी नहीं ।‌ असफल जीवन जीता  है वेचारा  । ऐसा जीव हीन भावना का शिकार हो जाता है । हर बिषय में नुक्स निकालना , हर अवसर में समस्या देखना ,  
बेसलेस चिंतन , हमेशा डर में जीना , भय में रहना , आलसी , दूसरे पर निर्भर रहना , ऐसा लोग भी कभी कभी आत्यहत्या कर लेता हैं ।
 
घर में या बाहर हमेशा झगड़ेगा ऐसा जीव । आप किसी की बड़ाई करेंगे तो यह आपकी बात काट कर बुराई करेगा ।‌और कोई उसी व्यक्ति का बुराई करेगा तो यह बड़ाई करेगा ।‌यानी ऐसा जीव हवा में काल्पनिक उड़ान का शिकार होता है , इसका सपना निरर्थक होता है , कभी ऐसे का सपना सच नहीं होता । हताश , निराश होता है । 

पिंगला धनात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इसका रंग रक्त वर्ण होता है । इसको सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है।
किसी किसी में ओभर कन्फिडेंस हो जाता है इसके अधिक एक्टिभ होने से ।‌ जीव अतिउत्साही हो जाता है ।‌अति महत्त्वाकांक्षी , खुद के भावना पर कंट्रौल नहीं होता । प्यार में पागल होकर आत्महत्या कर लेना , या किसी भी बात में मडर कर देना , अपराधी बन जाना, गलत काम करना , गलत काम जोश में होश खोकर करना ,   डिप्रेशन में चला जाना होता है ।
यह जीव  OCD - Obsessive Complusive Disorder का शिकार हो भी हो जाता है  । यानि बिता हुआ काल में गलत निर्णय से भारी नुक़सान का तीव्र पछताबा के कारण डिप्रेसन होना । भुतकाल में मन के बिचारों के प्रवाह का होना , घीसा हुआ रेकर्ड प्लेयर में सूई का अटक जाना है ओसीडी । 

पिंगला का उद्गम मूलाधार के दाहिने भाग से होता है जबकि ईडां का बाएँ भाग से।

सुषुम्ना नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं. इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है। सुषुम्ना नाड़ी जिससे श्वास, प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही प्रवाहित होती है। सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही 'योग' कहा जाता है। योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह रास्ता है जिसके द्वारा शरीर की ऊर्जा का परिवहन होता है। जिसका सुषुम्ना नारी एक्टीभ होता है वो शालिन होता है ।
उसका इड़ा पिंगला दोनों जितना बैलेंस होता है , वो जीव समझदार होता है , वो हर जगह सफल होता है।

इडा और पिंगला में गरबड़ी के कारण जीव के फिजिकल शरीर में कफ पित और वात में संतुलन बिगड़ जाता है तो अनेक प्रकार का रोग हो जाता है शरीर को ।

सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं।

अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं और मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। परन्तु सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, असल में तभी से यौगिक जीवन शुरू होता है। 

 सुषुम्ना नाड़ी को एक्टीभ करने के लिए सबसे बढ़िया माध्यम है रूपध्यान साधना , भक्ति , जैसे जैसे सुषुम्ना नाड़ी एक्टिभ होते जाएगा , साधना असर दिखाती जाएगी । तो श्री महाराज जी द्वारा बतलाए गए रूपध्यान साधना को ठीक ठीक  नियमित करने से यह सब सहज संतुलित होकर ठीक हो जाता है । 

अष्टांग योग द्वारा भी यह एक्टीभ होता है । पर बहुत समय लगता है , कभी कभी जीवन बीत जाता है तब जाकर यह पूर्णरूप से  एक्टीभ होता है और आत्मक ज्ञानी हो जाता है जीव  । वो जीव योग द्वारा चारों कोष और पंच प्राण को साधकर अपने आत्मा के स्वरूप से साक्षात्कार हो जाता है । 
हां साधारण हम जीव  नाड़ियों का संतुलन योगासन द्वारा एक महीने में  शरीर को ठीक कर सकतें हैं मानसिक रोगी हो या शारीरिक रोग दोनों ।  जैसे कपालभांति, अनुलोम-विलोम, भष्त्रिका, भ्रामरी , 
फिजिकल समस्या को ठीक करना जैसे सूर्य नमस्कार सबसे महत्त्वपूर्ण है । उसके बाद वृक्क्षासन , नौकासन , धनुरासन , सर्पासन , मयुरासन , मंडूकासन आदि, बहुत प्रकार है ।

शेष अगले पोस्ट संख्या 9 में ।

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।