तत्त्व ज्ञान समझ आते हुए भी हमारे व्यवहार में क्यों नहीं आ पाते ? हम सब कुछ जानते , समझते हुए भी गलतियां करते हैं ।
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प्रश्न:- तत्त्व ज्ञान समझ आते हुए भी हमारे व्यवहार में क्यों नहीं आ पाते ? हम सब कुछ जानते , समझते हुए भी गलतियां करते हैं ।
उत्तर - मैं समझा दूंगा , फिर तुम सैद्धांतिक रूप से समझ लोगे, फिर व्यवहार में नहीं आएंगी , क्योंकि सैद्धांतिक समझ कोई समझ हीं नहीं है । समझ वही है जो व्यवहार में आ जाए, नहीं तो समझ का धोखा है ।
मैं जो शब्द बोल रहा हूं , सीधे-साधे हैं , ये आपलोगों के समझ में आ जातें हैं , मगर शब्दों के भीतर जो छिपा है, वह शब्दों से बहुत बड़ा है, वहां चूक हो जाता है । आप शब्दों की खोल तो इकट्ठी कर लेते हैं परंतु अर्थों को चूक जातें हैं । फिर उस खोल से क्या होगा !
और आपके मन में यह भी सवाल है कि थ्योरिटिकल रूप से जो बातें समझ में आ गया तो व्यवहार में कैसे लाऊं ?
सच यह है कि जब समझ में लाना नहीं होता , व्यवहार में लाना पड़े तो भी मैं आपसे कहुंगा कि समझ में कुछ नहीं आया।
दरअसल समझ में न आने वाले को हीं व्यवहार में लाने की चेष्टा करनी परती हैं । जिसको समझ में आ गया , बात वहीं खत्म हो गई, व्यवहार में लाने की चेष्टा का सवाल हीं नहीं है ।
अगर आपको जिस क्षण समझ में आ गया कि सिगरेट पीने में जहर है, इससे शरीर का नूकसान है तो उसी क्षण आपके हाथ में आधी जली सिगरेट , आधी जली हीं रह जाएगी , और उसी क्षण हाथ से गिर जाएगी , सिगरेट कभी फिर आपके ओठों पर नहीं आएगी ।
बात खत्म हो गई। अब आप यह नहीं कहेंगें कि हम समझ गय जी , अब सिगरेट छोड़ने की अभ्यास करेंगें ! हम सिगरेट छोड़ने का प्रण लेंगें , कम कर देंगें धीरे धीरे और फिर अंत में छोड़ देंगें । ऐसा बर्षों का अभ्यास है सिगरेट पीने का , अब बर्षों लगेंगें इसको घटाने में आदि आदि।
अगर यह किया तो बात साफ है कि आपको समझ में नहीं आई बात ।
जब चीजें समझ में आ जाती है किसी के तो तत्क्षण परिणाम होता है , ध्यान दो .... 'तत्क्षण' मैं कह रहां हूं । एक क्षण भी नहीं खोता वो ।
एक बात जब समझ में आ जाती है उसी क्षण वह समाप्त हो जाती है । व्यवहार में लाना नहीं परता , वल्कि व्यवहार में आ जाता है तत्क्षण ।
व्यवहार में लाने का प्रयास का तो एक हीं अर्थ है कि आप समझें हीं नहीं बात , केवल आपको समझ में आने का धोखा हुआ है ।
आप समझने के धोखे में आ गए । प्रबचन सुन लिया , गर्दन भी हिला दी , मुण्डी भी हीला दी, लोगों से गातें फिरे ' श्री महाराज जी बहुत अच्छा बोलतें हैं , सब समझ में आ गया '
किन्तु वास्तव में कुछ भी नहीं समझे , केवल समझ में आने का धोखा हुआ है ।
भीतर - भीतर कुछ और समझते रहे और उपर उपर कुछ और समझ लिया ।
आपके भीतर समझने का भ्रम हो गया !
उपर उपर आपने मान लिया कि सिगरेट पीना खतरनाक है , लेकिन भीतर भीतर आपका मन यह स्वीकार नहीं किया ! आप यह समझते रहे कि नहीं जी , इतना खतरनाक नहीं ।
भीतर भीतर न्यस्त स्वार्थ है ।
बौद्धिक समझ , थ्योरिटिकल समझ काम नहीं आएंगी ! और तरह की समझ चाहिए , अंदर से समझ में आनी चाहिए , आन्तरिक समझ चाहिए , व्यवहारिक समझ चाहिए , इसके लिए प्रैक्टिकल समझ चाहिए , और प्रैक्टिकल समझदारी के लिए साधना करनी होगी , रूपध्यान का विज्ञान इसलिए बतलाया गया है ।
जब आप सब रूपध्यान नियम से करेंगें तो व्यवहारिक समझ अपने आप हो जाएगी , अंत:करण शुद्ध होगा , फिर बातें व्यवहार मे, आचरण में अपने आप आ जाएगी , लाना नहीं पड़ेगा।
अब समझा हुआ आदमी , जागा हुआ आदमी , सिगरेट , शराब नहीं पियेगा कभी , क्योंकि अब सबसे बड़ी शराब उसके भीतर उतरनी शुरू हो जाएगी । वह परमानंद का रस पीने लगेगा , भगवान संबंधी रस पियेगा , " रसो वै स: " अब उसका रस पिएगा । परम रस बहने लगेगा ।
अब वह संसार के कुड़ा कबाड़ा में नहीं उलझेगा । उसका तार तब हरि-गुरू से जुड़ जाएगा हमेशा के लिए ।
जब तक जीव परम रस नहीं पा लेगा तब तक वह संसार में हीं सुख ढ़ुढ़ता फिरता है , पर संसार में सुख का लवलेष तक नहीं ।
इसलिए आपलोग सब सुन लेतें हैं , पढ़ लेतें हैं और समझने के भ्रम में परे रहतें हैं । बड़े से बड़े समझदार क्यों नहीं हो , आप समझें हीं नहीं मेरी बातों को याथार्थ में , समझने के भ्रम में हैं , "नहीं जी वो हं हं हं हम तो सब समझ गय श्री महाराज जी के सबसे नजदिक रहे बर्षों !" दुसरे को समझाते रहे , लेक्चर देतें रहे , परन्तु वास्तव में खुद कुछ भी नहीं समझे ,
खुद खाली है , खाली डब्बे के जैसे , जैसे सेठ जी का दुकान खाली डब्बे से भरा है कि लोग समझे की सेठ जी के दुकान में माल भरा है । ग्राहक को धोखा हो रहा है ।
यही स्थिति सभी की है ।
समझ का धोखा , विश्वास हीं नहीं गुरू की बातों पर , फिर किर्तन किए जा रहें हैं ' हरे रामा हरे रामा , हरे कृष्णा , हरे कृष्णा हरे हरे ' लोग कहतें हैं कि बड़ा बढ़ीया गातें हैं ,बढ़ीया गवईया हैं । लोग तारीफ करें , यह तारीफ का जो भुख है सबसे ख़तरनाक हैं , गर्त में ले जाएगा । दीनता नहीं आने देगा । केवल मुंह से बोलने से कि मैं दीन हुं , दीनता नहीं है ।
पद को बिना समझे गाते जा रहें हैं , गीत गा रहें हैं , गुरू जी ने लाखों बार कहा
' भगवान के हरेक नाम में भगवान स्वयं बैठे हैं ' पर मुन्डी हिला दिए कि समझ गय , पर वास्तव में नहीं समझे और ना माने , इसलिए व्यवहार नहीं बदला , आचरण नहीं बदला , रूपध्यान , एकांत साधना के लिए बार- बार , बार- बार कहा जा रहा है , पर कुछ परवाह नहीं , और फिर कहतें हैं कुछ नहीं होता , अरे कैसे होगा !
आपने अपने गुरू के बातों पर भरोसा हीं नहीं किया तो कैसे गुरू आपको अपनाएगा । कैसे आपको प्रेम दान करेगा। आप अपने गुरू की बातों को मानतें हीं नहीं , समझा हीं नहीं , प्रैक्टिकल करते हीं नहीं तो कैसे गुरू और शिष्य संबंध स्थापित हो , कैसे कल्याण हो ।
कितना भी सत्संग क्यूं ना करें , करते रहो किर्तन गवईया की तरह दिन रात , गातें रहो , बजाते रहो जीवन भर कोई फर्क नहीं परेगा, और कहतें हैं कि हम सत्संगी हैं ,
झुठ ! गुरू से धोखा , नामापराध किए जा रहें हैं । गुरू को अंतर्यामी कहते हैं पर मानते नहीं , समझते नहीं , अगर वास्तव में ह्रदय से स्वीकार करते तो जरूर एक क्षण में हीं कल्याण हो जाता ,सबकुछ मिल जाए एक क्षण में हीं , फिर कुछ भी पाना शेष नहीं।
इसलिए आप सबसे एक बार फिर कहता हुं साधना करो , रूपध्यान करो , सब अपने आप समझ जाओगे , परम सुख मिल जाएगा । दिव्य रस मिल जाएगा । मालोमाल हो जाओगे , वर्णा तोतें की तरह तत्त्वज्ञान रटते रहो , कोई फर्क नहीं परेगा ।
:- श्री महाराज जी के प्रबचन का अंश ।
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