गुढ़ रहस्य भाग -4 ( गुढ़ बातें शुरू )

गुढ़ रहस्य भाग -4 ( गुढ़ बातें शुरू )
अब और गहरी बात होगी इस पोस्ट में, पर यह व्यवहार में उतारने वाली बात है और उतारने पर बहुत जल्दी जल्दी फायदा होगा । मैं विल्कूल मौन और नि:शब्द हुं , जो हो रहा है वो कर रहें हैं , यह भी आपको समझ में आ जाएगा आगे की कैसे वो कर रहें हैं !)

तो अब बात करते हैं अंत:करण चातुष्ट्य का , तो सबसे पहले समझते हैं मन क्या है यह कैसे काम करता है ?

मन- मन बिचारों का लगातार प्रवाह रूपी मशीन‌ है , मां के गर्भ में भ्रूण का विकाश होता है , सातवें महीने के तीसरे सप्ताह में उसमें जीव आत्मा प्रवेश करती है। 
जीवआत्मा और आत्मा में अंतर है, भेद है। हम सभी जीव,  श्रीकृष्ण के जीव शक्ति विशिष्ट का अंश है ( याद किजिए श्री महाराज जी के प्रवचन को) हम उनके संधिनी शक्ति हैं । संधिनी शक्ति मतलव उनके शक्ति द्वारा चेतन शक्ति , हर क्षण संधान शक्ति , यह रहस्य भी पोस्ट पढ़ने के दरम्यान आगे पता चलेगा आपको ।
आत्मा सदा से सूक्ष्म शरीर के अंदर कारण शरीर में कैद है , सदा से कैद है , सनातन कैद है ,इसलिए भगवान से विमुख हैं सदा से और एक स्थूल शरीर छोड़ने के बाद दुसरा धारण करता रहता है और अपने द्वारा अर्जित संस्कारों के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के स्थूल शरीर धारण करता रहता है जन्म जन्म , इसी को कहते जन्मना , इसी को कहा गया है पुनर्पि जनननम , पुनर्पि मरनम , जठरे शयनम । यानि बार बार जन्म मृत्यु का चक्कर , मां के गर्भ के जठर में बार बार परना ।  तो फिर सूक्ष्म शरीर में कैद कारण शरीर और कारण शरीर में कैद आत्मा हीं जीवात्मा कहलाती है । और इसिलिए जीवात्मा को बार बार पंच महाभूत का  स्थूल शरीर धारण करना परता है । और यह चक्र तभी समाप्त होगा जब जीव भक्ति करके तीनों शरीर ( कारण शरीर , सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर ) के बंधन से सदा के लिए मुक्त ना हो जाए । क्योंकि मरने के बाद केवल स्थूल शरीर हीं छुटता है । सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर में बंधा आत्मा इससे मुक्त नहीं होती । और हमारे तमाम जन्मों का संस्कार , कुसंस्कार , पाप , पुण्य अंत:करण रूपी पेन ड्राईभ में रेकर्डेड है तो यह अंत:करण तो सूक्ष्म शरीर में रहता है और  मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहती है और फिर अनेकों जन्म में साथ साथ रहती है । जब तक कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं होगी यह साथ रहेगी और हम अपने पाप पुण्य , संस्कार को भोगते रहेगें और उसी के अनुसार बनी मनोवृत्ति से प्रवृत होकर मानव योनी कभी मिल गया तो नया कर्म भी करते रहते हैं । 

जब भक्ति द्वारा सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर दोनों नष्ट हो जाता है तो आत्मा आजाद हो जाता है फिर वो सीधा भगवान के दिव्य धाम चला जाता है , परमानंद से मिलने , अब भक्त द्वेत में रहता है और भगवान के प्रेम रस को पीता है पर मौक्ष की कामना वाले भोले लोग परमात्मा में लीन हो जाते हैं , खुद का लय हो जाता है , स्वयं आनंदस्वरूप हो जाते हैं । वहां वो अद्वैतावस्था को प्राप्त कर लेता है।
मैं रूपी आत्मा का भान समाप्त हो जाता है । तो आत्मा सूक्ष्म शरीर और फिर कारण से मुक्ति के बाद भगवान के स्वरूप शक्ति का केवल अंश रह जाता है। 
जितने भी साधन सिद्ध संत होते हैं वो उनके स्वरूप शक्ति के अंश हो जाते है और नित्य सिद्ध तो सदा से मुक्त है सनातन मुक्त है वो जगत के कल्याण के लिए आते हैं भी जगत में तो उनका शरीर दिव्य हीं होता है । वो नित्य सिद्ध संत योगमाया शक्ति (दिव्य शक्ति द्वारा ) प्राकृत लेकिन दिव्य शरीर धारण करते हैं । प्राकृत लेकिन दिव्य कैसे , तो स्पष्ट है योग+माया, यानि योग दिव्य से बना माया यानि प्राकृत के रूप में दिखने बाला शरीर । 
पर  उनके सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की प्रकृति हमारे जैसा माया का बना सूक्ष्म शरीर , कारण शरीर  जैसा विल्कूल नहीं होता है । और ना इस शरीर का बंधन उनपे लागु होता है। वो जब चाहे अपने वाह्य स्वरूप को परिवर्तित कर लें , जिस को दिखाना चाहें दिखा दे या ना करें । हजारों में खड़े है नित्य सिद्ध ( जैसे श्री महाराज जी ) पर उन हजारों में से जिस पर कृपा कर दें उनको अपना वास्तविक राधा स्वरूप दिखा रहें हैं वांकी सब नहीं देख पा रहा है , वांकी सब अपने माइक इंद्रियों से वही देख रहा है सुन रहा है जो श्री महाराज जी दिखा रहें हैं ।
पर ठीक उसी जगह हजारों की भीड़ में एक को दिव्य स्वरूप दिखा रहें हैं , ठीक उसी तरह जैसे कूरूक्षेत्र में कडोरों बड़े बड़े महात्मा खड़े हैं भीष्म , युधिष्ठिर आदी पर दिव्य स्वरूप केवल अर्जूण , दूर बैठा संजय देख रहा है और सुन भी रहा है । तो सब उनका कमाल है ।
और तो और एक नित्य सिद्ध आतें जब धरा धाम पर तो जिस मां को चुनते हैं वो कोई साधारण मां नहीं होती , उनका भी शरीर दिव्य होता है योग माया से निर्मित ।
माईक शरीर नित्य सिद्ध को अपने कोख में धारण कर हीं नहीं सकता है , भष्म हो जाएगा माया का शरीर ।
वो योग माया से निर्मित महापुरुष मां के गर्भ में आने से पहले अपनी मां को संकेत दे देते हैं , अपने वास्तविक मूल स्वरूप का दर्शन करा के तब उनके गर्भ में प्रवेश करतें हैं । तब जाकर दिव्य मां उनको धारण करती है उस महाशक्ति को । इसलिए नित्य सिद्ध अवतारी कहलाते हैं । ए स्वेक्षाचारी होतें हैं अपनी इच्छा से आते हैं मृत्यू लोक में जनकल्याण के लिए और अपनी इच्छा से जातें हैं । यह स्वयं भगवान होतें हैं । 
और जीवात्मा अपनी इच्छा से किसी मां के गर्भ में प्रवेश नहीं करता है ।‌ वल्कि भगवान के जीवात्मा संबंधित संविधान के अनुसार हीं गर्भ धारण करता है । वो ऐसा नहीं की हम किसी धनवान या संत के कोख में आ जाएं , ऐसा नहीं होता है । जीवात्मा को मनुष्य का कोख मिलाना उसके कर्म धर्म से तय होता है । या कोई जीवात्मा  साधना के परिणामस्वरूप मृत्यू के समय बढ़िया मन:स्थिति में रहने में सक्षम हो जाता है तो उसका जन्म बढ़िया घर में भगवान दे देतें हैं उसको ।

तो समझ लिजिए की श्री महाराज जी की मां , हमारी भगवती मईया कौन हैं । योगमाया है स्वयं ।
और मां पद्मा भी योग माया हीं हैं । कोई साधन सिद्ध नहीं हैं वो भी ।
मां पद्धमा भी नित्य सिद्ध हीं है ।
तो इस प्रकार रहस्य है , है तो और भी बहुत गहरा पर सब खोलने कि इजाजत नहीं है मुझे इसलिए उतना हीं बतला रहां हुं जितने का इजाजत है ।

तो हम लोग चर्चा कर रहे थे जीवात्मा पर की यह मां के गर्भ में प्रवेश करती है और केवल प्रवेश हीं नहीं करती है वल्कि अपने साथ तमाम जन्मों के संस्कार , कर्म , बिचार , किए गए चिंतन और पिछले अकार्यान्वित संकल्प , अधुरे कार्य , अधुरा इच्छा को अपने सूक्ष्म शरीर में स्थित अंत:करण में लेकर प्रवेश करती है । फिर इसके बाद भ्रूण का विकाश होता है । प्रवेश में थोड़ा भी लेट होने से जीव अपंग हो जाता है । या मानसिक विकलांग हो जाता है ।
अब आप कहेंगे लेट क्यों  होता है,  तो होता है मां के गलत खान पान , रहन सहन , उठना‌ बैठना, गलत बिचारों का प्रवाह , गलत चिंतन  और वाह्य परिस्थितियों के कारण । इसिलिए कुछ अच्छे शास्त्र कहता है कि गर्भाधान संस्कार एक खास समय , नक्षत्र , काल और बढ़िया समय में होना चाहिए और गर्भाधान के बाद चार सप्ताह के बाद से हीं  रामायण , गीता या वास्तविक संत की वाणी ध्यान से सुनना चाहिए । भगवान , संत का पद् संकिर्तन करना चाहिए ।
लेकिन आज कौन करता है ऐसा । ज्यादा थोथा विज्ञानवादी लोग हैं आज ।
और आज की कुछ  मां अपने मौड कहती हैं , मोडर्न मां है ।
खैर जाने दिजिए मैं इस पोस्ट को गंदा नहीं करूंगा ।

तो जब जीवात्मा भ्रुण में प्रवेश करती है तो फिर प्रवेश के फिर  उसका मस्तिष्क सबसे पहले विकसित होने लगता है । ( आप भ्रूण के तसवीर को देखिय सबसे पहले केवल मस्तिष्क दिखेगा , बड़ा सा ) 
और उस समय से चिंतन , बिचारों का प्रवाह शुरू हो जाता है मन में । मन कभी अकर्मा नहीं हो सकता है ।
तो मन रूपी मशीन लगातार काम करना शुरू कर देती है स्थूल शरीर पाते ही । यही बिचारों का लगातार प्रवाह है मन । 
लंबा हो जाता है पोस्ट , इसलिए फिर अगले पोस्ट में। श्री राधे जय राधे , जय जय कृपालु जय भगवान ।
क्रमश:-

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