मानव जाती का सबसे बड़ा दुश्मन इगो है । घमंड , दंभ है । यह विनाश का कारण है ।।

हम सभी  मानव जाति में  एक मात्र अहंकार हीं एक ऐसा रोग है जो हमारे सभी दुर्गुणों की जननी है । 
दुर्गूणों यानी काम,  क्रोध , मद , मोह , लोभ , इर्ष्या , घृणा , राग और द्वेष , आदि नौ प्रकार के प्रमुख दुर्गूणों की जननी एक मात्र अहंकार हीं हैं । 
हम अगर अपने अंत:करण ( मन , बुद्धि , चित्त ) को टटोलें इमानदारी से एकांत में बैठ कर तो पता चलेगा की एक मात्र अहंकार ( घमंड) हीं हैं हमारा खुद का सबसे मुख्य दुश्मन ।
और यह अहंकार भौतिक या  ज्ञान या अज्ञानता से नहीं मिटती है। वल्कि और बढ़ जाती है । भौतिक ज्ञान , भौतिक सुख समृद्धी, भौतिक दु:ख , यहां तक कि आध्यात्मिक ज्ञान भी अहंकार को बढ़ाती हीं हैं । 

यह अहंकार किसी वास्तविक संतों द्वारा दिया गए तत्त्वज्ञान से भी नहीं मिटती , अहंकार इतनी सुक्षम होती की हमें पता हीं नहीं चलता कि यह अहंकार हममें प्रतिक्षण जीवित है और बढ़ रही है । 
यह अहंकार इतना सुक्षम वायरस है कि अरबों गुणा शक्तिशाली  टेलिस्कोप से भी नहीं दिखती खुद में , दुसरों में हम तो हरवक्त देख लेतें हैं लेकिन खुद में नहीं देख पातें हैं  ।

संतों के , भगवान के अवतारों और उनके द्वारा दिए तत्त्व ज्ञान से भी कभी नहीं मिटता । 
अगर हमें लगता हैं कि हम अहंकारी नहीं हैं अब तक आध्यात्मिक वास्तविक तत्त्वज्ञान रूपी दवा हम बहुत खाए हैं इसलिए हममें यह वायरस अब नहीं है । दरअसल वो हमारा भ्रम होता है ।
थियोरीटिकल ज्ञान , तत्त्वज्ञान आदि हीं इसका कारण है कि उल्टे हम भ्रम , विप्रलिप्सा , कर्णपाटव, और प्रमादी हो जाते हैं और यह चार और दोष हममें उल्टे आ जाता है सूक्ष्म तौर पर ।
एवं हम इसको पकड़ नहीं पाते और एक्टिंग में खुद को दीन हीन , अच्छा दिखाने का एक्टिंग कब करने लग जाते पता हीं नहीं चलता ।
यह उल्टे हमारे अवचेतन मन और उसके बाद अचेतन मन में घुस जाती है । अपना घर बना लेती है ।
और हम खुद को इस रोग से मुक्त होने के भ्रम का शिकार बने रहतें हैं हर हमेशा ।
एवं अनुकूल परिस्थितियों में यह प्रकट होती रहती है काम,  क्रोध , मद , मोह , लोभ , इर्ष्या , घृणा , राग और द्वेष के रूप में ।

इसका एक हीं परमानेंट दवा है वास्तविक संत द्वारा दिए गए तत्त्व ज्ञान के अनुसार प्रैक्टिकल साधना करना , यानी उनकी बतलाई साधना करना । 
और साधना भी यह अहंकार हीं नहीं करने देती क्योंकि कोई दुश्मन भला स्वयं अपने खिलाफ कोई अभियान स्वीकार करेगा ! प्रमाद से , तो कभी विप्रलिप्सा से तो कभी कर्णपाटव से तो कभी भ्रम से हमें भक्त बन जाने का झूठा एहसास दिलाती रहती है । 
जरा सोचिए हम अपने को बड़ा भक्त , ज्ञानी , ध्यानी समझने लगते हैं और दुसरे में हीं दोष ढुढ़ने लगते हैं । साधकों की कौन कहें उनके मूल प्रचारकों को भी नहीं छोड़ते , उनको भी हम तुक्ष समझने लगते हैं ।

इसलिए हमारे श्री कृपालु महाप्रभु जी ने रूपध्यान साधना पर केवल बल दिए हैं , गुरू का संग , उनके प्रबचन एवं उनके प्रचारकों को सिरियस होकर  बार-बार बार-बार सुनना , गुरू के द्वारा रचे पदों के अर्थों को पहले समझना और फिर किर्तन करना परमावश्यक है जो कि हरि गुरू में पहले विश्वास पैदा करती है । 

फिर श्रद्धा पैदा होती है इसके बाद उनसे प्रेम होने लगती है फिर तब दीनता आती है अंदर हीं अंदर , बाहर नहीं , अंदर अंदर अंदर । 

वो साधक अपनी दीनता का प्रदर्शन संसार में  नहीं करता , एक्टिंग नहीं करता समाज में या साधकों के बीच दीन बनने का , दीनता वास्तविक रूप से जैसे जैसे बढ़ती है एकांत में असली अश्रु आती है अविरल,  हरिगुरू का स्मरण मात्र से । 
यही वास्तविक दीनता सबसे पहले हर रोग के जड़ अहंकार को पहले चेतन मन से मिटाती है , फिर अवचेतन मन से मिटाती है , बाद में सूक्षम मन से, सूक्षम शरीर के अचेतन मन से मिटाती है ।
इसका पहचान है जब कोई हमको गाली देता है, यहां तक की हमारा हमेशा बुराई करता है , सोचता है तब भी वो बुरा नहीं लगता , जबकि उसमें हमारे इष्ट और गुरू की उपस्थिति महसूस होती है । 
काम,  क्रोध , मद , मोह , लोभ , इर्ष्या , घृणा , राग और द्वेष रूपी दोष मिट जाती है , अहंकार अंदर से समाप्त हो जाती है । 
तब होती है भक्ति की शुरूआत यह #पहली कक्षा  है अभी । 
हरि गुरू का मनन , चिंतन , स्मरण , रूध्यान बनने लगता है । इसमें मन रमने लगता है अब । 
फिर #दुसरी कक्षा का शुरूआत होती है जब भौतिक संसार से हम उदासीन होने लग जातें हैं वास्तव में । ये लोकरंजन आदि की बीमारी समाप्त हो जाती है पूर्णत: ।

तब #तीसरी कक्षा कि शुरूआत होती है, हम निष्काम भक्ति में उतरने लगते हैं यानि एक हीं कामना बनती है हमेशा अपने इष्ट और गुरू को देखने , सुनने , सुघंने , छुने , आलिंगन करने  लिए व्याकुलता बढ़ती जाती है । 

इसके बाद #चौथी कक्षा में  प्रवेश पातें हैं हम । यहां परम व्याकूलता का प्रादुर्भाव शुरू होता है जब प्राण, ज़िन्दगी और मृत्यु में बाजी लग जाती है एकांत साधना‌ में ।

ऐसे में साधक अब इस भौतिक संसार में लोगों से अपना प्रेम जो वास्तविक प्रेम हरि गुरू से वेइंतहा पर पहुंच जाती है , छुपाने लगतें हैं ।
और अब साधक  एक्टिंग में अब अहंकार , राग द्वेष आदि भौतिक संसार में करता है अपना प्रेम छुपाने के लिए । जिसको उल्टा व्यवहार कहतें हैं । 

फिर साधक #पांचवी कक्षा में प्रवेश करता है और इसी कक्षा में आकर साधक पूर्ण निष्काम, एवं पूर्ण शरणागत हो जातें अपने गुरू के प्रति  । अब गोपी भाव प्रेम धीरे धीरे गुरू देने लग जातें हैं । 

और पांचवीं कक्षा से निकल कर साधक सिद्धा भक्ति में प्रवेश करता है जो #छठवीं कक्षा होती है ।
और यहां आकर साधक अपने इष्ट और गुरू के सुख को अपना सुख मानता हैं , साधक को भाव देह मिल जाता है जो दिव्य देह कहलाता है । अष्ट सात्त्विक भाव का उदय होता है । माया से छुटकारा मिल जाता है और साधक भक्त बन जाता है , गुरू कृपा द्वारा । अष्ट सिद्धि , नवों निधि की तरफ देखता  भी नहीं साधक , जीव को भुक्ति और मुक्ति दोनों से छुटकारा मिल जाता है ।- श्री राधे । 
 यह मेरे अंतर्मन द्वारा लिया गया गुरू देव का और पूज्यनियां मां के प्रबचन के आधार पर समझा गया अर्थ   है एवं कुछ अंश अपना अनुभव है  ।। - संजीव

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