मानव गुढ़ रहस्य भाग :- 5

गुढ़ रहस्य भाग :- 5 
हम लोग अंत:करण चतुष्ट्य के एक एलिमेंट मन की बात कर रहे थे पिछले भाग 4 में ,
अब आगे बढ़ते हैं और मन को थोड़ा और समझते हैं और साथ-साथ दुसरा एलिमेंट बुद्धि को भी समझेंगे इसमें ।
क्योंकि यह मन बहुत बलवान है , यही हमारा उत्थान करा सकता है या पतन करा सकता है ।

मनएव मनुष्यानां कारणं मौक्षबंधय ।।

इसको जानने के बाद हीं इसको दोस्त बना सकते हैं ।
हमलोग जो यह समझते हैं कि महामूर्ख , भोला , अनपढ़ लोग भगवान को प्राप्त कर लेता है , बहुत कहानी है ऐसे भोले लोगों की जो भगवान को पा लिया ,  पर  सच्चाई में ऐसा विल्कूल नही हैं । यह भी साबित है । 
अब लोग कहते हैं कि गोपियां बहुत अनपढ़ थी या तुलसी सूर , मीरा , रसखान , कबीर आदि अनपढ़ थे तो ऐसा विल्कूल नहीं था ।
दरअसल ए लोग पीछले जन्म में बहुत बड़े बड़े ऋषि मुनी थे , ज्ञानी थे फिर भक्ती किए ( तत्त्वज्ञान की पराकाष्ठा ) थे , जैसे गोपियां दण्डकारण्य की ऋषि‌ मुनि आदी थी परम विदुषी , उसी प्रकार कोई गांव के ठेठ गंवार , भोला को भगवद्प्राप्ति झट हो गया तो उसके पीछले जन्मों में साधना पुरी हो चुकी थी , अंत:करण शुद्ध हो चुका था इसलिए इस जन्म में कुछ जानना और पढ़ना या साधना करना‌ शेष नहीं रह गया था । गुरू तत्वज्ञान बताते हैं इसिलिए और साधना रूपी रास्ता बताते हैं , यही उनकी कृपा है , पर वो किसी को खिंच कर उठा कर सीधे भगवान से मिलाते नहीं है , या सीधा गोलोक पहुंचा नहीं देते दया करके ऐसी कृपा नहीं होती नहीं तो सब को मिल जाता  ।
और शरणागति तो अंतिम घटना है । सीधे वहीं शरणागत वास्तव में हो जाता है जो सब पीछले जन्मों में और वांकी इस जन्म में सब करके शरणागत हो जाता है ।
शरणागत तो होते ही उसी क्षण सब पंचकोष भष्म और भगवद् प्राप्ती , तो केवल तन से और मुख से बोल देने से या महसूस करने से भावनात्मक स्तर पर वास्तविक शरणागति नहीं है । शरणागति का भ्रम है केवल , पर शरणागति कोसों दुर है । बड़ा से बड़ा पंडित है , प्रवचन कर्ता है पर असली पुर्णशरणागति  हैं या नहीं , दुसरा नहीं बता सकता , इसलिए वो भी साधक हीं है ऐसा हम मान लेतें हैं  , आगे पीछे जरूर है, उच्च कोटी का हैं सब आदरणीय हैं , बंदनीय है , हम उनका एहसानमंद है , ए हमारे हितैषी हैं वो हमारे सहायक है , गाइड हैं , प्रेरक हैं , आगे आगे वो चल रहें हैं हम उनके पीछे पीछे हैं  , हम उनके अनुगामी है ,  पर पुर्ण शरणागत कौन है यह जानना कठीन है  ,  क्योंकि शरणागति के घटना के तत्क्षण में  भगवद् प्राप्ति हैं । इधर बल्व का स्वीच दबा उधर प्रकाश हूआ , माया समाप्त। 
इसलिए यह बिना तत्वज्ञान के असंभव है साधना ठीक ठीक और फिर शरणागति तो बहुत दुर की बात है मुझ जैसे निम्न कैटेगरी वाले के लिए ।

अंत:करण शुद्ध करना हमारा ड्यूटि है । श्री महाराज जी नहीं करेंगे शुद्ध । वो शुद्ध करने का सामान दे दिए हैं और हम सामान लेकर बैठे रहे तो अनंत जन्म बैठे रहेंगे और हार कर गुरू को दोष देने लग जाएगे ।
 तो  इसके लिए उनके द्वारा  रूपध्यान बतलाया गया पर रूपध्यान सही से हो , सही बने , भाव शरीर ठीक से बने और हम जल्दी जल्दी आगे बढ़े इसके लिए ज्ञान तत्वज्ञान जरूरी है , 
नहीं तो बहु जन्म यदि करें श्रवण किर्तन 
           तबहुं नहीं पाए श्रीकृष्ण पदे प्रेम धन बाली बात ही होगी । 
श्री कृष्ण को पाना तो बहुत दुर की बात है हम संसार में भी अपने मन को शांत नहीं कर पाएंगे , और जब तक मन अशांत रहेगा तब तक कुछ नहीं होगा । रूपध्यान साधना की कौन कहे । हम सब मन के रोग से ग्रसित है अशांत है । और साधना असंभव है , साधना में मन हीं नहीं लगेगा । तो मन बुद्धि चित और अहंकार को जानना होगा थोडा़ । बहुत नहीं थोड़ा की यह क्या है और कैसे काम करता है और कैसे हमको प्रभावित करता है , और हम कैसे इसको दोस्त बना कर इसको प्रभावित करें ताकी यह हमारी साधना में हमारी मदद करें ।

तो मन बिचारों का प्रवाह है यह बिचार कहां से आते हैं कैसे आतें हैं । 
श्री महराज जी ने कहा है कि हम काम क्रोध आदि जैसे उत्पन्न हो उसको दबा दें । दरअसल उनके कहने का मतलव है कि हम मन के रूख को मोड़ दे जब कोई ऐसी निगेटिव भावना आए मन में तो ।
हम काम क्रोध मद लोभ मोह के भाव को मोड़ कर भगवान के तरफ कर दें , क्रोध किसी पर हो संसार में तो  तत्काल इस भाव का रूख मोड़ कर  खुद पर क्रोध  करें मन में कि अभी तक कुछ भी साधना सही सही नहीं किया ,‌धिक्कार है ।
कारण मन बहुत ताकतवर है इसमें किसी भी बात को दबाएगे तो यह भावना दब जाएगी अभी , पर यह आगे बाह्य अनुकूल  परिस्थिति पाकर और  विकराल रूप ले लेगी । , इनर्जी मरती नहीं है , सदा के लिए दबती नहीं है।  चाहे वो निगेटिव हो या पौजीटीभ ।

इसलिए श्री महाराज जी के दबाने संबंधी बात का मतलव है इसके रूख को मोड़ना । कट विडियो ना देखिए , आगे का डिटेल्स में प्रबचन नहीं है  उसमें , उस विडियो में इतना सा हिस्सा काट कर डाल दिया गया है जिसमें श्री महाराज जी को कहते सुनेंगे की क्रोध को दबा दो, तो कंकर की तरह मुख से निकाल कर फेंक दो, तो सारी के छोड़ में पकड़े आग को वही बुझा दो । कैसे करें यह आगे है , पर काट दिया गया है विडियो को आगे और पीछे से
तो लोग अर्थ का अनर्थ समझ रहें हैं नए लोग ।‌
नुकसान हो रहा है ।
तो मन को ठीक से समझना होगा , इसके फंक्सन को ठीक से समझना होगा । बिना‌ जाने साधना नहीं होगी ठीक से ।
क्योंकि हमारी बुद्धि में हीं गरबड़ी है ।
मन को ठीक करने के लिए सही सही  बुद्धि की जरूरत है ।‌ बुद्धी को ठिक करने के लिए ज्ञान और तत्वज्ञान की जरूरत है । 
बुद्धि अंत:करण के महामशीन का दुसरा यंत्र है , यह मन के सिक्के का दुसरा पहलु है । ( आगे पुरा डाईग्राम के हेल्प से यह समझेंगे की अंत:करन शरीर के किस भाग में होता है )  मन कहां होता है बुद्धि और चित्त कहां होता है , आपस में यह चारों साधन कैसे कौरेसपोंडेंस करते हैं । कैसे यह बिचार भेजते हैं मन को , तो यह जान पाएंगें की मन के रूख को कैसे मोड़ें ताकी ठीक से साधना हो ,रूपध्यान बने , भाव शरीर बने और जल्दी जल्दी तरक्की का अनुभव साक्षात होने लगे ।
बुद्धि में दो भाग हैं कुमति ( दुर्बुद्धि )और सुमति ( सुबूद्धि ), 
धर्म अधर्म , ज्ञान भक्ति , वैराग्य का ज्ञान ( जानकारी ) होने से नही होगा दुर्योधन के जैसा वल्कि उसका उपयोग यानि व्यवहार में लाने की कला भी जानना होगा ।
नहीं तो मन में विचार उत्पन्न हुआ और बुद्धि  कुमति के‌ बश में आकर तमोगुण या रजोगुण के तत्काल उपस्थिति के  कारण गलत फैसला दे दिया मन को की इसको करो और मन संकल्प लें लिया और फिर कर्म इंद्रियों को आदेश झट दे दिया कि यह काम कर लो । और फिर हम गलत काम कर बैठते हैं अपने संसार के काम में भी और फिर पछताते हैं । तब बहुत देर हो जाता है , इस प्रकार हम कही सफल नही‌ होतें हैं । बड़े बड़े संसारिक विद्वान झटका खा जातें हैं ,‌ जैसे बक्सर का‌  DM आत्म हत्या कर लिया । साधारण मनुष्य की बात हीं छोड़िए ।
साधक है,  आत्म हत्या कर लिया । क्योंकि गहरा तत्वज्ञान नहीं मालुम है ना उसका उपयोग मालुम है। व्यवहारिक समझ नहीं है । 

तो थोड़ा समझना होगा । यह स्थूल  शरीर अन्नमय कोश का बना है । अन्न से बनता है । इसलिए कहा गया है हम जैसा अन्न खाएगें वैसा मन बनेगा ।
अन्नमय कोश भोजन से रस लेकर शरीर बनाता है , इसका कोशीका , खुन , मज्जा , अस्थी सब अन्न से बनता है और यही मन पर प्रभाव डालता है । तामसिक भोजन मन को तामसिक बिचारी बनता है जो तामसिक बिचार को अंत:करण के चित्त से निकालता है , उपर लाता है कुसंस्कार को और नया बिचार लिखा जाता है चित् में नया कुसंस्कार बन जाता है  । और फिर तामसिक मनोवृत्ति फिर तामसिक वृत्ति को जन्म देता है 
  ( आगे समझेंगे चित को , बहुत इंटरेस्टींग और जरूरी है ) 

 मन का हैडक्वाटर ध्यान चक्र में स्थित है मनोमय कोष में । इस मनोमए कोष में छ:चीज होता है , एक मन और  मन के साथ पांच कर्म इंद्रिय के संचालन का भार भी है । पांच कर्म इंद्रिय यानी , हाथ , पैड़ ,  जननेंद्र और गुदा  और त्वचा। 
तो मन में सभी प्रकार के बिचार उठते रहते हैं पर फैसला मन का दुसरा पहलु बुद्धि देता है , तब जाकर मन संकल्प करता है कर्म का , फिर मन उस फैसले को पाकर कर्म इंद्रिए को आदेश देता है फिर कर्म होता है । 
अब कर्म का तीन स्वरूप है , पहला मनसा कर्म , यह कर्म दृष्यमान नही होता पर मन में हो जाता है , मन ही मन हम किसी के लिए दुआ कर रहें हैं तो किसी के लिए मन हीं मन गाली बक रहें हैं , बोला नहीं मुख से पर गाली दे दिया और नोट हो गया चित् के फाइल में ।
अब दुसरा - बाचाकर्म , बुद्धि फैसला किया मन मुख को आदेश दिया इसको बोल कर गाली बको शब्द वाण चलाओ । बस गलता बातें कर दी हमने और यह भी नोट हो गया कुसंस्कार के रूप में और चित और गंदा हो गया ।
अब तीसरा कर्मणा कर्म,‌ यानि दृष्यमाण कर्म , तो मन में अच्छा या बुरा बिचार का प्रवाह शुरू हुआ और बुद्धि फैसला दे दिया फिर मन कर्म इंद्रियों को आदेश दे दिया । मारो किसी को तो सहायता कर दो किसी को,  और हम वो कर्म कर दिए , फिर वो भी नोट हो गया संस्कार या कुसंस्कार के रूप में ।
तो यह बुद्धि जो है उसका स्थान विज्ञानमय कोश में हैं और इसमें भी छ: चीज है जबकि होना चाहिए सात ,  तो इस विज्ञान मयकोष में बुद्धि है और पांच ज्ञान इंद्रिए है - आंख , कान , नाक, जीभ और त्वचा है इसका स्थान भी ध्यान चक्र के पास है ।

तो सातवां इसमें क्या मिसिंग है तो वो है विवेक , विवेक क्या है और कैसे प्राप्त होता है तो इस सौफ्ट वेयर पर चर्चा अगले पोस्ट में होगी । श्री राधे - कर्मश:-

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