मानव गुढ़ रहस्य भाग -9 ( बहुत गुढ़ और महत्त्वपूर्ण )
गुढ़ रहस्य भाग -9 ( बहुत गुढ़ और महत्त्वपूर्ण )
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ब्रह्म का वियोगी जीव गोविंद राधे ।
सांँचो योग सोई जोई योग करा दे।।( रा.गो. गीत २४२४)
योग वही योग है जो गोविंद राधे ।
जीव ब्रह्म का संयोग करा दे ।। ( रा. गो. गीत २४२३)
योग की परिभाषा गोविंद राधे ।
जामें जीव ब्रह्म संयोग हो बता दें ।। (रा.गो.गी.१११०८)
हरि गुरू में हो प्यार गोविंद राधे ,
जग में हो व्यवहार योग बता दें ।। (रा.गो.गी. २४२६)
तो हरि और गुरू में जीवात्मा के मन का योग हीं भक्तियोग है ।। तो रूपध्यान साधना से हीं जल्दी जल्दी अंत:करण की शुद्धि होती है और शुद्धि के पश्चात् गुरू इसको दिव्य बना कर प्रेम दान देतें हैं जिससे जीव आत्मा सदा के लिए आनंदमय हो जाता है ।
अब आगे बढ़ने से पहले थोड़ा हम प्राणमय कोश को समझते हैं अन्नमय , मनोमय , विज्ञानमयकोष को पिछले भाग में जान चुकें हैं ।
प्राणमय कोष में पंच प्राण यानि - प्राण, अपान, समान,उदान, तथा व्यान यह पुरे फिजिकल शरीर में व्याप्त होता है , और पांच सूक्ष्म प्राण -कृकल, देवदत्त, नाग, धनंजय एवं कूर्म हैं । इन प्राणों का उदगम स्वाधिष्ठान चक्र ( पेडू स्थान) से है और पुरे शरीर में 72000 नाड़ियों द्वारा यह प्रवाहित होने से जीव चेतनमान रहता है । इसलिए प्राण को स्व भी कहतें हैं या मेढ्र भी कहते हैं ।
इस प्राण को बल अन्नमयकोष से मिलता है और तेज आत्मा से मिलता है । प्राणी जो अन्न ग्रहण करता है उससे अन्नमयकोष बनता है ।
इस प्राण का कोई आकार नहीं हैं , जो शरीर धारण करता है , वैसा आकार यह ले लेता है ।
नेतृत्व ( Leadership) , ईमानदारी, अनुशासन, उत्साह, प्रभावी क्षमता , आकर्षण आदि प्राणमय स्वास्थ की पहचान है । इसके मलिन होने से तेज घट जाता है , कारण यह आत्मा से तेज पाने में आयोग्य होने लगता है, क्योंकि इसी प्राणों के कारण जीवात्मा को भूख ,नींद व जल की प्यास होती है । योगी इसी को साध कर इन पर बिजय हासिल करते हैं । इसी प्राणों के अनियमितता के कारण साधारण जन के व्यक्तित्व में विकार आ जाता है । फिजिकल शरीर भी रोगी हो जाता है । और मानसिक भी ।
अब मृत्यु के समय सभी प्राण शरीर छोड़ देता है , केवल धनंजय प्राण हीं शेष रह जाता है मृत शरीर में जो अग्नी संस्कार के बाद हीं जाता है अपने गंतव्य पर दुसरा शरीर धारण करने । यह तेरहवीं कर्म के पश्चात हीं जाता है।
( जानकारी के लिए - इसी प्राण के माध्यम से कुछ सिद्ध तांत्रिक मृतात्मा को वश में कर लेता है जो महापाप है )
योगी योग द्वारा इड़ा पिंगला और 72000 नाड़ियों में संतुलन स्थापित करके श्वासों का प्रवाह सुषुम्ना नाड़ी में कर लेता है जिससे मानव मस्तिष्क के अद्भुत शक्ति का भरपुर उपयोग कर लेता है , ए लोग अपने मस्तिष्क के हाईपोकैंपस भाग जो दोनों कान के निचे है को उसकी हद् तक एक्टिभ कर लेता है , और अपने कलांँ का विकाश ( चेतन शक्ति का विकाश ) कर लेता है । और सिद्धि , विद्धि सबके ऊपर बिजय हासिल कर लेता है ।
ए हाईपोकैंपस को इतना शक्तिशाली बना देता है अपने मस्तिष्क के संजोजन से अद्भुत शक्ति हासिल कर लेता है । स्थूल शरीर को छोड़ कर कहीं भी जा आ सकता है माया जगत में विरजा नदी तक । किसी के मन के अंदर की सारा बात जान लेना , अपने और दूसरों के कई जन्मों के बात को जान लेना आदि ।
अब पृथ्वी के बारे में जानते हैं जिसपर हम स्थूल शरीर धारण किए हैं ।
आपको याद रहे कि मनुष्य शरीर षट्तत्वों के योग से बना है । गीता में भगवान इस संबंध में अर्जुन से कहते हैं -
भूमिरापोऽनलो वायु खं मनो बुद्धिरेव च
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिर्ष्टधा ।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।। ( गीता .७.४.५)
भावार्थ - यानि पृथ्वी, जल, अग्नी, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, और अहंकार आदि तत्त्वों में मेरी प्रकृति ( मम् माया) बिभाजित है । यह आठ प्रकार के भेदों वाली अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहों ! जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है ऐसी मेरी जीवरूपा परा (सभी प्रकार के चेतन जीव ) प्रकृति है ।
अब - श्री महाराज जी ने भी कहें हैं -
नौ तत्व हैं पुरूष गोविंद राधे ।
प्रकृति , महान, अहंकार, बता दें ।।
नौ तत्व में हैं पाँच गोविंद राधे ।
आकाश, वायु, तेज, जल, हूं बता दें ।। ( रा.गो.गी.२५०३,०४)
यानि पुन: 'राधा गोविंद गीत ' के अनुसार भी यह शरीर नौ तत्त्वों के संयोग से हीं पूर्णता को प्राप्त हुआ है ।
इस प्रकार मानव शरीर नौ शक्तियों के योग से बना है अर्थात् यहां भी योग की हीं विशेषता दिखाई देती है ।
अब याद किजिए श्री महाराज जी का दिया तत्वज्ञान कि योगी , ज्ञानी अपने बल पर अन्नमयकोष, मनोमयकोष, विज्ञानमय , प्राणमय कोश , साथ साथ जीस भूमंडल पर शरीर धारण किया है उसके भू तत्व , जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार ( अहंकार मतलव अस्मिता , ये अभिमान , घमंड नहीं ) तक के तत्त्व लांघ जाते हैं और यहीं पर उनको अपने आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है। जिसकारण अद्भुत आनंद मिलने लगता है उनको लेकिन भ्रम से इसी आनंद को परमात्मा का आनंद समझ लेतें है और आगे नहीं बढ़ पातें हैं । यह आनंद भी घटने बाला और कम होने बाला नहीं होता और यह आनंद भी दिव्य होता है और बहुत बड़ा आनंद होता है , स्वर्गादि के सुख से भी की कड़ोर गुणा ज्यादा ।
हमारे संसार में ९९.९% ज्ञानि और योगी ध्यानियों का यही हाल है ।
पर ये लोग आगे का वांकी दो मुख्य तत्व जो है माया का उसको लांघ नहीं पातें हैं । कारण यह दोनों तत्व केवल सगुन साकार भगवान श्री कृष्ण की भक्ति से हीं संभव है ।
यह दोनों तत्व है पहला - महान , दूसरा और अंतिम माया का बोर्डर प्रकृति यह दोनों लांघना असंभव है साधना से । यह तो सर्वोत्तम गुरू , प्रैक्टिल मैन , असली अवतारी महापुरुष के द्वारा दिए दिव्यातिदिव्य शक्ति से हीं संभव है । यह कार्य खुद भगवान भी नहीं करते हैं ।
हां भगवान श्री कृष्ण प्राकृत शरीर में थे तो अर्जुन आदि को दिव्य शक्ति देकर अपने स्वरूप का साक्षात्कार करा दिय , इसलिए उनको भी जगद्गुरू कहते हैं इस संसार में । तो यह सिद्ध हो गया की गुरू हीं वो परम शक्ति है जो जीव का परम उद्धार कर सकतें हैं , अपने बल पर कोई बड़ा से बड़ा योगी , ध्यानि , ज्ञानी या इनका पिता भी माया के दो तत्व को लांघ नहीं सकता हैं ।
तो जाहिर हुआ की इतना बड़ा ज्ञानी , ध्यानि या योग का क्या फायदा, जब एक मात्र अपने गुरू के बतलाए साधना भक्ति करके जीव सब तत्त्वों से उतिर्ण हो सकता है ।
अब इससे आगे के पोस्ट में समझेंगे की गुरू और भगवान अपनी असिमित, अनलिमिटेड पावर , शक्तियों का किस प्रकार संजोजित करके , संकुचित करके इस माया लोक में अवतार लेते हैं । नहीं तो असिमित शक्तियों के साथ आ जाएगें धरा धाम पर तो ना यह धरा धाम बचेगा , ना यह सूर्य मंडल और ना यह उनका अपना ब्रह्मांड , विस्फोट हो जाएगा आते हीं उनको और गलैक्सी नहीं बचेगा ।
तो आगे जानेंगे कि यह पृथ्वी में कितनी शक्ति है जिससे यह उनके अवतार और उनके वास्तविक संत के अवतार के तेज को सहती है । धारण करती है उनको यहां।
यह रहष्य आगे खोलेंगे । देखिय मैं बहुत संक्षिप्त रूप से बता रहा हुं जितना जरूरी है उतना , नहीं तो यह बहुत गहरा है और इसको संक्षेप में बता पाना भी कठिन है ।
श्री राधे ।
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