पंचममूलजगद्गुरूत्तमई श्री कृपालु जी महाराज( १९२२-२०१३)

पंचममूलजगद्गुरूत्तमई श्री कृपालु जी महाराज( १९२२-२०१३)
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जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज का जन्म 1922 में शरद पूर्णिमा की शुभ रात्रि में भारत के उत्तर प्रदेश प्रांत के प्रतापगढ़ जिले के मनगढ़ ग्राम में सर्वोच्च ब्राम्हण कुल में हुआ ।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ कुंडा में संपन्न हुई पश्चात् इन्होंने इंदौर,  चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण,  साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया ।
16 वर्ष की अत्यल्पायु में चित्रकूट में शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ वनों में एवं वृंदावन में वंशीवट के निकट जंगलों में वास किया ।
श्री कृष्ण प्रेम में विभोर भावस्थ अवस्था में जो भी इनको देखता है वह आश्चर्यचकित होकर यही कहता कि ये तो प्रेम के साकार स्वरूप है , भक्तियोगरसावतार हैं

उस समय कोई यह अनुमान नहीं लगा सका कि ज्ञान का आगाजध-अपरिमेय समुद्र भी इनके अंदर छिपा हुआ है क्योंकि प्रेम की ऐसी  विचित्र अवस्था थी कि शरीर की कोई सुधि बुधि नहीं थी । घंटों-घंटो मूर्च्छित करते । कभी उन्मुक्त अट्टहास  करते तो कभी भयंकर रूदन । खाना पीना तो जैसे भूल ही गए थे । नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित होती रहती थी,  कभी किसी कटीली झाड़ी में बस्त्र उलझ जाते तो कभी किसी पत्थर से टकरा कर गिर पड़ते ।  किंतु धीरे-धीरे अपने इस दिव्य प्रेम का गोपन करके श्री कृष्ण भक्ति का प्रचार करने लगे । अब प्रेम के साथ-साथ ज्ञान का प्रकटीकरण भी होने लगा था

1955 में इन्होंने चित्रकूट में विराट दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया था,  जिसमें काशी आदि स्थानों के अनेक विद्वान एवं समस्त जगद्गुरु भी सम्मिलित हुए।
1956 में ऐसा ही एक विराट संत सम्मेलन इन्होंने कानपुर में आयोजित किया था । इनके समस्त वेद शास्त्रों के अद्वितीय असाधारण ज्ञान से वहां उपस्थित काशी के मूर्धन्य विद्वान स्तंभित रह गए । उस समय इनके संबंध में काशी के प्रख्यात पंडित शास्त्रार्थ महाविद्यालय (काशी) के संस्थापक,  शास्त्रार्थ महारथी,  भारत के सर्वमान्य एवं अग्रगण्य दार्शनिक,  काशी विद्वत्परिषत् के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल  ' षट्शास्त्री'  ने सार्वजनिक रूप से जो घोषणा की थी उसका  अंश इस प्रकार है- ( कानपुर 19-10-1956)

"काशी के पंडित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान नहीं स्वीकार करते । हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारतें हैं । हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं । हम आज इस मंच से इस विशाल विद्वन्मंडल  को यह बताना चाहते हैं कि हमने संताग्रगण्य श्री कृपालु जी महाराज एवं उनकी भगवद्दत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहते हैं कि आप भी इनको पहचाने और इनसे लाभ उठायें ।

आप लोगों के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्मयमय को  उपस्थित करने वाले एक संत आपके बीच में आय हैं । काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है । हम उस काशी के निवासी यहां बैठे हुए हैं । कल श्री कृपालु जी के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नतमस्तक हो गए । हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालु जी महाराज को समझें और इनके संपर्क में आकर इनके सरल , सरस अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसी क्रियात्मक रूप से उतारकर अपना कल्याण करें ।"

इसके पश्चात इनको काशी विद्वत्परिषद (भारत के लगभग 500 से शीर्षस्थ,  शास्त्रज्ञ,  वेदज्ञ के विद्वानों की तत्कालीन सभा ) ने काशी आने का निमंत्रण दिया ।

केवल 34 वर्षीय श्री महाराज जी को वयोवृद्ध विद्वानों के मध्य देखकर कुछ भावुक भक्त कहने लगे

उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग ।

श्री कृपालु जी के कठिन संस्कृत में दिए गए विलक्षण प्रवचन को सुनकर एवं भक्ति रस से ओतप्रोत अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर सभी विद्वान मंत्रमुग्ध हो गए । उन्होंने स्वीकार किया कि ये केवल वेदों, शास्त्रों , पुराणों, के मर्मज्ञ ही नहीं है अपितु प्रेम के साकार स्वरूप भी हैं ।

तब सब ने एकमत होकर इनको 14 जनवरी 1957 को "जगद्गुरूत्तम" की उपाधि से विभूषित किया । उन्होंने घोषित किया कि श्री कृपालु जी को जगद्गुरुत्तम की पदवी से सुशोभित किया जा रहा है ।
...धन्य मान्य जगद्गुरुत्तमपदै:सोऽयं समभ्यर्च्यते।

इतना ही नहीं उन विद्वानों ने उनके अनुभवात्म दिव्य ज्ञान व भक्तिरस से ओतप्रोत  व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अन्य बहुत सी उपाधियां भी प्रदान की-

श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावरीण
वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिलदर्शनसमन्वाचार्य,
सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य,
भक्तियोगरसावतार भगवदनन्तश्रीविभूषित
जगद्गुरू १००८
स्वामि श्री कृपालु जी महाराज ।
(गुरू सेवा पेंज १०४-१०५-१०६)

ओरिजनल,  सभी मूल जगद्गुरू ( अभी तक पांच हुए हैं केवल ) एवं ओरिजिनल महापुरूष जैसे चैतन्य महाप्रभु, श्री हरिदास। षढ़गोस्वामीं आदी और कुछ वास्तविक संत, भगवान व उनके परिकर के हीं अवतार होतें हैं, उन्हें साधारण मनुष्य मानना, समझना घोर अज्ञानता है।

आचार्यामां विजनीयान्नावमन्येत कर्हिचित्।
नं मर्त्याबुद्धयाऽसूयेत सर्वदेवमयो गुरू:
:- वेद मंत्र
भावार्थ- गुरू को मेरे बरावर मत मानों, गुरू को मुझे हीं मानों। यानि गुरू जो तुम्हारा है वो भगवान्‌ है ऐसा मानो। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोष दृष्टी न करो। क्योंकि गुरू सर्वदेवमयो होता है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

भावार्थ - गुरू हीं ब्रह्मा, विष्णु और शंकर तीनों है। वल्कि उनसे भी बढ़कर है। वे प्रथ्वी पर साक्षात भगवान है।

यस्य साक्षात् भगवति ज्ञान दीपप्रदे गुरौ।
मर्त्या सद्धी श्रुतं तस्य सर्वं कुंजरशौचवत्।
एस वै भगवान साक्षात् प्रधान पुरूषेशवर:
योगेश्वरैर्विमृगयांघ्रिर्लोकोऽयं मन्यते नरम्।

भावार्थ - ह्रदय में ज्ञान के दीपक जलाने वाले श्री गुरूदेव साक्षात भगवान हीं है। जो दुर्बुद्धि पुरूष, उन्हें मनुष्य मानतें समझता है उसका समस्त शास्त्र श्रवण हाथी के स्नान के सामान है।

प्रत्येक मूल जगद्गुरू ( गद्दीधारी नहीं ) जगद् गुरू भगवान के अवतार हैं। जैसे शंकराचार्य भगवान शीव के अवतार थे, उसी प्रकार माध्वाचार्य बजरंगवली के अवतार थे, रामानुजाचार्य उनके शंख के अवतार थे। निम्बार्काचार्य चक्र के अवतार थे ,  वल्लभाचार्य भी बलराम के अवतार थे। उसी प्रकार हमारे गुरूवर पंचम मूल जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज श्री राधाकृष्ण के अवतार हैं । श्री हरिदास जी ललिता सखी  के अवतार थे और हित हरिवंश भगवान के वंशी के अवतार थे ।

"मत्प्रेयान्  राधिकाप्रेयान् मद्धवो राधिकाधव: |
  तस्मादपि  गरियान्यो   कृपालुर्मे  जगद् गुरु : ||
  गुरुं भजति श्री कृष्ण: श्री कृष्णं भजते  गुरु: |
  सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि  कृपालुर्मे    गुरुर्महान् ||

भावार्थ : - श्री राधिका के प्रियतम ही मेरे प्रियतम हैं |
श्री राधिका जी के पति ही मेरे पति हैं |  हमारे जगद् गुरु श्री कृपालु जी उनसे बड़े है | गुरु श्रीकृष्ण को भजते हैं और श्रीकृष्ण श्री गुरुदेव को भजते है, सिद्धान्त की दृष्टि से दोनो मे कोई भेद नही है , तथापि मेरे गुरु श्री कृपालु जी महान हैं |

" प्रथम नमन  गुरुवर पुनि  गिरिधर,
  जोइ श्री गुरुवर सोइ श्री  गिरिधर |
  हरि गुरु  कृपा सदा  सब  ही   पर ,
  अंत:करण     पात्र    पावन   कर |
  करहु   'कृपालु ' कृपा  मोहूँ    पर ,
  तन मन धन  अर्पन   चरनन    पर |
  प्रथम नमन ..............................

  - prem ras madhuri bhag -१


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