गुरु महिमा भाग-१

गुरु महिमा भाग-१
हे जिज्ञासु-पिपासु जीवात्माओं ! स्वयं को पहचानो |
देखो ! गुरुवर तुमसे पुकार- पुकार कर कह रहे हैं :-
तू तो आत्मा है तेरा गोविन्द राधे |
सब कुछ है परमात्मा बता दे ||
क्षमा करें प्रभु ! हम स्वयं को कैसे पहचाने ? कैसे जाने ? हमारे सर्वस्व एकमात्र आप हैं , यह कैसे मानें ?
प्यारी जीवात्माओं ! तुम ठीक ही कहते हो | यह इतना सहज नहीं है | तभी तो वेद-शास्त्र ने मुझे अगम्य बताया है | ऋषि-मुनि तक मुझे अपने तप के बल पर नही जान सकते | मुझे जानने के लिए तुम्हें गुरु की शरणागति करनी पड़ेगी |
ईश्वरीय ज्ञान हित गोविन्द राधे |
मन बुद्धि को गुरु का शरण करादे ||
भगवन् | यह कार्य तो आप भी कर सकते हैं ?
मेरे प्यारे जीवों ! गुरु रुप में मैं ही तो यह सब कुछ तुम्हारे लिए करुँगा | कभी न भुलो ! गुरु मेरे ही अन्यतम रुप हैं -
गुरु हरि का ही रुप गोविंद राधे |
जानो और मानो और औरों को जना दे ||
एकमात्र 'गुरु' रुप में अवस्थित होकर ही मैं तुम्हारे माया रुपी अन्धकार को दूर कर निज ज्ञान रुपी प्रकाश तुममे भर सकता हूँ | क्या तुम मेरे 'गुरु' नाम का अर्थ जानते हो ?
भगवन् ! कृपाकर समझाइए न |
गु' का अर्थ माया तम गोविंद राधे |
रु' का अर्थ नाश करे सब को बता दे ||
जी, समझा - गु' शब्द का अर्थ माया रुपी अन्धकार , 'रु' शब्द का अर्थ नाश करना | अर्थात् जो माया रुपी अंधकार का नाश कर दे , वही गुरु है |
गुरु से ही हरिज्ञान गोविंद राधे |
गुरु बिनु क ख ग घ ज्ञान ना बता दे ||
देखो जीवात्माओं | तुम कैसे भाग्यशाली हो कि स्वयं मैने तुम पर अहैतु की कृपाकर तुम्हारा मिलन गुरु से करा दिया है | वास्तविक संत से किसी जीव का मिलन तो तभी हो सकता है , जब जीव का पुण्यपुंज भी हो और उस पर मेरी कृपा भी हो जाए |
प्रभु ! मैं समझा नही | जब पुण्य पुंज शर्त है , फिर आपकी अहैतुकी कृपा भी शर्त क्यों ?
मेरे प्यारों ! ऐसा इसलिए कि अनंतानंत जन्मों के अनंतानंत पापों का शमन जीव के निज पुण्य के वल पर संभव कहाँ ?
परिणाम , वे ८४ लाख योनियों में भटकने के लिए विवश है | जीव की यह नारकीय स्थिति मुझसे देखी नही जाती , अत: मै अवसर की तलाश में रहता हूँ और जैसे ही वह संसार के सुख की असारता को महसूस कर मुझे ह्रदय से याद करता है , मैं अपने अकारण करुण स्वभावनुसार द्रवीभूत हो उठता हूँ और उसे गुरु से मिलाकर अपनी बिगड़ी बनाने का सुयोग प्रदान करता हूँ |
जय हो प्रभु! जय हो !! आप अहैतुकी कृपालु जो ठहरे |
हे जीवात्माओं ! गाँठ बाँध लो -
सारा जग तनु हित गोविंद राधे |
जीव हित हरि गुरु दो हैं बता दे ||
याद रखो , तुम यानी आत्मा और तुम्हारा शरीर ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं | तुम्हारा शरीर संसार हित है , तुम नही | तुम तो मेरे अंश हो और मुझमें ही तुम्हारा कल्याण निहित है | मैं और मेरे ही अन्यतम रुप गुरु , ये दोनों ही मात्र इस जग में तुम्हारे कल्याणार्थ हैं |
जब मैं कृपा करता हूँ तो तुम्हे गुरु की प्राप्ति होती है , पुन: जब गुरु कृपा करते हैं , तो मेरी प्राप्ति होती है ,
किन्तु काम तो तुम्हारा मेरे गुरु स्वरुप से हीं बनने बाला है , मुझसे कहाँ ?
ऐसा क्यों प्रभु ? आप तो सर्व समर्थ कर्तुमकर्तुमन्याथाकर्तुम् हैं |
इसे ठीक से समझो | बस यहीं आकर मेरा विधान है -
गुरु प्रेम दान करे गोविंद राधे |
हरि प्रेम ना दे यह भेद बता दे ||
जानते हो क्यों ?
केवल निर्मल जन ही मुझे पा सकते हैं |
हाँ निर्मल जन ही मुझे पा सकते हैं !! इसे इस प्रकार समझो - देखो , माता - पिता दोनो के कारण तुम्हारा अस्तित्व है | किन्तु अति अबोध अवस्था में माता बार-बार पिता का परिचय दे उनसे तुम्हारा प्यार बढ़ाती है | माता यदि पिता का परिचय तुम्हे न दे तो तुम उन्हे कैसे पहचानोगे ?
ठीक उसी प्रकार गुरु रुपी माँ अगाध वत्सलता ह्रदय में धारण किए पिता परमात्मा से उसका परिचय कराना चाहते हैं , उसका मिलन वास्तविक पिता से कराना चाहते हैं |
हे जीवों ! विश्वास कर लो , गुरु रुप में मै ही सदा बाँहें पसारे तुम बिछड़े निज संतानो की बाट जोहा करता हूँ और तुम्हारे अनादिकाल के कल्मष धोकर अपने योग्य निर्मल बनाता हूँ , तुममें अपने प्रति निष्काम प्रेम भरता हूँ |

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