नवधाभक्ति

भक्ति अनन्त प्रकार से की जाती है , जिसकी रुचि , जिस प्रकार से हो जाय ! किंन्तु उन समस्त प्रकारों को नव भागों में विभक्त कर दिया है , जिसे नवधाभक्ति कहते हैं यथा :-
" श्रवणं कीर्तनं विष्णोरर्चनं पादसेवनम्
स्मरणं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् "
इन नव प्रकार की भक्ति की साधनाओं में सभी श्रेष्ठ एवं प्रयुक्त हैं किंन्तु सरलता के दृष्टकोण से शीघ्रातिशीघ्र सिद्ध होने वाली साधना , संकीर्तन ही है | कारण यह है कि इस कराल - कलिकाल में अन्यसाधनाओं द्वारा भगवद्धिषय में मन-बुद्धि का भाव देर में होता है | भागवत कहती है :-
" कृते यद्ध् यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:
द्वापरे परिचर्यायां कलौ संकीर्त्य केशवम् "
( भा. १२-३-५२)
इसी भाव को लेकर रामायण भी कहती है :-
कृत युग सब योगी विज्ञानी ,
करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी |
त्रेता विविध यज्ञ नर करहीं ,
प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहिं |
द्वापर करि रघुपति पद पूजा ,
नर भव तरहिं उपाय न दूजा |
कलियुग केवल हरि गुनगाहा ,
पावत नर पावत भव थाहा |
यद्यपि भगवन्नाम , गुण , लीलादिकों का उच्चस्वर से गान ही कीर्तन है , तथापि संकीर्तन में बहुत सी बातें अवश्यज्ञेय हैं |
प्रथम , दीनता अनिवार्य है |
दीनता :-
" तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि: "
अर्थात् तृण से बढ़ कर दीनभाव , वृक्ष से बढकर सहिष्णुभाव सब को सम्मान देने का भाव , स्वयं सम्मान न चाहने का भाव ही दीनता का स्वरुप है | क्योंकि इसी दीनता की आधार भित्ति पर ही साधना का महल खड़ा होता है |
अत: दीनता पर प्रमुखतया ध्यान देने की आवश्यकता है | क्योंकि जहां दीनता छिनी , तत्क्षण ही अहंकार आया , एवं जहां अहंकार आया , भक्ति की महल को गिरा कर ह्रदय में भगवान के स्थान पर अहंकार विराजमान हो गया |
अतएव दीनता छिन जाने का अभिप्राय है भगवान् से विमुख हो जाना |
अत: इस बात पर ध्यान दो , कि दीनता के आधार पर ही भक्ति का महल खड़ा होता हैं |
:- श्री महाराज जी


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