प्रेम की पराकाष्ठा - चकोर की कहानी के द्वारा मां ने समझाया था एक वार प्रवचन में :-


प्रेम की पराकाष्ठा - चकोर की कहानी के द्वारा मां ने समझाया था एक वार प्रवचन में :-
चकोर- चकोर एक बहुत प्यारा पक्षी है | यह पाकिस्तान का राष्ट्रिय पक्षी भी है |
कहा जाता है की चकोर चंद्रकिरणों को पीकर जीवित रहता है (शाङ्‌र्गघरपद्धति, १.२३)। इसीलिये इसे "चंद्रिकाजीवन' और "चंद्रिकापायी' भी कहते हैं। प्रवाद है कि वह चंद्रमा का एकांत प्रेमी है और रात भर उसी को एकटक देखा करता है। अँधेरी रातों में चद्रमा और उसकी किरणों के अभाव में वह अंगारों को चंद्रकिरण समझकर चुगता है। चंद्रमा के प्रति उसकी इस प्रसिद्ध मान्यता के आधार पर कवियों द्वारा प्राचीन काल से, अनन्य प्रेम और निष्ठा के उदाहरण स्वरूप चकोर संबंधी उक्तियाँ बराबर की गई हैं। इसका एक नाम विषदशर्नमृत्युक है जिसका आधार यह विश्वास है कि विषयुक्त खाद्य सामाग्री देखते ही उसकी आँखें लाल हो जाती है और वह मर जाता है। कहते हैं, भोजन की परीक्षा के लिये राजा लोग उसे पालते थे।
तो काम की विषय पर आते हैं | एक वार एक चकोर अपने प्रेमास्पद चन्द्रमा की तरफ अपलक दृष्टि से चांदनी रात में निहार रहा था |
एक टक ! इतने में एक आकाशिये उल्का पिण्ड चन्द्रमा की ओर से चकोर की तरफ बढ़ चला , चकोर तो ठहरा चन्द्रमा का अनन्य प्रेमी वो फुले नही समाया और भ्रम में पर गया , यह सोंचा की उसका प्रेमास्पद चन्द्रमा ही उसकी ओर उससे मिलने बड़ी वेतावी से आ रहा है | अत: प्रेम में विभोर हो वह भी उस उल्का पिण्ड को चन्द्रमा समझ कर उसकी ओर लपका , परन्तु उल्का पिण्ड की अत्यधिक आग की गर्मी से वह जल कर राख बन कर जगंल की एक पगडण्डी पर गिर चला |
इतने में नारद जी उस पगडण्डी से गुजर रहे थे | अव नारद जी तो खुद भक्ति की पराकाष्ठा हैं वे इस चन्द्रमा के अनन्य प्रेमी को कैसे न पहचानते | नारद जी ने सोंचा की क्युँ न सम्मान के साथ इसके अस्थी अवशेष को गंगा में विशर्जित कर इसको मुक्ति यानी मौक्ष प्रदान कर दिया जाय | अत: उन्होने चकोड़ के इस अस्थी अवशेष को अपने पावन हाथों में बड़ी कोमलता से उठाया और बढ़ चले गंगा की ओर , इतने में चकोर के अस्थी अवशेष से आवाज आई ' हे परम पुज्य नारद जी आपको मेरा प्रणाम , मैं समध गया की आप द्रवित हो कर करुणा वस हमे मौक्ष की ओर ले जा रहें हैं | मैं गद्गद हूँ अपने अस्थी को आपके पावन अँजुली में पाकर , परन्तु हे कृपा निधान मेरी एक विनती हैं आपसे , चुँकी मै मौक्ष नही चाहता इसलिये हे करुणा निधान आप मुझे डालना ही है तो कैलास पर्वत पर बैठे हुए भगवान शंकर की जटा पर मुझे डाल दिजिए |
नारद आश्चर्य में पर कर पुछा , हे प्रेम के पुजारी तुम भगवान शंकर के जटा पर अपने अस्थी अवशेष को क्युँ डलवाना चाहते हो , क्या तुम्हे उनसे प्रेम है ? चकोर ने रोते हुए कहा नही " मै भगवान शंकर की तो पुजा करता हूँ परन्तु प्रेम तो मैं चन्द्रमा से ही करता हूँ , भगवान शंकर के मस्तक पर मेरे प्रेमास्पद का निवास है अत: अगर आप दया करके मेरे अस्थी अवशेष को आप भगवान शंकर के जटा पर डाल देगें तो मैं निश्चित हीं अपने प्रेमास्पद को पाकर सदा के लिय कृत कृत हो जाऊँगा |
नारद जी ने ऐसा हीं किया और कहा जाओ मैं तुमको वर देता हूँ कि तुम्हारा प्रेम इस दुनियाँ मे नि:स्वार्थ प्रेम के लिए जाना जाएगा | इसी को कहते हैं प्रेम की पराकाष्ठा , ऐसा ही प्रेम हमे अपने हरि से ऐर गुरु से करनी होगी - राधे राधे ( संजीव ,)

Comments

  1. सभी को कहें कृपया...
    || जय जय श्रीराधेकृष्णचन्द्रजी ||
    "परमपूज्य सन्तन्-भक्तन् श्री व श्री 'गौ माँ' के चरणाम्बुजों में कोटिशः प्रणिपात" ।

    'जय श्री गौ माँ, जय श्री शाश्वत राष्ट्र भारत, वसुधैव कुटुम्बकम्' ।

    धन्यवादः, वन्दे मातरम् ।
    "जय आर्यावर्त्त, जय श्री सनातन वैदिक-संस्कृति" ।

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  2. अत्यन्त आभार आदरणीयश्री, प्रणाम !

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