हमारे कृपालु महाप्रभु का वास्तविक स्वरुप क्या है ?
'महाराज जी का वास्तविक स्वरुप ' पुरा अवश्य पढ़े खास कर वे अनेक लोग जिन्होने मेरे फेस बुक मैसेन्जर पर अनेक बार जानने की उत्सुक्ता जाहिर की :-
प्रश्न :- हमारे कृपालु महाप्रभु का वास्तविक स्वरुप क्या है ?
उत्तर युगलशरण जी महाराज द्वारा :- भगवान अवतार लेते हैं , यह समस्त वेद- शास्त्रों का सर्वमान्य सिद्धांत है | दिव्य शरीर धारण कर उनका अवतार होता है | अनंत अवतार हैं | परावस्था अवतार श्रेष्ठ है सबसे ! परावस्था अवतार में तीन अवतार पुर्णावतार हैं - नृसिंह भगवान का अवतार , रामावतार और कृष्णावतार | इनमें कृष्णावतार सबसे आकर्षणीय अवतार है क्योंकि इसमें न मर्यादा है, न ऐश्वर्य |
अवतार के कई कारण हैं - धर्म संस्थापन , अधर्म का विनाश | वे नाम , रुप , लीला , गुण , धाम छोड़कर भी जाते हैं , जिसका अनुशीलन करके हम लोग उनको प्राप्त कर लेते हैं |
ब्रह्मानंदियों को प्रेमानंद दान करना भी भगवान के अवतार का उध्धेश्य है और जिस प्रेम के अधीन स्वयं भगवान हैं , उसी प्रेम धर्म का प्रचार करने के लिए भी भगवान अवतार लेते हैं | श्री कृष्णावतार जो हुआ था , उसके समस्त बहिरंग - अंतरंग कारण आपलोग जानते हैं | लेकिन एक निजी कारण भी है | गोलोक के श्री कृष्ण को परकीया माधुर्य रस का आस्वादन करने का सौभाग्य नही मिला |
उसी परकीया माधुर्य रस का आस्वादन करने को लिए श्री कृष्ण धराधाम पर अवतरित हुए थे |
अपना अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करके श्री कृष्ण चले गए , लेकिन कृष्णावतार में एक चीज नहीं हो पाई , राधा प्रेम की गहराई को श्री कृष्ण अनुभव नही कर पाए |
उनके मन में लालसा हुई , राधा प्रेम को जानने की |
इसलिय राधाभाव को अंगीकार करके लगभग ५०० साल पहले वही कृष्ण गौरांग होकर अवतीर्ण हुए थे |
कृष्णावतार में जो चीज नही मिली , गौर अवतार में वही चीज मिल गई | लेकिन वही गौरांग फिर आए , यह अनुमान प्रमाण , शब्द प्रमाण , और प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रमाणित है |
'काशी विद्वत परिषत ' के द्वारा श्री महाराज जी को उपाधियाँ दी गई थी - जगद्गुरुत्तम , निखिलदर्शनसमन्वाचार्य , भक्तियोगरसावतार आदि | श्री महाराज जी के पुर्व चार मूल जगद्गुरु हुए हैं | प्रथम जगद्गुरु जो आदि शंकराचार्य हुए , वे स्वयं शंकर भगवान के अवतार थे | द्वितीय जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वयं वलराम के अवतार थे |
तृतीय जगद्गुरु निम्बार्काचार्य सुदर्शन चक्र के अवतार थे | चतुर्थ जगद्गुरु माध्वाचार्य हनुमानजी के अवतार थे |
तो जगद्गुरुत्तम के उपाधि से सुस्पष्ट है , हमारे प्रभु कृपालु जी महाराज स्वयं परतत्त्व हैं |
दुसरी उपाधि - निखिलदर्शनसमन्वाचार्य | आज तक विश्व के अध्यात्मिक इतिहास में निखिल दर्शनों का समन्वय किसी महापुरुष , किसी अवतार ने नहीं किया था |
और निखिल दर्शन का समन्वय वही कर सकता है , जो निखिल दर्शनों का ज्ञाता है |
तो निखिलदर्शनसमन्वाचार्य उपाधि से हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है |
तीसरी उपाधि - भक्तियोगरसावतार |
भक्तियोगरसावतार यानी प्रेम के अवतार की उपाधि गौरांग महाप्रभु को मिली थी क्योंकि राधाभाव को अंगीकार करको अवतीर्ण हुए थे | अत: 'भक्तियोग रसावतार ' उपाधि से भी हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है | यह अनुमान प्रमाण है |
और शब्द प्रमाण ! चैतन्य भागवत में प्रसंग आता है , जिसमें शची माता को सम्बोधित करते हुए गौरागं महाप्रभु कहते हैं -
प्रश्न :- हमारे कृपालु महाप्रभु का वास्तविक स्वरुप क्या है ?
उत्तर युगलशरण जी महाराज द्वारा :- भगवान अवतार लेते हैं , यह समस्त वेद- शास्त्रों का सर्वमान्य सिद्धांत है | दिव्य शरीर धारण कर उनका अवतार होता है | अनंत अवतार हैं | परावस्था अवतार श्रेष्ठ है सबसे ! परावस्था अवतार में तीन अवतार पुर्णावतार हैं - नृसिंह भगवान का अवतार , रामावतार और कृष्णावतार | इनमें कृष्णावतार सबसे आकर्षणीय अवतार है क्योंकि इसमें न मर्यादा है, न ऐश्वर्य |
अवतार के कई कारण हैं - धर्म संस्थापन , अधर्म का विनाश | वे नाम , रुप , लीला , गुण , धाम छोड़कर भी जाते हैं , जिसका अनुशीलन करके हम लोग उनको प्राप्त कर लेते हैं |
ब्रह्मानंदियों को प्रेमानंद दान करना भी भगवान के अवतार का उध्धेश्य है और जिस प्रेम के अधीन स्वयं भगवान हैं , उसी प्रेम धर्म का प्रचार करने के लिए भी भगवान अवतार लेते हैं | श्री कृष्णावतार जो हुआ था , उसके समस्त बहिरंग - अंतरंग कारण आपलोग जानते हैं | लेकिन एक निजी कारण भी है | गोलोक के श्री कृष्ण को परकीया माधुर्य रस का आस्वादन करने का सौभाग्य नही मिला |
उसी परकीया माधुर्य रस का आस्वादन करने को लिए श्री कृष्ण धराधाम पर अवतरित हुए थे |
अपना अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करके श्री कृष्ण चले गए , लेकिन कृष्णावतार में एक चीज नहीं हो पाई , राधा प्रेम की गहराई को श्री कृष्ण अनुभव नही कर पाए |
उनके मन में लालसा हुई , राधा प्रेम को जानने की |
इसलिय राधाभाव को अंगीकार करके लगभग ५०० साल पहले वही कृष्ण गौरांग होकर अवतीर्ण हुए थे |
कृष्णावतार में जो चीज नही मिली , गौर अवतार में वही चीज मिल गई | लेकिन वही गौरांग फिर आए , यह अनुमान प्रमाण , शब्द प्रमाण , और प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रमाणित है |
'काशी विद्वत परिषत ' के द्वारा श्री महाराज जी को उपाधियाँ दी गई थी - जगद्गुरुत्तम , निखिलदर्शनसमन्वाचार्य , भक्तियोगरसावतार आदि | श्री महाराज जी के पुर्व चार मूल जगद्गुरु हुए हैं | प्रथम जगद्गुरु जो आदि शंकराचार्य हुए , वे स्वयं शंकर भगवान के अवतार थे | द्वितीय जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वयं वलराम के अवतार थे |
तृतीय जगद्गुरु निम्बार्काचार्य सुदर्शन चक्र के अवतार थे | चतुर्थ जगद्गुरु माध्वाचार्य हनुमानजी के अवतार थे |
तो जगद्गुरुत्तम के उपाधि से सुस्पष्ट है , हमारे प्रभु कृपालु जी महाराज स्वयं परतत्त्व हैं |
दुसरी उपाधि - निखिलदर्शनसमन्वाचार्य | आज तक विश्व के अध्यात्मिक इतिहास में निखिल दर्शनों का समन्वय किसी महापुरुष , किसी अवतार ने नहीं किया था |
और निखिल दर्शन का समन्वय वही कर सकता है , जो निखिल दर्शनों का ज्ञाता है |
तो निखिलदर्शनसमन्वाचार्य उपाधि से हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है |
तीसरी उपाधि - भक्तियोगरसावतार |
भक्तियोगरसावतार यानी प्रेम के अवतार की उपाधि गौरांग महाप्रभु को मिली थी क्योंकि राधाभाव को अंगीकार करको अवतीर्ण हुए थे | अत: 'भक्तियोग रसावतार ' उपाधि से भी हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है | यह अनुमान प्रमाण है |
और शब्द प्रमाण ! चैतन्य भागवत में प्रसंग आता है , जिसमें शची माता को सम्बोधित करते हुए गौरागं महाप्रभु कहते हैं -
आरो दुई जन्म एई संकीर्तनारम्भे |
हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे |
- श्री चैतन्यभागवत
तो शब्द प्रमाण से हमारे प्रभु की प्रभुता , हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है |
तो वही गौरांग फिर आए , ईस अवतार काल में वही सिद्धातं , वही संकीर्तन का रस प्लवित करने के लिय | अब प्रश्न उठता है - इस अवतार का क्या उद्धेश्य हो सकता है ? मेरी क्षुद्र बुद्धि में यही बात आती है कि जिस राधा प्रेम का पिछले अवतार में प्रभु ने आस्वादन किया , उसी राधा प्रेम को हम जैसे पतितों पर अशेष कृपा करके वितरित करने के लिय इस अवतार काल में हमारे प्रभु अवतरित हुए थे |
अत: हमारे प्रभु कृपालु जी महाराज जी का वास्तविक स्वरुप यह है कि वे स्वयं परतत्त्व हैं और राधाप्रेम का आस्वादन करते हुए उसे वितरित करने के लिए अवतरित हुए थे | यह प्रमािणत हैं |
हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे |
- श्री चैतन्यभागवत
तो शब्द प्रमाण से हमारे प्रभु की प्रभुता , हमारे प्रभु की भगवत्ता सुस्पष्ट है |
तो वही गौरांग फिर आए , ईस अवतार काल में वही सिद्धातं , वही संकीर्तन का रस प्लवित करने के लिय | अब प्रश्न उठता है - इस अवतार का क्या उद्धेश्य हो सकता है ? मेरी क्षुद्र बुद्धि में यही बात आती है कि जिस राधा प्रेम का पिछले अवतार में प्रभु ने आस्वादन किया , उसी राधा प्रेम को हम जैसे पतितों पर अशेष कृपा करके वितरित करने के लिय इस अवतार काल में हमारे प्रभु अवतरित हुए थे |
अत: हमारे प्रभु कृपालु जी महाराज जी का वास्तविक स्वरुप यह है कि वे स्वयं परतत्त्व हैं और राधाप्रेम का आस्वादन करते हुए उसे वितरित करने के लिए अवतरित हुए थे | यह प्रमािणत हैं |
Comments
Post a Comment