श्रेष्ठ वैष्णव

" त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठ,
स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्
न चलति भगवत्पदारविंदा ,
ल्लवनिमिषार्धमपि य: स वैष्णवाग्रय: "
अर्थात् जिसका मन भगवच्चरणारविन्दों से एक क्षण को भी , समस्त त्रैलोक्य की सम्पत्ति एवं मोक्षादि के पाने पर भी विचलित न हो सके , वही श्रेष्ठ वैष्णव है | अर्थात् , तैलधारावत् अविच्छिन - रुप से श्रीकृष्ण - रुप माधुरी का मधुप , भावुक ही , वैष्णव कहलाने योग्य हैं | कदाचित् तुम यह कहो कि निरन्तर स्मरण कैसे होगा ? तथा कौन कर सकेगा ? सो यह बात नहीं है |
सिद्ध महापुरुष निरन्तर स्मरण करते हैं | वे अपने तमाम संसारिक कार्य करते हुए भी अपने ही स्वरुप में रहते हैं | यहां तक कि युद्धादि विपरित कार्य करते हुए भी अर्जुन , हनुमान् , वलरामादि निरंतर भगवान् का स्मरण करते हैं | यह भगवान् की अचिंत्य योगमायाराक्ति का प्रभाव है | जिसका पक्का प्रमाण अनुभव के द्वारा ही प्राप्त होता हैं |
अत: अपना काम करते हुए तुम सब भगवान्नाम को हमेंशा याद करते रहो |
अपने इष्ठ को एक क्षण के लिये भी मत भुलो ,
सोते समय हरि को गुरु को याद करते हुए सोओ :- श्री महाराज जी

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