शारीरिक कष्ट आने पर क्या करें इस कष्ट को सरलता से विना विचलित हुए किस प्रकार सहन करते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े ?

एक साधक का प्रश्न :- मां हम शारीरिक कष्ट आने पर क्या करें इस कष्ट को सरलता से विना विचलित हुए किस प्रकार सहन करते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े ?
उत्तर :- दो प्रकार का रोग होता है - एक को कहते हैं कर्मज , दुसरे को कहते है दोषज !
अब जो आपके आहार- विहार की गड़बड़ी से हुआ है यानी आपकी गड़बड़ी से हुआ है खानपान के गड़बड़ी से हुआ है उसको कहते है दोषज ! और जो प्रारब्ध का कर्मफल भोग है , उसके द्वारा जो रोग होता है वो कर्मज कहलाता है | तो कर्मज रोग का इलाज करो या न करो बराबर है | जब प्रारब्ध भोग समाप्त हो जाऐगा तो अपने आप ठीक हो जायेगा |
फिर चाहे कुछ भी दवा करो, कर्मज रोग अपने प्रारब्ध को भोग लेने के बाद समय आने पर समाप्त हो जायेगा | प्रन्तु दोषज बीमारी जो होगी , हमारी गड़बड़ी से हुई है | उसमें दवा काम करेगी , संजम काम करेगी , डौक्टर से इलाज करना होगा | यह आयुर्वेद का सिध्दान्त है |
अब चूकिँ हमें मालुम हो नही सकता कि ये कर्मज है या दोषज है इसलिये दवा सबको कराना है और करानी चाहिये |
जादु मंतर , झार फुक के चक्कर में नही परना चाहिये ,
संसार में कर्मज दोष बाले भोले लोग , चूकिँ इसमें दवा काम नही करती इसलिये झार , फुक , जादु मंतर के चक्कर में भी पर जाते है | उसमें से कुछ का रोग जो प्रारब्ध बस था उसी समय संजोग से भोग समाप्त हो जाने पर स्वत: समाप्त हो जाते है तो लोग कहते है कि फलाँ फलाँ चमत्कार कर दिया , वो उसके पास गया , बाबाजी झाड़ फुक या आशिर्वाद दिया ठिक हो गया , और जिसका ठीक नही हुआ वो बाबाजी को ढोगी बोल दिया जो केवल भ्रम है | बाबाजी भी भ्रम में ओर रोगी भी भ्रम में है |
अब नम्बर दो :- साथ तुम अपने आपको ये जो शरीर मान बैठे हो , उसको सुधारो , हम शरीर नही है | हम जीव है जो श्री कृष्ण का नित्य दास है | उनकी सेवा में ही हमारा सुख है |
और जब हम यह पक्का विश्वास कर लेगें की हम शरीर नही जीव है , यह शरीर हमें केवल एक मात्र लक्ष्य भगवद् प्राप्ति जो की हरिगुरु की सेवा करते हुये उनके बताये मार्गो का अनुसरण करके ही प्राप्त होगा तो हम शारीरिक व्याधियों को भी सरलता से सहजता से पार करते हुये आगे बढ जाऐंगे |

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