गुरु महिमा भाग -२ ( जरुर पढ़ीये )

गुरु महिमा भाग -२ ( जरुर पढ़ीये )
हरि गुरु एक किन्तु गोविन्द राधे |
गुरु मन शुद्ध करे प्रेम सुधा दे ||
यानी हमारा लक्ष्य भगवत्प्रेम प्राप्ति है और यह भगवत्प्रेम स्वयं आप भी नही दे सकते है ? गुरु को माध्यम रुप में बीच में आना पड़ता है |
हाँ दिव्य चिन्मय प्रेम तो केवल गुरु ही तुम्हे दिला सकता है प्रति पल तुम इसी प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमानंद की तलाश में हो |
प्रेम सम साध्य नहीं गोविन्द राधे |
सद्गुरु सम न हितैषि बता दे ||
चुँकि तुम शरीर नही आत्मा हो और गुरु तुम आत्मा को मुझ परमात्मा से मिला देते हैं , अत: तुम्हारे सच्चे नातेदार गुरु ही है | हाँ , वे ही तुम्हारे सच्चे हितैषि हैं क्योंकि -
पाप से बचावे गुरु गोविन्द राधे |
हरि से लगावे सो हितैषि बता दे ||
सदा याद रखो ! संतो का जीवन परोपकार के लिए ही होता है | वे परोपकार के सिवा कुछ कर ही नही सकते | वे भोज पत्र के समान निरन्तर दूसरों के लिए ही कष्ट करते हैं और जीवों के कल्याण हित अपना सर्वस्व लुटा देते हैं |
हे जीवात्माओं ! ऐसे संत को गुरु के रुप में पाकर तुम विभोर हो जाओ और गुरु को मेरा ही रुप मानकर मेरी और गुरु की निष्काम भक्ति करो |
'यस्य देवे ' , मंत्र कहे गोविन्द राधे |
हरि गुरु भक्ति एक सी हो बता दे ||
जीवों ! ' यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ' - इस मंत्र में वेद मेरी आज्ञा सुनाता है - ईश्वरीय पथ के पथिक ( साधक) को मेरी और गुरु की एक जैसी भक्ति करनी होगी | गुरु मेरे ही रुप हैं , अत: हम दोनो को एक ही मानना होगा |
जीवत्माओं ! अगर तुम्हे अपनी बिगड़ी बनानी है , मुझे पाना है तो -
गुरु के प्रपन्न हो जा गोविन्द राधे |
भाजे आवे श्यामाश्याम गल बहियाँ दे ||
प्रभु ! गुरुवर की शरण में मैं आ गया हूँ , अब तो आप मुझे भी श्रीराधा संग युगल रुप में दर्शन दोगे न ?
यह भी कोई बात हुई , मात्र मुहँ से कह देने से क्या कोई शरणागत कहला सकता है ? इसके लिए तो तन-मन-प्राण सर्वस्व श्री गुरु चरणों में न्योछावर करना परता है |
हाँ , प्राण तक देने को तैयार रहना पड़ता है |
हे प्रभु ! ऐसे कल्याणकारी परम हितैषी गुरुवर के श्री चरणों में मैं वास्तव में नतमस्तक हो जाऊँ ऐसी कृपा कीजिए -
श्री गुरु चरणों में गोविन्द राधे |
सिर को ही नहीं मन को भी झुका दे ||
श्री गुरु चरणों में गोविन्द राधे |
तन मन धन अर्पन करवा दे ||
प्रभु ! अब मैं जान चुका हूँ कि आप और गुरुवर एक ही हैं | गुरुवर की भक्ति ही आप की भक्ति है | गुरुवर की सेवा को ही आप अपनी सेवा मान लेते हैं | प्रभु ! अब मैं आप ईश्वर रुपी गुरु की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पित करुँगा |
किन्तु सेवा का क्या अर्थ है ? सेवा कैसे की जाती है , कुछ भी नही जानता !
हरि गुरु सेवा अर्थ गोविन्द राधे |
हरि गुरु इच्छा को इच्छा बना दे ||
हरि गुरु सेवा अर्थ गोविन्द राधे |
हरि गुरु सुख में ही सुखी हो बता दे ||
हरि गुरु सेवा अर्थ गोविन्द राधे |
गुरु हित निज कोटि प्राण लुटा दे ||
हे जीवात्माओं ! हरि गुरु सेवा का तात्पर्य है - उनकी इच्छा जानकर उनकी इच्छानुसार सेवा करना | सदैव उनके सुख में हीं सुखी रहना एवं उनकी सेवा हित करोंड़ों प्राण न्योछावर करना | अत:-
हरि की कृपा जो चह गोविन्द राधे |
तन मन धन गुरु सेवा में लगा दे ||
हे जीवात्माओं ! अब तो अपना तन-मन-प्राण गुरुवर के श्री चरणों में समर्पित कर हरि-गुरु की दिव्य संपत्ति के अधिकारी बन जाओ ! उनके दिव्यानंद के अधिकारी बन जाओ !! वह परमानन्द पा लो , जिसे मुक्त हस्त से बाँटने के लिए मैं स्वयं गुरु के रुप में तुम्हारी बाट जोह रहा हूँ |



Comments

  1. Radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe radhe

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।