Posts

Showing posts from November, 2020

आओ चलो चलें हर कदम हरिगुरु की ओर, आनंदसिंधु की ओर ।।

Image
चलो चलें हर कदम हरिगुरु की ओर, आनंद की ओर  - आज संसार में हर कोई दु:खी है | सुखी कोई नही केवल संतों को महापुरुषों को छोड़ कर !  हममे से प्रत्येक व्यक्ति अपने संसारिक दुख और सुख का कारण एक दुसरे को मानता हैं | जबकी हम अपने ९९% संसारिक सुख और दु:ख का कारण स्वयं हैं | लेकिन अज्ञानता बस हम अपने दु:ख का कारण दुसरे को मानते हुए आजीवन सुख की तलाश में तमाम उम्र गुजार देते हैं ! यह जानने की कभी कोशिश ही नही करते की ये दु:ख जो हम झेल रहें है उसका कारण बाहर कहीं नही बल्कि हमारे अंदर है |  कोई इसलिय दु:खी है कि उसको संतान नही है | और जिसके पास संतान है वो संतान से दु:खी हैं | कोइ इसलिए दुखी है कि उसकी शादी नही हो रही है | और जिसकी शादी हो गई वो पति पत्नी से और पत्नी पति से परेशान है | कोई इसलिय दु:खी है कि उसको रोजी रोजगार नही है | और जिसके पास रोजी रोजगार है वो रोजी रोजगार से दु:खी है | कोइ दु:खी है क्योंकि उसके पास धन नही है तो हर धनवान इसलिए दु:खी है कि इतना धन के बाद भी उसके जीवन में शांति और सुकुन के दो पल मयस्सर नही हैं | सोहरत वाला अपने सोहरत को वनाऐ रखने के लिय परेशान है | तो...

विश्वशांति कैसे हासिल हो ? प्रवचन का अंतिम भाग ।

Image
विश्व शान्ति ब्लौग संख्या ३  **************************************** भगवान् को मानने से अथवा युँ कहो कि भक्ति करने से अंत:करण शुद्ध होगा । वास्तविकता तो यह है कि श्रीकृष्ण भक्ति के बिना अंत:करण शुद्ध होना  असंभव है । और सत्य अहिंसा आदि का आचरण अंत:करण की शुद्धि के बिना असंभव है । ये सब दैवी गुण तभी आएँगें, जब हमारे अन्त:करण की शुद्धि होगी । हमारे अन्त:करण की शुद्धि जितनी मात्रा में होगी , उतना ही हमारा संसार से वैराग्य होगा । अन्त:करण शुद्ध केवल ईश्वरीय भक्ति से हीं होगा । जब तक यह निश्चय न हो जाए कि संसार में सुख नहीं है, भगवान् में हीं सुख है, संसार की सम्पत्ति बटोरने की कामना रहेगी । जब यह निश्चय हो जाएगा शान्ति भौतिक पदार्थों से नही , भगवान् से मिलेगी , जितनी  मात्रा में यह निश्चय होगा , उतनी मात्रा में संसार का सामान संग्रह करने की कामना कम होगी तो उतनी मात्रा की चारसौ बीसी कम हो जाएगी । संसार से सम्पत्ति बटोरने की कामना खतम होगी । आज एक आदमी अरबपति है, खरबपति बनना चाहता है तो अगर ईश्वरीय भावना होगी , अन्त:करण शुद्ध होगा तो समझेगा कि संसार में सुख नहीं है ।  आव...

वेद वाणी अनादि, नित्य, पुंदोष, पंक, कलंक, से सर्वथा असंसृष्ट है, अत: इसी वेद के द्वारा निश्चय होगा कि ' मैं कौन हूँ ' और वास्तव में 'मेरा' कौन है । सो , हमें वेद का अबलंब लेना पड़ेगा । पर हम वेद का अबलंब लें कैसे ? क्यों ?

Image
श्री महाराज जी :- वेद विरूद्ध अगर भगवान भी आकर बोलें तो हमें उनका नहीं सुनना चाहिए , भगवान के अवतार हैं बुद्ध,  हम उनका सम्मान करते हैं , पर उनकी बातों को स्वीकार नहीं करते हैं  , क्योंकि वो जो भी बात बोले वो वेद सम्मत् नहीं है । वो महापुरूष थे । कुछ सम्यक बात बताए वो  , वो उस काल के लिए था , अब उनके उस अवैदिक सिद्धांत दर्शन आदि की कोई जरूरत नहीं और ना कोई लाभ है ।  भगवान और महापुरूष लोग आते हैं अवतार ले के छोटा छोटा  , घपड़ सपड़ा करते हैं कुछ ,  अपना अवतार के उद्देश्य को पुरा करतें हैं और चले जाते हैं । हमारे हिन्दु धर्म का आधार है-  वेद, पुराण , गीता , भागवद् , रामायण आदि , इसके आगे सभी वकवाश है ।  आप लोगों को कई बार बतलाया गया है कि वेद में भी 90% यानि 80, से 90,000 श्लोक,  ज्ञान मार्ग , कर्म कांड आदि पर है , केवल 10% ,  थोड़ा सा भक्ति मार्ग पर श्लोक है , ज्ञान मार्ग और कर्म कांड आदि का इस कलयुग में कोई लाभ नही, और इससे मिलेगा भी तो क्या ? केवल संसार ! और संसार में कोई आनंद नहीं है , केवल दुख ही दुख है , ब्रह्म लोक तक माया का अधिपत्य ...

कामना और उपासना ।।

Image
🌴🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌴 जबतक कामनाएं रहेगीं , उपासना नहीं होगी । जबतक उपासना नहीं होगी , तबतक भगवद् प्राप्ति नहीं होगी । और जबतक भगवद् प्राप्ति नहीं होगी, कामनाएं नहीं जाएगीं ।  ************************** तो एक ऊपाए निकाला गया, "'अपनी समस्त कामनाओं को हरि गुरू की ओर मोड़ दो " ************************** अपनी कामनाओं को हरि गुरू के निमित्त कर दो , फिर उपासना करो । भगवद् प्राप्ति हो जाएगी । :- श्री महाराज जी ( कामना और उपासना भाग -२ )  🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

जो बीत गई सो बात गई , आगे की सुधि लिजिए ।

Image
हमारा कर्म हीं फल के रूप में भगवान हमें देतें हैं । हम भगवान की दी हुई शक्ति का दुरूपयोग करतें हैं तो प्रारब्ध प्लस क्रियामान कर्म का भोग प्रत्येक मनुष्य को भोगना हीं पड़ता है। अगर हम भगवान की दी हुई शक्ति का दुरूपयोग करतें हैं तो रोग , शोक , दु:ख और दुर्गति को खुद निमंत्रण देकर बुलातें हैं यहां तक मौत को बुलातें हैं ,और मिथ्या आरोप भगवान और भाग्य पर लगातें हैं । अपने कर्मों को दोष नहीं देकर कहतें हैं कि भाग्य में लिखा था । भगवान ने बुला लिया । भगवान ने रोग दे दिया आदि , आदि । हमारा गलत कर्म हीं दैविक मृत्यू और भौतिक मृत्यु तक को निमंत्रण देकर बुलाती है । इसी को कहतें हैं अकाल या असामयिक मृत्यू । । भगवान की दी हुई शक्ति का सदुपयोग करके हम भगवान को प्राप्त कर सकतें हैं , यह मनुष्य के हांथ में हैं । क्रियामान कर्म ही से भाग्य का , किस्मत का निर्माण होता हैं । हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं । भगवान किसी को नहीं रोकते कोई कर्म करने से । हां वो अकारण करूण भगवान दया बस , अपने दयामय स्वभाव बस हमारे उपर दया करके  गुरू रूप में  आतें हैं और हमें तत्त्वज्ञान कराकर हमे सन्मार्ग पर चलने की ...

विश्व शान्ति कैसे हासिल हो ? - भाग-2

Image
विश्व शान्ति - भाग-2  ****************************************** अत: अशांति का प्रमुख कारण हुआ खुद को शरीर जानना , मानना और संसार के पदार्थों में सुख मानना । जब सुख मान लिया तो उनके वस्तुओं को पाने के लिए, स्वार्थ सिद्धि के लिए अनेक प्रकार की चाल चलेगा , अपराध करेगा, यानी अपराधों की संख्या बहुत बढ़ जाती है । लेकिन अगर कोई भी जीव हिन्दू फिलॉसफी को मान लें कि भगवान् ही आनंद है और प्रत्येक जीव के ह्रदय में भगवान् का निवास है -  " य आत्मनि तिष्ठति ।" (वेद) द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । (श्वेता. ४-६, मुण्डको.३-१-१) "समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्मामान:। ( श्वेता. ४-७, मुण्डको. ३-१-२) एकोदेव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । (श्वेता. ६-११) के अनुसार भगवान् प्रत्येक क्षण के संकल्प को नोट कर रहा है, यह विश्वास हो जाए कि भगवान् सब कुछ देख रहा है, सब कुछ नोट कर रहा है और कर्म फल देगा तो मनुष्य इस भय से अपराध नही करेगा ।  हर समय सावधान रहेगा । अरे ! संसार के संपर्क से ही लोग अपराध से बच जाते हैं । जा रहे हैं अँधेरे में किसी स्थान पर...

भक्ति के लिए उधार नहीं !

Image
भक्ति के लिए उधार नहीं ! ये मानव देह जिससे हमें पुरुषार्थ की प्राप्ति होगी, ऐसा पुरुषार्थयुक्त देह, पर उसी देह में सबसे बड़ी कमजोरी है जीवन की क्षणभंगुरता | दो प्रकार के कर्म होते हैं- शारीरिक कर्म और आत्मा सम्बन्धी कर्म ! शरीर संबंधित कर्म में उधार कर लीजिये, कोई प्रॉब्लम नहीं होगी, लेकिन आत्मा संबंधित कर्म में उधार मत कीजिये | और अक्सर यही होता है कि हम संसार सम्बन्धी धर्म को पहले करते हैं- तन से, मन से, धन से | उसको प्रायोरिटी देते हैं, महत्व देते हैं | और आत्मा संबंधित कर्म - अरे ! कुछ समय बच जाता है तो करते हैं, लापरवाही है उसमें |  मेरी राय तो ये है की काम, क्रोध, लोभ, मोह इनमें उधार कर दीजिये | आज नहीं करूँगा, कल करूँगा |पाप कर्म करने की प्रवृति बनती है - उधार कीजिये | कल करूँगा | लेकिन वहाँ हम उधार नहीं करते | दोषपूर्ण कार्य करने में उधार नहीं करते | उसको पहले करते हैं तुरंत करते हैं | यदि काम,  क्रोध, लोभ आदि में उधार कर लेंगे तो हमारे लिए फायदेमंद भी हो सकता है, क्योंकि मनुष्य के कर्म करने की प्रवृत्ति बदलती रहती है | हो सकता है कि आज गुस्से की परिस्थिति बनी, तो गुस्स...

चार प्रकार के लोग होतें है भक्ति मार्ग की दृष्टि से ।

Image
चार प्रकार के लोग होतें है । १. मुढ़ा - जो समझदार होकर भी, पढ़ें लिखे होकर भी नासमझ बने रहतें हैं । इंटरेस्ट नहीं है हरि गुरू में । खुद को मंदीरों में तीर्थों में जाकर बड़े भक्त दिखाने काम करतें हैं ।  २. नराधम - जो हमलोग हैं , सब तत्त्वज्ञान श्री महाराज जी ने दिए , ज्ञान भी हो गया , जुड़े हैं , पर श्री महाराज जी के आदेश को लागु नहीं किया अभी तक अपने जीवन में । ३. भौतिकबादी - जो संसार को हीं सत्य समझतें हैं , शरीर को मैं समझतें हैं‌। देहाभिमान है । चार्वाक के पुजारी हैं । ४. आसुरी - जो असुर प्रवृति के हैं। भगवान और हरि गुरू के रास्ते पर चलने वाले से द्वेष करतें हैं । आदि आदि । भक्त का मजाक उड़ातें हैं । श्री राधे । इसमें २ सरे नंबर बाले  नराधम का कल्याण किसी भी क्षण हो जाएगा जिस क्षण वो सरेंडर कर दें हरि गुरू के चरणों में , शरणागत हो जाए । बस काम बन जाएगा । किंतु बांकी तीनों को तो चौरासी का चक्कर जरूर लगेगा ।  श्री राधे । ( मां के प्रवचन से ) ।

भाव शरीर क्या होता है ?

Image
भाव शरीर के बारे में डिटेल्स  -  हमारे श्री महाराज जी जब धारा धाम पर थे तो उनके स्थूल शरीर के अंदर सूक्ष्म शरीर या कारण शरीर आदि नहीं था , उनके पंचमहाभौतिक प्राकृत शरीर के अंदर दिव्य शरीर, चिन्मय शरीर था केवल ।  प्रश्न : जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो सूक्ष्म शरीर धारण करती है, तो क्या वह सूक्ष्म शरीर में थोड़े दिन के लिए रह सकती है? या तुरन्त स्थूल शरीर धारण करना पड़ता है? उत्तर( श्री महाराज जी ) : नहीं, वह हजार युग रहे, रहने को क्या है? सूक्ष्म शरीर तो सदा है सब आत्माओं के, तुम्हारे भी है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर - तीन शरीर होते हैं। और इन तीन शरीरों को पार कर जाय तो दिव्य शरीर मिलता है।  गोलोक, वैकुण्ठ लोक, भगवान का लोक। तो सूक्ष्म शरीर तो already सब के है ही है। बिना शरीर के जीव कभी नहीं रह सकता। बिना शरीर के आत्मा नहीं रहती, बिना आत्मा के शरीर नहीं रहता। इनका अन्यान्य संबंध है।  खाली स्थूल शरीर जो है उसके बिना आत्मा रह सकती है। लेकिन सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, कारण शरीर माने संस्कार और सूक्ष्म शरीर जो आँखों से दिखाई न पड़े। आतिवाहिक शरीर भी कहते हैं उसको।...

योग का क्या मतलब है ? योग क्या हैं ? योग का असली अर्थ - श्री महाराज जी

Image
योग का क्या मतलब है ? योग क्या हैं ? योग का असली अर्थ - श्री महाराज जी के श्री मुख से :- " संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्म परमात्मनो:। " (याज्ञवल्क्य ) जीवात्मा परमात्मा का मिलन हो उसका नाम योग। योग माने मिलन। तो जीवात्मा परमात्मा का मिलन तो सदा से है ही। होना क्या है? वो मन बुद्धि का मिलन। यानी आपके मन का अटैचमेंट सेन्ट परसेन्ट भगवान् में हो, निरंतर। अर्जुन को यही कर्मयोग बताया श्री कृष्ण ने। काम तो हत्या का, इतना बुरा काम किया हत्या करना, लाखों करोड़ो की हत्या की अर्जुन ने और जिनकी जिनकी हत्या की पुरुषों की उनकी स्त्रियाँ विधवा हो गयीं। अब विधवा होने के बाद बहुत सी स्त्रियाँ करैक्टरलेस हो गईं, दुश्चचरिता हो गईं। इतना सारा रियक्शन बुरा होगा, भविष्य में, लेकिन युद्ध कोई अच्छी चीज तो नहीं हैं ? ये अर्जुन ने स्वयं किया। हाँ और गवाही ? करोड़ो। लेकिन श्रीकृष्ण जो भगवान् बनें हैं उन्होंने अपने वहीखाते में कुछ लिखा ही नहीं। अरे दफा 323 भी नहीं लिखा। मर्डर वगैरह की बात कौन करता। क्यों ? इसलिये कि योग था उसके मन का श्रीकृष्ण में। " तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। " ...

पंचममूलजगद्गुरूत्तमई श्री कृपालु जी महाराज( १९२२-२०१३)

Image
पंचममूलजगद्गुरूत्तमई श्री कृपालु जी महाराज ( १९२२-२०१३ ) -------------------------------------------------------------- जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज का जन्म 1922 में शरद पूर्णिमा की शुभ रात्रि में भारत के उत्तर प्रदेश प्रांत के प्रतापगढ़ जिले के मनगढ़ ग्राम में सर्वोच्च ब्राम्हण कुल में हुआ । इनकी प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ कुंडा में संपन्न हुई पश्चात् इन्होंने इंदौर,  चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण,  साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया । 16 वर्ष की अत्यल्पायु में चित्रकूट में शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ वनों में एवं वृंदावन में वंशीवट के निकट जंगलों में वास किया । श्री कृष्ण प्रेम में विभोर भावस्थ अवस्था में जो भी इनको देखता है वह आश्चर्यचकित होकर यही कहता कि ये तो प्रेम के साकार स्वरूप है , भक्तियोगरसावतार हैं उस समय कोई यह अनुमान नहीं लगा सका कि ज्ञान का आगाजध-अपरिमेय समुद्र भी इनके अंदर छिपा हुआ है क्योंकि प्रेम की ऐसी  विचित्र अवस्था थी कि शरीर की कोई सुधि बुधि नहीं थी । घंटों-घंटो मूर्च्छित करते । कभी उन्मुक्त अट्टहास  करते तो कभी भयंकर रूदन । खाना पी...

तत्त्व ज्ञान समझ आते हुए भी हमारे व्यवहार में क्यों नहीं आ पाते ? हम सब कुछ जानते , समझते हुए भी गलतियां करते हैं ।

Image
इस अति महत्त्वपुर्ण पोस्ट को जरूर पुरा पढ़ें ।  प्रश्न:- तत्त्व ज्ञान  समझ आते हुए भी हमारे व्यवहार में क्यों नहीं आ पाते ? हम सब कुछ जानते , समझते हुए भी गलतियां करते हैं ।  उत्तर - मैं समझा दूंगा , फिर तुम सैद्धांतिक रूप से समझ लोगे, फिर व्यवहार में नहीं आएंगी , क्योंकि सैद्धांतिक समझ कोई समझ हीं नहीं है । समझ वही है जो व्यवहार में आ जाए, नहीं तो समझ का धोखा है । मैं जो शब्द बोल रहा हूं , सीधे-साधे हैं , ये आपलोगों के समझ में आ जातें हैं , मगर शब्दों के भीतर जो छिपा है, वह शब्दों से बहुत बड़ा है, वहां चूक हो जाता है । आप शब्दों की खोल तो इकट्ठी कर लेते हैं परंतु अर्थों को चूक जातें हैं । फिर उस खोल से क्या होगा ! और आपके मन में यह भी सवाल है कि थ्योरिटिकल रूप से जो बातें समझ में आ गया तो व्यवहार में कैसे लाऊं ?  सच यह है कि जब समझ में लाना नहीं  होता , व्यवहार में लाना पड़े तो भी मैं आपसे कहुंगा कि समझ में कुछ नहीं आया।  दरअसल समझ में न आने वाले को हीं व्यवहार में लाने की चेष्टा करनी परती हैं । जिसको समझ में आ गया , बात वहीं खत्म हो गई, व्यवहार में लाने क...

यह जो आपका मन अशान्ति , भय, शंका और अतृप्ति से सदा विचलित रहता हैं, इसका मुख्य कारण और उपाय ।

Image
★★★ श्रीकृपालु भक्ति-धारा ★★★ यह जो आपका मन अशान्ति और अतृप्ति से सदा विचलित रहता हैं, इसमें बस एक ही मुख्य कारण हैं कि-- आपको भगवान पर, संतो/महापुरुषो पर उनके उपदेशो पर पूर्ण श्रद्धा और अटल विश्वास नही हैं, बिलकुल नही हैं, ये पक्का मान लो ! और इस अश्रद्धा और अविश्वास का मुख्य कारण हैं हृदय की मलिनता अर्थात् अभी आपका हृदय बहुत अधिक पापयुक्त हैं (अनंत जन्मो में किये गये गंदे संसारी चिन्तन और पाप आदि करने के अभ्यास के फलस्वरूप) । इस रोग का बस एक ही उपचार हैं  "निरंतर भगवद्भजन/हरि-हरिजन का चिन्तन" । भले ही आपका मन भगवद्भजन में ना लग रहा हो (क्योकि कभी लगाने का अभ्यास दृढ़ता से किया ही नही हैं) लेकिन फिर भी जुट जाओ अपनी पूरी शक्ति लगाकर "निरंतर हरि-गुरु चिन्तन करने में" और ये भी ध्यान रखो कि हरि-हरिजन के प्रति अनुकूल चिन्तन ही हो, विपरीत भाव हृदय में आते ही इस प्रकार उसको सावधानी से भगा दो जैसे भोजन के समय ध्यान रखते हो कि कंकड़ आदि ना आ जाऐ और यदि फिर भी कोई कंकड़ आ जाता हैं तो तुरंत उतना भोजन ही उगल देते हो,  वैसे ही तुरंत उस विपरीत भाव और विपरीत भाव लाने वाले कारण दो...

जप , तप , योग , ध्यान , यज्ञ , हवन , मंत्र आदि सभी कलयुग में निष्प्रभावी हैं ।

Image
ये जप , तप , योग , ध्यान , यज्ञ , हवन , मंत्र आदि सभी कलयुग में निष्प्रभावी हैं । कलियुग केवल हरि गुण गाहा । गावत नर पावत भव थाहा ।। "कलियुग केवल नाम आधारा , सुमिरि सुमिरि नर उतरहुं पारा ।। - ( रामायण )" लेकिन  इसमें भी बहुत गहराई है ।  केवल मुख से नाम राम या कृष्ण या राधा लेना काफी नहीं । क्यूंकि कलयुग में बहुत के नौकर का नाम राम, रामु और नौकरानी का नाम राधा है । इसलिए केवल मुख से नाम लेना एक फिजिकल ड्रिल मात्र है । इससे काम कभी नहीं बनेगा । जिसका नाम लेंगें तो सबसे पहले उनका रूप मन में खड़ा करना होगा । जैसे राधा नाम लेना शुरू करने से पहले राधा रानी के रूप का ध्यान मन में लाना होगा । और प्रत्यक्ष ये मानना होगा की वो हमारे सामने खड़ी हैं और हम उनके आगे रो कर उनको पुकार रहें हैं । उनकी सेवा कर रहें हैं , चमर डोला रहें हैं या उनके आंगन को बुहार रहें हैं आदि ।  ये रोने में भी अंतर हैं । एक अपने दु:ख से दु:खी हैं और उनके सामने ,ध्यान करके रो रहें हैं । ऐसा रोने से कोई लाभ नहीं । अपने किसी आभाव के लिए रोना भक्ति कतई नहीं हैं । ऐसे आंसुओं से भगवान नहीं रिझते कभी । भक्ति में तो ...

चार्वाक् कौन है ?

Image
आप लोग चार्वाक् के सिद्धांत से भी नीचे वाले हैं -  चार्वाक् कौन है ? यह स्वर्ग के बृहस्पति हैं । देवताओं के गुरु बृहस्पति, बुद्धि की औथारिटी, उनका ये सिद्धांत है चार्वाक् । चारू-वाक्,  मीठी-मीठी लगने बाली वाणी  । ये क्या कहते हैं- यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य       देहस्य     पुनरागमनं      कुत: ।।                                                 (चार्वाक्)  "जब तक जियो, सुख से जियो, कर्जा करके घी पियो । मरने के बाद फिर कौन आता है, कौन जाता है , सब बकवास। " ये  शरीर को ही सब कुछ मानते हैं,  अपना सुख यानी शरीर का सुख । वैसे तो आप लोग हँसेगे कि ये महामूर्खता , ये बृहस्पति का चलाया हुआ है !  ऐसा हुआ था एक बार कि देवताओं और असुरों का युद्ध हुआ तो बहुत असुर मारे गए । तो असुरों के गुरु शुक्राचार्य,  उन्होंने कहा यह तो बड़ा गड़बड़ हो गया । हमारे तो तमाम असुर...

श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावरीण , वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिलदर्शनसमन्वाचार्य सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य, भक्तियोगरसावतार , भगवदनन्तश्रीविभूषित श्री १००८ स्वामीं श्री कृपालु जी महाराज हैं ।

Image
हमारे श्री महाराज जी  जो कि पंचम मूलजगद्गुरू उत्तमई , श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावरीण , वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिलदर्शनसमन्वाचार्य सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य, भक्तियोगरसावतार , भगवदनन्तश्रीविभूषित श्री १००८ स्वामीं श्री कृपालु जी महाराज हैं  । जो स्वयं परम चरम तत्त्व हैं , इन्होने अपने पुर्ववर्ति चारो मुल जगतगुरूओं ( श्री शंकराचार्य जी, श्री रामानुजाचार्य जी , श्री निम्बारकाचार्य जी और श्री माध्वाचार्य जी )  के एक पक्षिय सिद्धांतों को विना खारिज किए हुए , उनके  अद्वेत्, द्वेत, द्वेताद्वेत, विशिष्टा द्वेत सिध्दांत ज्ञानों का विना खंडन करते हुए सभी का समन्वाकरण करते हुए  कलिमल ग्रसित हम पतित जीवों के अज्ञानता को दुर करने का अथक प्रयास किया हैं , अपने पुर्ववर्ति जगद्गुरूओं के ज्ञान के वास्तविक अर्थों को आसान बनाकर , आसान शब्दों में चारो वेदों , पुराणों , उपनिषदों , गीता , श्री मद्भागवद् , श्री वाल्मिकि रामायण ,तुलसीकृत रामायण , चैतन्यचरितामृत आदि ग्रंथों का प्रमाण प्रस्तुत करते अंत में सगुण साकार पुर्ण ब्रह्म श्रीराधाकृष्ण  की हीं उपास...

हमारे यहां छह शास्त्र कौन कौन से हैं ? - मीमांसा, न्याय, सांख्य, वैशेषिक, पातंजलि, वेदांत ।

Image
हमारे यहां छह शास्त्र हैं - मीमांसा, न्याय, सांख्य, वैशेषिक, पातंजलि, वेदांत । ये आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। माने ? वेद को अथॉरिटी मानते हैं । लेकिन आप सुनेंगे तो हैरान हो जाएंगे । पहला - मीमांसा दर्शन । वेद में दो काण्ड है - पूर्व कांड, उत्तरकाण्ड । तो पूर्व कांड को पूर्व मीमांसा कहते हैं , और उत्तर काण्ड को जिसमे उपनिषद हैं उसको उत्तर मीमांसा कहते हैं । वेदांत भी कहते हैं । शारीरिक भाष्य भी कहते हैं । तो मीमांसा दर्शन क्या कहता है ? वह भगवान्-वगवान् को नहीं मानता । वह कहता है - यज्ञादिक कर्म करो और उसी के फल के अनुसार वह कर्म ही फल बन जाएगा , अगले जन्म में और फिर उसका फल मिलेगा यज्ञ का - स्वर्ग । बस स्वर्ग की प्राप्ति ही अंतिम लक्ष्य है । वेद के अनुसार यज्ञ करो,  उसके अनुसार स्वर्ग जाओ,  स्वर्ग में बड़ा आनंद है , बस छुट्टी । और हमको क्या चाहिए ? आत्यन्तिक दु:ख निवृत्ति यानी सदा को दु:ख चला जाए ।  नहीं, यह लक्ष्य नहीं है हमारा, अनन्त काल को अनंत मात्रा का सुख मिले यह लक्ष्य है।  दु:ख निवृत्ति तो अपने आप हो जाएगी । दु:ख निवृत्ति होने से आनंद मिलेगा यह कंपलसरी नहीं,...

दीनता और अहंकार शून्यता हमारी आध्यात्मिक योग्यता है सदगुरू और भगवान की भक्ति के लिए ।

Image
दीनता और अहंकार शून्यता हमारी आध्यात्मिक योग्यता है सदगुरू और भगवान की भक्ति के लिए । भगवान हमारे इसी गुण पर रिझतें हैं और कृपा करतें हैं । शर्त यह है कि हमारी दीनता और अहंकार शून्यता वास्तविक हो, रियल हो , नेचुरल हो  ,‌वनावटी और एक्टिंग में न हो।  खुद को दीन मानना क्या ?  हम हैं हीं दीन !  कोई कितना बड़ा सत्ताधीश क्यों नहीं जब उसका उसके जन्म और मृत्यु पर वश नहीं तो कोई कैसे अपने को सर्व सम्पन्न और शक्तिशाली माने ! अगर कोई संसार में खुद को सर्वसमर्थ मानता है तो यह उसकी मूर्खता है।  इस माईक जगत का एक भी बस्तु और जीव ऐसा नहीं जिसमें एक तो क्या हजारों दोष नहीं ।  तो फिर खुद को अगर हम दीन नहीं मानते तो यह सबसे बड़ा आश्चर्य हैं ।  बस हमें केवल अपने वास्तविक स्वरूप को स्वीकार करना हैं । जिस दिन हम अपने स्वयं के वास्तविक निर्वल स्वरूप के सत्य को स्वीकार कर लेंगें हमें आंसू आने लगेगा ।  आंसु नहीं आने का मूख्य कारण हैं हम खुद को दीन नहीं मानते । नही जी हम तो कुछ हैं । बस हो गया , अहंकार आ गया । और भगवान एवं सद्गूरू को यही हमारा अहंकार पसंद नहीं । फिर हम कम...

Guru is the potter and the disciple is the pot.

Image
Guru Kumhar shish kumbh hai gadh gadh kadhe khot Antar haath sahaar de baahar mare chot…… - Kabir You must have seen how a potter makes his pots. Kabir observes that the Guru is the potter and the disciple is the pot. The Guru prepares the disciple in the same way the potter makes pots. He makes you ready so that your vessel is ready to receive the divine. If you observe the potter, you will see that although he holds the pot from the inside he keeps beating it from outside. How similar are the Guru’s actions! While holding you from within he keeps raining blows externally. Both are necessary. The pot’s sides are made possible with his supporting hand from inside, or else it will collapse. The external blows make the pot strong enough to retain water. With his grace even these blows will seem delightful to you and you will consider yourself fortunate and blessed. Blows are very essential for strength. The guru will strike you from all directions. This is the real test. As soon as the g...

“Kripalu Ji mahaprabhu ” is exceptionally merciful with his overflowing generosity towards the poor.

Image
Jagadguru Shree Kripalu Ji Maharaj is not just a Guru but He is the only Saint who has been honored with the highest place among all Vedic Saints and Scholars of this age. Just like the Pope in Christianity, a Jagadguru is the greatest and highest title among all Hindu Saints and scholars. This title is given only to a Saint who brings a spiritual revolution in the world through His divine teachings. He is the Supreme Exponent of Sanatan Dharma (Eternal Vedic religion) and His reconciliation of all philosophies and faiths is unique. At present there are eleven main religions in the world – Hinduism, Christianity, Islam, Buddhism, Jainism, Sikhism, Zoroastrianism, Judaism, Confucianism, Taoism, and Shinto. They all appear to propagate contradictory views regarding the path towards the supreme goal of Happiness. In fact there are contradictions within each religion itself. Jagadguru Shree Kripalu Ji Maharaj reconciles all these apparently opposing views and expounds a universal path that...

विश्व शान्ति कैसे हासिल हो ?

Image
विश्व शान्ति कैसे हासिल हो ? ( विश्वशांति भाग-१) **************** विश्व शान्ति में दो शब्द हैं -एक विश्व और दूसरा शान्ति । हमें ये समझना होगा कि विश्व का भावार्थ क्या है ? और शान्ति का भावार्थ क्या है ? विश्व - तीन पदार्थों के सम्मिश्रण को विश्व कहते है । परमात्मा, जीवात्मा , माया , तीनो को अलग-अलग करके बोल देते है । एक जीव है , एक भगवान् है और एक माया है । हिन्दू फिलॉसफी के अनुसार इस विश्व में भगवान व्याप्त है । भगवान ने माया के द्वारा यह विश्व बनाया है और भगवान् विश्व में व्याप्त ही नही हो गया अपितु वो विश्व रुप हो गया - ये कहा जाता है । लेकिन यह भगवान् अव्यक्त है, दिखाई नहीं पड़ता । अब दूसरी पर्सनैलिटि है इस विश्व में जीव दिखाई देता हैं, अनुभव में आते हैं। वृक्ष से लेकर मनुष्य तक ये सब हम लोग देखते है । और तीसरी चीज है माया । जो आप पृथ्वी, जल , तेज वायु, आकाश आदि देखते हैं, जो जड़ हैं निर्जीव वस्तुएँ सब माया का विकार है। इन तीनो के मिश्रण का नाम है विश्व । इस विश्व की शान्ति हम चाहते हैंं । इस विश्व में जड़ वस्तु की तो कोई शान्ति होती नही कि कोई मिट्टी अशांत है, उसको शान्त करना है औ...

कर्मयोग

Image
मै जब भी मां से मिलता हूँ तो उनसे प्रश्न करता हूँ , उनको परेशान करता हूँ , उनसे बहूत प्रेरणा मिलती है , जैसे मैने पुछा  कि एक साधक को कैसे अपने दैनिक कार्यों का सम्पादन करते हूए अपना संबंध हरिगुरु से महसुस करते रहना चाहिए , जोड़े रखना चाहिए । मां की बताई बातें , उनका गाइड लाईन मैं आप से भी शेयर करता रहता हूँ । ताकी आप भी लाभ उठा सकें जो मां से दूर हैं या जिनकी कम बाते होती है । मां ने कहा था कि बहूत ही आसान है । पहले तो यह मन में, ह्रदय में बैठा लो की श्री महाराज जी और अम्मा हीं तुम्हारे असली मां वाप हैं , वो भी ऐसे मां वाप जो सर्व समर्थ , सर्वांतर्यामी , सर्वशक्तिमान , सर्वसुखकारी , परम हितैषी ।  ठीक है..... संसार में हमारे शरीर को जन्म देने वाले मां है, वाप है , सबके हैं । उनके प्रति शरीर के नाते फर्ज है , और वो भी हम हरिगुरु की आज्ञा मान कर ही,  हरिगुरु के निमित्त ही उनकी देख रेख और सेवा करते हैं , करना पडे़गा।  ठीक है .... संसारी मां वाप आदरणिय हैं सेवा करना फर्ज है । फिर उनकी जरुर सेवा करो पर मन में यह रखो की ये जो हम इनकी सेवा कर रहें हैं ये हरिगुरु के आदेश का ...

मानव जाती का सबसे बड़ा दुश्मन इगो है । घमंड , दंभ है । यह विनाश का कारण है ।।

Image
हम सभी  मानव जाति में  एक मात्र अहंकार हीं एक ऐसा रोग है जो हमारे सभी दुर्गुणों की जननी है ।  दुर्गूणों यानी काम,  क्रोध , मद , मोह , लोभ , इर्ष्या , घृणा , राग और द्वेष , आदि नौ प्रकार के प्रमुख दुर्गूणों की जननी एक मात्र अहंकार हीं हैं ।  हम अगर अपने अंत:करण ( मन , बुद्धि , चित्त ) को टटोलें इमानदारी से एकांत में बैठ कर तो पता चलेगा की एक मात्र अहंकार ( घमंड) हीं हैं हमारा खुद का सबसे मुख्य दुश्मन । और यह अहंकार भौतिक या  ज्ञान या अज्ञानता से नहीं मिटती है। वल्कि और बढ़ जाती है । भौतिक ज्ञान , भौतिक सुख समृद्धी, भौतिक दु:ख , यहां तक कि आध्यात्मिक ज्ञान भी अहंकार को बढ़ाती हीं हैं ।  यह अहंकार किसी वास्तविक संतों द्वारा दिया गए तत्त्वज्ञान से भी नहीं मिटती , अहंकार इतनी सुक्षम होती की हमें पता हीं नहीं चलता कि यह अहंकार हममें प्रतिक्षण जीवित है और बढ़ रही है ।  यह अहंकार इतना सुक्षम वायरस है कि अरबों गुणा शक्तिशाली  टेलिस्कोप से भी नहीं दिखती खुद में , दुसरों में हम तो हरवक्त देख लेतें हैं लेकिन खुद में नहीं देख पातें हैं  । संतों के , ...

साधना का गाइडलाईन

Image
हम साधकों के लिय अति महत्वपूर्ण गाईड लाईन :-  भाव जगत् में भगवान् कि उपासना कैसे करें ?  हमलोग अपने भावानुसार ईश्वर की उपासना करते हैं परन्तु जब साधक भावजगत् में प्रवेश करता है तो उस ईश्वर को ईश्वर नहीं मानता अपितु उसी सर्वशक्तिमान , सर्वाधार , सर्वेश्वर को जो पूर्णमिद: पूर्णमिदम पूर्णमेवावशिस्यते हैं , को अपने ह्रदय में धारण कर लेता है | एक आधार है भाव और उसी भाव के आधार पर साधक , भगवान की उपासना पांच उपायों में करता हैं , पांच भावों में करता है जो आपलोगों को पता हैं जैसे - शान्त भाव , दास भाव , सख्य भाव , वात्सल्य भाव और माधुर्य भाव ! डीटेल में नही जाउँगीं , क्योंकि आप सभी को पता है |    अब हम सभी चूँकि रागानुगा मार्गी वाले हैं , जो रागात्मिका भक्ति कर चुके हैं , उनके अनुगत होकर रागानुगा भक्ति करते है , जैसा की हमारे श्री महाराज जी ने हमें साधना की पद्धति सिखाएँ हैं | हमारे श्री महाराज जी ने उन पांच भावो में से हमे माधुर्य भाव का चयन करने का आदेश दिया हैं | और हम लोग माधुर्य भाव में श्री कृष्ण की उपासना करते हैं | लेकिन हमारे श्री महराज जी हमें यहां से भी आगे देखना...