किसी की निंदा करने का अधिकार केवल उसी को है जो स्वयं निंदनीय न हो।

किसी की निंदा करने का अधिकार केवल उसी को है जो स्वयं निंदनीय न हो, जिसमें कोई बुराई न हो और जब तक भगवान को प्राप्त नहीं कर लेता जीव तब तक वो निंदनीय हीं है, सब तरह की बुराई उसमें भरा परा है, भले ही वो लोक लाज के डर से अपने बुराईयों को दबा के रखा है, विपरीत परिस्थितियों में जीव के भीतर की बुराई काम क्रोध लोभ घृणा राग द्वेष ईर्ष्या मद मोह मात्सर्य आदि बाहर प्रकट हो हीं जाती है। अत: सबको साधना करके अपने अपने अंत:करण को शूद्ध करना कंपल्सरी है ।

 बिना साधना के अंत:करण शूद्ध नहीं हो सकता , और बिना अंत:करण शूद्धि के भगवद् प्राप्ति असंभव है , ये बात रट लो , रट लो यह बात।

ये पुजा पाठ, जप तप व्रत तीर्थ उपवास यज्ञ हवन आदि ठीक ठीक करने से जीव के केवल इस जन्म के कुछ पापो का शमन तो हो सकता है लेकिन जीव अपने किए सारे पापों से मुक्त नहीं हो सकता , उपर से प्रत्येक जीव नित नया पाप कर रहा है , क्योंकि पाप करने की प्रवृत्ति सदा के लिए नष्ट नहीं हो सकती है बिना अंत:करण कि शूद्धि के । 

 हरेक जीवों के पास उसके द्वारा अनंत जन्मों में किए गए अनंत पापों का भंडार उसके अंत:करण में भरा परा है, जो केवल हरि गुरू के रूपध्यान साधना से हीं नष्ट हो सकती है , पाप करने की प्रवृत्ति सदा के लिए समाप्त हो सकती है तथा अंत:करण कि शूद्धि के पश्चात जीव भगवान को प्राप्त करके सदा को आनंदमय हो सकता है , अन्य कोई दुसरा मार्ग है हीं नहीं । :- श्री कृपालु जी महाराज ।

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