कुछ लोग धर्म कर्म तथा तत्वज्ञान जानते हुए भी भगवान कि ओर नहीं चलते और कुछ लोग किसी महापुरुष से थोड़ा सा जानते हीं तुरंत संसार से एवाऊट टर्न लेकर गुरू के शरणागत होकर भगवान के हो जाते हैं , क्या कारण है ?

प्रश्न - कुछ लोग धर्म कर्म तथा तत्वज्ञान जानते हुए भी भगवान कि ओर नहीं चलते और कुछ लोग किसी महापुरुष से थोड़ा सा जानते हीं तुरंत संसार से एवाऊट टर्न लेकर गुरू के शरणागत होकर भगवान के हो जाते हैं , क्या कारण है ? 
उत्तर :- इस बात को समझने के लिए दो सबसे बढ़िया उदाहरण है - एक अर्जुन का और दुसरा दुर्योधन । दोनो महत्त्वपूर्ण है इस बिषय को जानने ,‌ समझने के लिए ।

याद होगा सबको कि भगवान पांडवों के तरफ से शांतिदूत बन कर गए थे हस्तिनापुर में । धृतराष्ट्र के दरवार में दरवारियों कि सभा बैठी हुई थी । 
भगवान श्री कृष्ण दुर्योधन को समझा रहें हैं कि पांच गांव हीं दे दो पांडवों को सिर्फ। भगवान ने बहुत लौजिक दिया कर्म धर्म का भरी सभा में ।
पर दुर्योधन कहता है भगवान् को कि - 

" जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। 
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि॥' 
यानि मैं जानता हूँ कर्म-धर्म अच्छी तरह से लेकिन मेरी प्रवृत्ति इनमें नहीं है , मेरी रूचि इन बिषयों में नहीं है । और मैं अधर्म भी जानता हूँ अच्छी तरह से , लेकिन मेरी निवृत्ति न हुई इससे , यानि संसार से आसक्ति समाप्त नहीं हुआ । भोग विलास तथा सत्ता से मुझे वैराग्य नहीं हुआ है इसलिए मैं कर्म धर्म को जानते हुए भी इससे विमुख हुं । 

मतलव वो कह रहा है कि " हे कृष्ण मुझे प्रवचन मत दिजिए धर्म क्या है अधर्म किसे कहते हैं यह मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं, पर मैं क्या करूं ? मेरा न धर्म में प्रवृत्ति हो पा रही और ना अधर्म से निवृत्ति हो पा रही है ।‌ क्योंकि मेरी मनोवृत्ति हीं ऐसी है । मतलव मेरी ( व्यक्तित्व )पर्सनैलिटी हीं ऐसी है ।
हे कृष्ण एक हीं गुरू द्रोण और कृपाचार्य कुल गुरू के हम सब शिष्य हैं (यानि कौरव सौ भाई और पांडव पांचों भाई ) । दस हजार हाथियों का बल भीम में हैं तो मुझमें भी दस हजार हाथियों का बल है पर हम दोनों की मनोवृत्ति अलग अलग है । इसलिए प्रवृत्ति भी अलग अलग है। "

अब आप सब यह भी जानते हैं कि अर्जुन क्या पुछा भगवान से, जब गीता का ज्ञान दे रहे थे भगवान कुरूक्षेत्र में । 
अर्जुन पुछ रहा है :- 
चंचलं हि मन:कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। ( गीता.६.३४)
वो कहतें हैं भगवान से की यह मन हीं तो बश में नहीं है , मन का ही गुलाम हुं मैं , आप कहें तो मैं हवा का रूख को मोड़ दु़ , नदी के धारा को बदल दुं , पर मन को बश में करना बहुत कठीन है । इसलिए हे श्री कृष्ण यह बतलाइए मैं अपने मन को बश में कैसे करूं ? हे जगद्गुरु श्री कृष्ण मैं अपने मन बुद्धि को आपमें कैसे निवेश कर दूं । यानि आपकी शरणागति कैसे करूं ? 
तब भगवान बोलते हैं कि - 
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।(गीता 6.35।।)
(आप सब भावार्थ जानते हैं इसका । लिखने की जरूरत नहीं है ।)
 अर्जुन को तत्वज्ञान में रूचि है , वो तत्वज्ञान अपने सखा श्री कृष्ण से नहीं वल्कि उनको गुरू मान कर समझने में रूचि दिखाई और इस प्रकार गीता का प्रकटीकरण हुआ जगद्गुरु श्री कृष्ण के मुख से । 

अर्जुन जानता था यह बात कि ज्ञान तो भगवद स्वरूप गुरू से हीं मिल सकता है भगवान से डायरेक्ट नहीं , इसलिए बड़े बुद्धिमत्ता से उसने श्री कृष्ण को गुरू मान कर , तथा बोल कर संबोधित किया । 
अब गुरू को अपने शिष्य के अज्ञान को मिटाना हीं होगा । इसलिए भगवान सत्तरह अध्याय तक अर्जुन के प्रश्नों तथा परिप्रश्नों का जबाब देते रहे । यह संबाद हीं गीता है । 
अंत में अर्जून शरेंडर कर देता है खुद को ( हालाकी अर्जुन पहले से हीं महापुरुष हैं, हम जीवों के शिक्षा के लिए वो यह सब कर रहा हैं , पांडव शरेंडर तो पहले से हीं है भगवान के प्रति । इसलिए तो अर्जुन भगवान‌ से सेना ना मांगकर भगवान को ही मांग लिया था । )

तो दोनों में अंतर है । अर्जुन को प्रपत्ति यानि शरणागत है ।
प्रपत्ति मूला भक्त हैं अर्जुन यानि शरणागत भक्त है वो , इसलिए उसका मनोवृत्ति बदल गया है , मनोवृत्ति बदल गया तो उसकी प्रवृत्ति यानि आचरण धर्मानुकूल हो गया है। इसलिए उसका व्यक्तित्व बदल गया है , इसलिए आज भी अर्जुन के प्रति लोगों का आकर्षण है, आदर है , अर्जुन का व्यक्तित्व आकर्षित करता है सज्जन को । 
पर दुर्योधन का वृत्ति नहीं बदला ,, वो प्रपत्त नहीं है। किसी का भी नहीं , भगवान‌ को तो छोड़िए यहां तक कि ना भीष्म का , न तत्वज्ञानि ताऊ श्री विदुर जी का और न अपने गुरू का ।

 क्योंकि वो माया के दुर्गुण रूपी शकुनी से प्रभावित हैं इसलिए उसकी निवृत्ति अधर्म से नहीं हुआ अंत तक । जैसी संगती वैसी मनोवृत्ति, जैसी मनोवृत्ति वैसी प्रवृत्ति , जैसी प्रवृत्ति वैसी वृत्ति , जैसी वृत्ति वैसा संकल्प , जैसा संकल्प वैसा दृष्यमाण कर्म - यह सिद्धांत है वेद का ।
अत: उसकी मनोवृत्ति अशुद्ध है इसलिए वो उपहास का पात्र है आज भी । और यही कारण था कि अग्नी पुत्री यानि यज्ञशैनी द्रोपदी उस पर व्यंग करते हुए कहा की अंधे का पुत्र अंधा , क्योकि एक स्वाभाविक विकर्षण था उसके प्रसनैल्टी में । मजाक का पात्र बना लिया था खुद को दुर्योधन । अत: गलत लोगो से दुर रहना श्रेयकर है । 

यही कारण है कि तत्वज्ञान केवल जानने से , या समझने से या सुनने से कुछ नहीं होगा । हम संगति किसका कर रहे हैं ? यह महत्वपूर्ण है । जिसकी जैसी संगति उसकी वैसी प्रवृत्ति अपने आप हो जाती है । जिसकी जैसी प्रवृत्ति वैसा आचरण हो जाता है । 
इसलिए हमारे गुरूवर ने कहा है , आदेश दिया है हमें कि सत्संग भले न मिले , या कम मिले लेकिन कुसंगी से दुर रहो । संगति अच्छे लोगों का करो, अच्छे साधकों का करो । 
तब व्यक्तित्व बदलेगा , व्यक्तित्व बदलेगा तो संकल्प भक्ति अनुकूल होगा । संकल्प भक्ति अनुकूल होगा तो वृत्ति शुद्ध होगी । अंत:करण शुद्ध होगा । अंत:करण शुद्ध होगा तो गुरू उसमें दिव्य शक्ति देगा । जब दिव्य शक्ति मिलेगा तो लक्ष्य मिल जाएगा । 

तो यही कारण है कि कलयुग में अधिकतर लोगों कि रूचि हीं नहीं है तत्वज्ञान में । गलत संगति के कारण प्रसनैल्टी डिजऔर्डर का शिकार है अधिकतर लोग आज और कष्ट पाने के बाद भी समझ नहीं । अच्छी बातें न पढ़ना चाहते हैं और न सुनना । केवल मादक बिषयों को सुनने में और उसमें लिप्त रहने में ही रूचि है अधिकतर की । 

 अब बात करते हैं कि यह व्यक्तित्व बनता बिगड़ता कैसे हैं । तो यह अंत:करण चातुष्ट्य के विज्ञान का कमाल है ।
आप सब जानते हैं कि यह अंत:करण चातुष्ट्य क्या हैं ?
मन , बुद्धि , चित् और अहंकार को अंत:करण चातुष्ट कहते हैं । तो ऐ मन क्या है बुद्धि क्या है ,‌ चित् किसे कहतें हैं , अहंकार क्या हैं ? यह कहां रहता है शरीर में कैसे काम करता है यह ? कैसे यह संस्कार को शुद्ध करता है !
फिर यह मशीन‌ कैसे हमारा उद्धार करता है और बर्बाद भी ? 
कैसे यह शुद्ध होता है कैसे और कैसे अशुद्ध हो जाता है ?
तो यह एक विज्ञान है इस पर चर्चा अगले पोस्ट में होगी । 
:- पुज्यनियां मां रासेश्वरी देवी जी के प्रवचन का जीस्ट ( सार )

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