महापुरुष और भगवान् चोरी चोरी सेवा करते हैं अपने शरणागत की, बिना बताये और अगर वह पूछेगा तो भी कह देंगे नहीं-नहीं मैंने तो कुछ नहीं किया तुम्हारे लिये। वास्तविक महापुरूष आशिर्वाद का नाटक नहीं करता कभी , वो चुप चाप अंदर हीं अंदर कृपा करता हैं अपने शरणागत पर ।

श्री महाराज जी :- महापुरुष और भगवान् चोरी चोरी सेवा करते हैं अपने शरणागत की, बिना बताये और अगर वह पूछेगा तो भी कह देंगे नहीं-नहीं मैंने तो कुछ नहीं किया तुम्हारे लिये।  
वास्तविक महापुरूष आशिर्वाद का नाटक नहीं करता कभी , वो चुप चाप अंदर हीं अंदर कृपा करता हैं अपने शरणागत पर । 
महापुरूष और भगवान जानता है कि हमारे भक्त के लिए क्या कल्याणकारी है, जो कल्याणकारी है वही करता हैं वो उसके लिए । 
आजकल अधिकांश बाबा जी संसार में हाथ उठा कर आशीर्वाद देने का नाटक करते हैं । हाथ उठाया हरेक के सिर पर रख दिया !
यह सब दिखावा है , नाटक है नाटक । ऐसे आशिर्वाद का कोई लाभ नहीं । न उसमें कोई सामर्थ्य है । 
जिसमें सामर्थ्य है वो ऐसा नाटक नहीं करता कभी । 
वास्तविक महापुरूष दया का स्वरुप होता हैं वो कृपा के सिवा कुछ नहीं करता , वो एक नजर देख ले , या नजर फेर कर कृपा करदे , एक चाटा लगा दें या एक मुक्का लगा दें , कृपा है , या कुछ न करें , कोई रेसपोंस न दे उल्टा डांट दे, फटकार दे , किसी को चिपटा ले, किसी को ऐसे ( तिरछी आंख करके ) देख ले , समझना चाहिए सब कृपा है । 

 शिष्य को किसी प्रकार की कामना रख कर के ईश्वरीय जगत् में हरि गुरू के यहां कदम नहीं रखना चाहिए , समझे रहना चाहिए, वो अंतर्यामी है , वो जानता है हमारे लिए क्या जरूरी है ?
हरि गुरू पर जितनी श्रद्धा और विश्वास होगी उनकी उतनी कृपा होगी सीधा हिसाब है। वास्तविक महापुरूषों को चिंता रहती है अपने शिष्यों के कल्याण की , प्रोग्रेस की ।
भगवान तो केवल अधिकारी पर , पात्र पर हीं कृपा करते हैं पर महापुरूष तो कुपात्र को भी पात्र बना देता है , अनधिकारी को अधिकारी बनाना गुरू का काम है और यह सबसे बड़ी कृपा है । 

" हरि निर्मल जन को यार , गुरू पतितन सों करें प्यार "

अनाधिकारी को अधिकारी नहीं बनाएगा गुरू तो भगवान कैसे कृपा करेगा ? भगवान के पास तो अनाधिकारी पहुंच हीं नहीं सकता बिना अधिकारी बने ।। 
:- श्री महाराज जी ( पुस्तक - "गुरू भक्ति" )

" जा पर कृपा गुरू कि होई , ता पर कृपा राम कि होई "
गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई ।
जौ बिरंचि संकर सम होई ।। :- रामायण।।

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