वेद विरूद्ध अगर भगवान भी आकर बोलें तो हमें उनका नहीं सुनना चाहिए , भगवान के अवतार हैं बुद्ध, हम उनका सम्मान करते हैं , पर उनकी बातों को स्वीकार नहीं करते हैं , क्योंकि वो जो भी बात बोले वो वेद सम्मत् नहीं है । वो महापुरूष थे । कुछ सम्यक बात बताए वो , वो उस काल के लिए था , अब उनके उस अवैदिक सिद्धांत दर्शन आदि की कोई जरूरत नहीं और ना कोई लाभ है ।
श्री महाराज जी :- वेद विरूद्ध अगर भगवान भी आकर बोलें तो हमें उनका नहीं सुनना चाहिए , भगवान के अवतार हैं बुद्ध, हम उनका सम्मान करते हैं , पर उनकी बातों को स्वीकार नहीं करते हैं , क्योंकि वो जो भी बात बोले वो वेद सम्मत् नहीं है । वो महापुरूष थे । कुछ सम्यक बात बताए वो , वो उस काल के लिए था , अब उनके उस अवैदिक सिद्धांत दर्शन आदि की कोई जरूरत नहीं और ना कोई लाभ है ।
भगवान और महापुरूष लोग आते हैं अवतार ले के छोटा छोटा , घपड़ सपड़ा करते हैं कुछ , अपना अवतार के उद्देश्य को पुरा करतें हैं और चले जाते हैं ।
हमारे हिन्दु धर्म का आधार है- वेद, पुराण , गीता , भागवद् , रामायण आदि , इसके आगे सभी वकवाश है ।
आप लोगों को कई बार बतलाया गया है कि वेद में भी 90% यानि 80, से 90,000 श्लोक, ज्ञान मार्ग , कर्म कांड आदि पर है , केवल 10% , थोड़ा सा भक्ति मार्ग पर श्लोक है , ज्ञान मार्ग और कर्म कांड आदि का इस कलयुग में कोई लाभ नही, और इससे मिलेगा भी तो क्या ? केवल संसार ! और संसार में कोई आनंद नहीं है , केवल दुख ही दुख है , ब्रह्म लोक तक माया का अधिपत्य है, स्वर्ग की कौन कहें ।
और भक्ति से तो जो चाहो वो सब मिल जाएगा , संसार तो बहुत छोटी चीज है ।
भगवान के निष्काम भक्ति करके ध्रुव को एक लाख बर्ष का राज्य बिन मांगे मिल गया , जबदस्ती भगवान बोले ऐ जाकर शासन करो । वो भी सभी प्रजा अनुकूल ।
और सबसे बड़ा दुर्लभ चीज मिला भगवान का लोक और सेवा ।
तो भक्ति से ऊंचा कोई मार्ग नहीं है ।
इस कलिकाल में केवल एक मात्र भक्ति मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है और भक्ति मार्ग को किसी अन्य मार्ग के अवलंबन की कोई आवश्यकता नहीं , भक्ति मार्ग परम स्वतंत्र बतलाया गया है ।
"भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी" :- तुलसीदास ने भी कहा है ।
वैसे भक्ति के तो अनेक प्रकार है पर उसमें तीन - स्मरण , चिंतन और किर्तन प्रमुख हैं , और उसमें भी स्मरण सर्वश्रेष्ठ है । भक्ति में केवल मन से भगवान श्री राधाकृष्ण और अपने गुरू का स्मरण, चिंतन और रूपध्यान युक्त किर्तन बस यही तीन काम मैंने आपलोगो को बतलाया है एवं अनन्यता तो अति आवश्यक है हीं वर्णा साधक कंफ्यूज हो जाएगा , क्योंकि अलग अलग महापुरूषों का बतलाया हुआ अलग अलग तरिका है जैसे शंकराचार्य , रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य , निम्बार्काचार्य का मार्ग आदि ।
भक्ति सभी उपासना मार्गो का सिरमौर है । भगवान को केवल भक्ति हीं अतिशय प्रिय है... भगवान ने स्वयं कहा है " अहं भक्त पराधीनो.... न मे भक्त: प्रणस्यति। "
तुलसी दास ने भी कहा है - "भक्तिहीन नर सोहहि जैसे, लवण हीन बहु व्यंजन जैसे ।"
"भक्ति हीन नर पशु समाना "
अन्य मार्गो के साधकों के पतन कि पूर्ण सम्भावना रहती है। पर भक्त का पतन कभी नहीं हो सकता ।
यह आपलोगो को कई बार बतलाया जा चुका है ।
चूँकि यह वेद वाणी अनादि, नित्य, पुंदोष, पंक, कलंक, से सर्वथा असंसृष्ट है, अत: इसी वेद के द्वारा निश्चय होगा कि ' मैं कौन हूँ ' और वास्तव में 'मेरा' कौन है । सो , हमें वेद का अबलंब लेना पड़ेगा । पर हम वेद का अबलंब लें कैसे ? क्यों ? क्योंकि -
परोक्षवादो वेदोऽयम् । (भागवत् ११-३-४४)
वेद में शब्द कुछ है, अर्थ कुछ है । इसे ईश्वर स्वरुप कहा गया है क्योंकि जैसे ईश्वर बुद्धि से परे है ऐसे वेद भी बुद्धि से परे है । यदि वेद बुद्धि से परे है तो हमारा काम कैसे बनेगा ? इस वेद को जानने वाले वास्तविक महापुरुष से हीं बनेगा !!
लेकिन शर्त यह है कि वो महापुरूष श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ट दोनों हो। यानि थ्योरिटिकल मैन के साथ साथ प्रैक्टिकल मैन भी हो , भगवान को देखा हो , सुना हो , छुआ हो , गले लगाया हो , वो सपना में देखने वाला या आभासीए अनुभव वाला नहीं ।
आज बहुत सारे कथा बाचक घुम रहें हैं हमारे इंडिया में कहते हैं हमको सपने में दर्शन दिए भगवान , कोई कहता है हमको आभास हुआ है और मंत्र कान में फुक कर चेला बनाने का व्यापार करते हैं सब। तो यह सब भ्रम है ।
ऐसे लोगों से कोई काम नहीं बनेगा । ऐसे लोगों को वेद का कोई ज्ञान नहीं , अपने अपने अनुसार श्लोकों का गलत अर्थ लगाकर लोगों को गुमराह करते हैं ये सब , इनको ना तो थ्योरी का ठीक से नाॅलिज है और भगवान को देखना तो बहुत दुर की बात है ।
तो केवल थ्योरिटिकल मैन से विल्कूल काम नहीं बनेगा ।
प्रैक्टीकल मैन भी चाहिए ।
वेदा ब्रह्मात्म विषया: । ( भागवत् ११-२१-३५)
तो आपलोगो को बतलाया गया कि इस सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ का वास्तविक लाभ किसी श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मार्गदर्शन में हीं उठाया जा सकता है । वास्तविक महापुरुष , जिसके पास सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ प्रैक्टिकल (अनुभवात्मक ज्ञान ) नॉलेज भी हो । वो भगवान को प्राप्त कर लिया हो , देखा हो , महसूस किया हो , छुआ हो , बातें किया हो ।
केवल सैद्धान्तिक नॉलिज वाला व्यक्ति , जिसके पास प्रैक्टिकल नॉलेज नही है , गुरु बन जाए तो वो भला अपने शिष्य को कैसे भगवत् प्राप्ति करा सकता है ! वो बेचारा तो खुद खाली वर्तन है । वो भला दुसरे के प्यास को कैसे बुझा सकता है ?
असंभव ! ऐसे हीं हमारे देश में बहूत सारे वक्ता है , भगवत् चर्चा करते रहतें हैं । पर बेचारे खुद खाली है भीतर से । उनसे भला लोगों को क्या लाभ मिलेगा ? ऐसे समझ लिजिए इसको कि एक व्यक्ति जो खुद पानी में तैरना नही जानता , फिर किताब पढ़ कर दूसरे को पानी में तैरना सिखाए ! ये बड़ा गम्भीर प्रश्न हैं , सोंचना चाहिए सबको !
:- श्री कृपालु महाप्रभु जी ।।
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