दी गोल्डेन तत्वज्ञान औफ श्री कृपालु जी महाराज । :- बस तीन ही बस्तूऐ हैं पुरे ब्रह्मांड में , एक भगवान , दुसरा जीव , तीसरी माया , चौथा कुछ है हीं नहीं ।
दी गोल्डेन तत्वज्ञान औफ श्री कृपालु जी महाराज । :- बस तीन ही बस्तूऐ हैं पुरे ब्रह्मांड में , एक भगवान , दुसरा जीव , तीसरी माया , चौथा कुछ है हीं नहीं ।
जीव तथा माया दोनों का अध्यक्ष ( गवर्नर ) एक मात्र भगवान श्री कृष्ण है । इसी प्रकार दो ही संप्रदाय हैं पुरे ब्रह्मांड में एक भगवान , दुसरी माया । तीसरा कोई संप्रदाय हैं हीं नहीं समुचे विश्व में । माया का ही स्वरूप ये संसार है जो नश्वर है बनने और बिगड़ने वाली है ।
भगवान, जीव तथा माया तीनों सनातन है, नित्य है, यह कभी मिटने वाली नहीं है । केवल माया का स्वरूप ये संसार हर क्षण बनने बिगड़ने तथा बदलने वाली है जबकि माया स्थाई और सनातन है । क्योंकि माया तथा जीव भगवान की हीं शक्ति हैं । इसे कोई कभी मिटा नहीं सकता , स्वयं भगवान भी नहीं ।
अब जीव को लिजिए तो हम आत्मा है, देह नहीं है, जीव का देह संसार का अंश है जो संसार के पंचमहाभूत तत्त्व से बना है तथा बनने एवं नष्ट होने वाला बस्तु है, लेकिन आत्मा सनातन है दिव्य हैं और हमारा अंशी एक मात्र भगवान श्री कृष्ण हैं । हम उन्ही दिव्य प्रकाश स्वरूप, आनंद स्वरूप भगवान श्री कृष्ण का दिव्य अंश हैं, उनका नित्य दास है लेकिन उनसे विमुख होने के कारण उनकी दासी माया के सन्मुख है सदा से, इसलिए हम उनकी दासी माया के गुलाम हैं, और माया कि दासता करने के लिए विवश हैं इसलिए हम चौरासी लाख योनियों में भटक रहे हैं और निरंतर कष्ट पा रहे । जबकि जीव प्रत्येक क्षण सुख को पाने के लिए हीं प्रयत्नशील है लेकिन प्रयत्न माया कि दिशा में कर रहा है जीव । यही कारण है जीव अपने वास्तविक लक्ष्य से दुर है और सुख पाने के जगह दुख पा रहा है ।
अत: प्रत्येक जीवात्मा का मात्र एक ही लक्ष्य है कि वो उस दिव्य प्रकाश स्वरूप, आनंद स्वरूप अपने सनातन अंशी भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त करले, उनकी दासी माया कि दासता से मुक्त होकर भगवान के सन्मुख हो जाए जिससे हमें सदा के लिए आनंद मिल जाए , सुख मिल जाए ।
यही एक मात्र हमारा धर्म है, कर्म है, और मजहब है । वांकी सभी कर्म-धर्म, संप्रदाय , जाति गोत्र, मजहब, भाषा, वर्ण आदि संसार में मायिक तथा बंधन कारक है, भ्रमित करने वाले हैं, उलझाने वाले हैं , जो प्रत्येक जीव को चौरासी लाख योनियों में घुमाता है कष्ट प्रदायक है जबतक जीव भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त न कर ले तबतक ।
ये संसार में जितने भी कर्म , धर्म , संप्रदाय , मजहब , जाति-पांति , भाषा, वर्ण, गोत्र, प्रांत , देश , काल आदि है वो केवल देह संबंधी हीं है और आवागमन के चक्कर में जीवात्मा को उलझाकर रखने वाला जंजीर है ।
जब तक जीव इन भ्रमित करने वाले बंधनों में बंधा रहेगा , आवागमन के चक्र में उलझा रहेगा तब तक वो अनेकों प्रकार के शरीर में जन्म लेता रहेगा , मरता रहेगा और हर जन्म में अलग अलग देश , प्रांत , गोत्र , जाति , वर्ण , भाषा, धर्म , मजहव संप्रदाय ही नहीं वल्कि अनेकों नये नये जीव को अपना मां-बाप बेटा-बेटी, पति-पत्नी, बहन-भाई संबंध आदि बनाता रहेगा तथा अनेकों भ्रमित करने वाले मजहब, संप्रदाय , कर्म-धर्म में उलझा रहेगा एवं दुख पाता रहेगा । उसे इन बंधनों से मुक्ति कभी नहीं मिल सकती है ।
जबतक जीव इन उलझनों में उलझा रहेगा वो संसार में चौरासी लाख यौनियों के जीवन चक्र के आवागमन के चक्कर में फंसा रहेगा इसलिए अतृत रहेगा , अशांत रहेगा और हमेशा दुखी रहेगा । उसे कभी असली सुख और आनंद की न तो प्राप्ति होगी और न इन चौरासी लाख योनियों के बंधन से कभी छुटकारा मिलेगा ।
भगवान किसी भी जीवात्मा पर तरस खाकर अपने अकारण करुण स्वभाव वश अपनी कृपा शक्ति से मानव शरीर कभी कभी दे देते हैं ताकि जीव इस बात को समझें, इस सुअवसर का लाभ उठाकर किसी वास्तविक महापुरुष का शरण ग्रहण करके उनके द्वारा वतलाए गए मार्ग का अनुसरण करके भगवान को प्राप्त करलें जिससे वो इन आवागमन के चक्कर से मुक्त होकर सदा के लिए उनके लोक में परम आनंद को प्राप्त कर लें । इसलिए संभल जाओ और याद रखो कि एक मात्र मानव शरीर से हीं जीव भगवान को प्राप्त कर सकता है , इतना दुर्लभ है यह शरीर । दुसरे किसी भी देह में जीव भगवान को प्राप्त करने का पुरूषार्थ नहीं कर सकता । इसलिए मानव शरीर पाकर भी भगवान को प्राप्त न करना भगवान द्वारा प्रदत सुअवसर को खो देना है जो बड़ा घोर लापरवाही है ।
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