वेदों की उद्दालक की कहानियाँ ।
*आप लोगों ने वेदों की उद्दालक आदि की कहानियाँ सुनी होंगी। एक गुरु जी ने कई शिष्यों को भेजा, गुरु जी का खेत था। खेती-बाड़ी का काम था। कई शिष्यों को भेजा कि बहुत अधिक पानी बरस रहा है, पानी मेंड़ को तोड़ कर बह रहा होगा, जाकर बाँध आओ तुम लोग। उसमें धान बोना है। शिष्य बारी-बारी से गये किंतु इतना तेज प्रवाह था कि जब मेंड़ पर मिट्टी डालें तो मिट्टी पानी के साथ बह जाय। सब शिष्य लौट आये। एक शिष्य अपढ़ गँवार था। शास्त्र वेद के ज्ञान से पूर्णत: अनभिज्ञ था। जीरो था। केवल गुरु जी के शरणागत था। अंत में गुरु जी ने उससे कहा, बेटा देख! कोई मेंड़ बाँध नहीं पा रहा है। तू जाकर देख। पानी बह जायगा तो धान कैसे बोया जायगा, फिर तुम लोग क्या खाओगे। वह गया, उसने भी उस बहती हुई धार में मिट्टी रखी, लेकिन मिट्टी बह गयी। बेचारा बड़ा परेशान। उसने सोचा कि गुरु जी की आज्ञा है, पानी बहने न पाये। वह मिट्टी की जगह पर स्वयं लेट गया। मैं लेटा रहूँगा तो पानी बहने न पायेगा। इसलिये वह सारी रात लेटा रहा। प्रातः काल वही गुरु जी की सेवा करता था।*
*गुरु जी ने कहा, वह नहीं आया, कहाँ गया? शिष्यों ने कहा, गुरु जी, वह कल पानी बाँधने गया था, उसके बाद लौटा नहीं। सुबह चार बजे अँधेरा था तभी गुरु जी गये। देखा, कहीं दिखाई नहीं पड़ा। शिष्यजन भी साथ में थे। आवाज दी। वह लेटे लेटे ही बोला, गुरु जी! मैं यहाँ हूँ। अगर आपकी आज्ञा हो तो आ जाऊँ, लेकिन पानी बह जायगा। गुरु जी उसके पास तक गये। रात भर में सर्दी के कारण उसका शरीर अकड़ गया था। गुरु जी की आँखों में आँसू भर आये। गुरु जी ने उसे उठाकर कण्ठ से लगाया, हृदय से लगाया, सिर पर हाथ रखा। सारे शास्त्र वेदों का ज्ञान एक क्षण में उसे हो गया। वाल्मीकि की शरणागति भी इसी प्रकार की थी।*
*आजकल और प्राचीन काल में भी संतों ने हम लोगों को समझाया कि भगवान् क्या है, जीव क्या है, माया क्या है, शरणागति क्या है, अनेक प्रकार से सिरफोड़ी की लेकिन फिर भी हम लोग आगे नहीं बढ़े और शरणागत नहीं हुए। किंतु वह घोर मूर्ख, निरक्षर भट्टाचार्य, राक्षसकर्मा व्याध वाल्मीकि ने इतना बड़ा विश्वास कर लिया कि 'मरा मरा कहते रहना जब तक मैं लौटकर न आऊँ।' गुरु वाक्य के विरुद्ध उसने बुद्धि का प्रयोग नहीं किया। इसलिये उसको गलत ढंग से नहीं लेना चाहिए कि उलटा नाम ले लिया और महर्षि हो गया, महात्मा हो गया। अजामिल के विषय में भी मैंने आपको बता दिया कि उसने भी श्रीकृष्ण भक्ति करके ही भगवद्धाम प्राप्त किया।*
*अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।* *देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥*
(गीता ७-२३)
*भगवान् का सीधा सा कानून है, उनका चैलेंज है-*
*यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।*
*भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥* (गीता ९-२५)
*जिसका जिससे प्यार होगा, आसक्ति होगी, वह उसी को प्राप्त होगा। जड़ भरत सरीखे परमहंस का भी एक हिरणी शावक से प्यार हो गया। मृत्युकाल में मृग का स्मरण उसे रहा तो उसको मृग बनना पड़ा। जब बड़े-बड़े परमहंसों की यह दशा है तब जनसाधारण यह सोचे कि अभी क्या करना है। मरते समय राम कह लेंगे तो काम बन जायगा - यह तुम्हारे हाथ में नहीं है कि तुम कह दोगे। और कहना वहना भी कुछ महत्व नहीं रखता। महत्व है स्मरण का। बंधन और मोक्ष का कारण मन है । वाणी हो न हो, मन का लगाव होना चाहिए। गूँगे भी भगवत्प्राप्ति करते हैं, बधिर भी भगवत्प्राप्ति करते हैं। सूरदास ने भी भगवत्प्राप्ति की । इन बहिरंग इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है, केवल मन की आवश्यकता है।*
ध्रुवानुस्मृति ।
*द्रुतस्य भगवद्धर्माद् धारावाहिकतां गता।*
*सर्वेशे मनसो वृत्तिर्भक्तिरित्यभिधीयते॥*
(भक्ति रसायन में मधुसूदन सरस्वती)
*तैलधारावदविच्छिन्न भगवत्स्मरण मन से होगा। और जब पूर्ण प्रपन्न हो जायगा तब भगवत्कृपा से उसको भगवत्प्राप्ति होगी, तब मायानिवृत्ति होगी, तब भगवद्धाम की प्राप्ति की कल्पना करो, इसके पूर्व नहीं।*
*तो दुर्दैवमीदृशमिहाजनिनानुराग:- गौरांग महाप्रभु ने बड़ी चालाकी से लिखा। 'नानुरागः' लिख दिया उसके आगे। हमारा अनुराग नहीं हुआ। अनुराग अर्थात् मन का पूर्ण एकत्व हो जाय, वह अनुराग कहलाता है। नाम में नामी रहता है, यह शत प्रतिशत तुमको विश्वास हो, तब नाम में हम नामी का अध्याहार मानें, तब नामी से अनुराग हो । अन्तिम परिणाम वहीं पहुँचेगा। नाम में अनुराग। बिना अनुराग के काम नहीं बनेगा। इसलिये संकीर्तन करने वालों के लिए गौरांग महाप्रभु ने सबसे पहला आदेश दिया-*
*तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना।*
*अमानिना मानदेन, कीर्तनीयः सदा हरिः॥*
(गौरांग महाप्रभु)
*तृण से बढ़कर दीनभाव रखो, वृक्ष से बढ़कर सहिष्णुभाव रखो, सबको मान दो, स्वयं मान न चाहो। आजकल अनेक लोग ऐसे दीनता और त्याग का अभिनय करने वाले हैं कि बाहर जा जाकर लोगों की निंदा करते हैं, वह त्यागी नहीं है, वैरागी नहीं है, वैसा नहीं है, और मैं त्यागी हूँ। ऐसा न हो। कैसा हो?*
*सबहिं मानप्रद आपु अमानी।*
*सबको मान दो, स्वयं मान न चाहो, ऐसा होता है दीन।*
और
*नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा।*
*पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नामग्रहणे भविष्यति॥*
*गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि भगवन्नाम लेने में ये सब बातें होनी चाहिये। वेदव्यास कह रहे हैं-*
*तदश्मसारं हृदयं बतेदं यद् गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः।*
*न विक्रियेताथ यदा विकारो नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः॥*
(भाग. २-३-२४)
*भगवन्नाम लेते समय यदि आँखों से आँसू न निकले, सात्त्विक भावों का उद्रेक नहीं हुआ तो तुमने भगवन्नाम ही नहीं लिया। तुमने यह नहीं माना कि नाम में भगवान् की सारी शक्तियाँ हैं। इसलिये ऐसे हृदय के लिये कहा-'अश्मसारम्', वह वज्र का हृदय है। ऐसे हृदय के लिये तुलसीदास ने झुंझला कर कहा-*
*हिय फाटहु फूटहु नयन, जरहु सो तन केहि काम।*
*द्रव स्रवइ पुलकइ नहीं, तुलसी सुमिरत राम॥*
*गद्गद गिरा नयन बह नीरा।*
(रामायण)
*हम यह मान लें कि जिस भगवान् के नाम में भगवान् बैठा है, वह नाम मैं ले रहा हूँ।*
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