मां श्री महाराज जी ने कहा है सेवा हीं साधना है, वल्कि साधना से बड़ी सेवा है । जब श्री महाराज जी को हमेशा साथ मानेंगे और सेवा करेंगे तो साधना कि कोई आवश्यकता नहीं है। इस पर जरा प्रकाश डालें ।।
मोस्ट इंपोर्टेंंट प्रश्न :- मां श्री महाराज जी ने कहा है सेवा हीं साधना है, वल्कि साधना से बड़ी सेवा है । जब श्री महाराज जी को हमेशा साथ मानेंगे और सेवा करेंगे तो साधना कि कोई आवश्यकता नहीं है। इस पर जरा प्रकाश डालें ।।
पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी :-
श्री महाराज जी के तत्वज्ञान को , सिद्धांतों को पहले पुरा पुरा और ठीक से सुनो , पढ़ो और समझो ।
सेवा तीन प्रकार की होती है ।
एक - तन + मन से सेवा ,
दुसरा- धन + मन से सेवा
तीसरा - तन + मन + धन तीनों से सेवा
और किसी के पास न तन है और न धन है तो मन तो सबके पास है , और मन सबसे अधिक इंपोर्टेंट हैं । लेकिन मन से सेवा तो वहीं कर सकता है जो अपने मन पर विजय हासिल कर लिया है , जिसे सिद्धि मिल चुकी हो , और वो अपने मन को हरिगुरू में लगा चुका हो , वशीभूत मन को हीं हरि गुरू में लगा देने पर जीव का उनसे प्रेम वास्तव में हो जाता है । उसके पहले सब मन के छलावे का शिकार है । हमारा मन उनमें लग गया ऐसा भ्रम होना निश्चित है । अरे पहले मन पर तो विजय हासिल करो और यह बिना साधना के होगा नहीं । हां झूठा अहंकार जरूर हो जाएगा कि हमारा मन लग चुका है । यह खतरनाक स्थिति है ।
जबतक जीव का मन पर कंट्रोल नहीं हो जाएगा , जीव मन पर विजय नहीं प्राप्त कर लेगा वो मन से सेवा कर हीं नहीं सकता, असंभव ।
मन इधर उधर भागेगा , भटकेगा , छल प्रपंच करेगा खुद से हीं ।
बड़े बड़े सिद्ध महात्मा मन पर कंट्रोल नहीं कर पाते हैं बिना साधना के ।
अर्जुन सरीखे महापुरूष कह रहा है भगवान से :-
चज्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।34।। - गीता
हे कृष्ण मन को कंट्रोल करना हवा के रूख को मोड़ने जैसा अति दुष्कर कार्य है , मन पर कंट्रोल कैसे हो कि इसको आपमें लगा दूं ?
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं :-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || 35|| - गीता
हां अर्जुन मन बहुत बलशाली है अपने बल से इस पर विजय प्राप्त करना , इसको कंट्रोल करना अत्यंत दुष्कर कार्य है लेकिन साधना यानि अभ्यास के द्वारा इस पर विजय प्राप्त किया जा सकता है और जब विजय प्राप्त हो जाए तब इसको जिस कार्य में लगाना चाहो लगा सकते हो । और अगर मन कंट्रोल में नहीं है तो मन जो चाहेगा वही कार्य आप करेंगें , मन आपसे करवाएगा लेकिन आपको लगेगा कि हम कर रहे हैं , यह भ्रम होगा ।
मन पर विजय प्राप्त करने के लिए साधना की अति आवश्यकता है । मन को टिकाने के लिए जगह चाहिए, एक सामान चाहिए, वो सामान है भगवान और गुरू । भगवान के , गुरू के रूप का ध्यान करना ही वो अभ्यास है जिस बल से मन पर कंट्रोल किया जा सकता है , अन्यथा अपने बल पर असंभव है । श्री महाराज जी ने इसीलिए एकांत में रूपध्यान साधना को कंपल्सरी बताया है ।
एकांत साधना के द्वारा मन को बार बार हरि गुरू में लगाना हीं अभ्यास है और इसी अभ्यास को साधना कहते हैं ।
जब मन लगने लग जाए हरि गुरू में तो इसी को सिद्धि कहते हैं ।
अब जब मन लग गया हरि गुरू में साधना रूपी अभ्यास करते करते तो मन वश में आ गया ।
मन वश में आ गया तब जीव इससे जो कार्य करवाना चाहे करवा सकता है । अब इसे हरि गुरू में लगा देने पर यह हर वक्त प्रत्यक्ष अनुभव होगा कि हरि गुरू हमारे साथ है और वो सब देख रहे हैं सुन रहे हैं और नोट कर रहे हैं ।
और जब मन अनुभव करने लगेगा , तो उनसे वास्तविक प्रेम हो जाएगा । जब उनसे प्रेम हो जाएगा तब जीव कभी गलत बात न सोंच सकता , न कर सकता है और न वोल सकता है , मनसा, वाचा, कर्मणा उसके अधीन हो चुका ।
अब एक सेकेंड को भी वो गलत न सोंच सकता है और न वोल सकता है न गलत कर सकता है कभी । क्योंकि सिद्धि मिल गई ।
अब वो गुरू का तन से या धन से सेवा करें न करें मन से सेवा कर सकता है ।
ऐसी हीं सेवा के बाद साधना कि कोई आवश्यकता नहीं है ।
ऐसा विश्वास हो जाने पर हमेशा उनका चिंतन मन में अपने आप चलने लगता है , दिव्य ज्ञान के प्रकाश से मन प्रकाशित और प्रफुल्लित रहने लगता है । फिर उसे साधना कि कोई आवश्यकता नहीं । मिल गईं सिद्धि उसे । अब मन लगने लगा उसका ।
लेकिन जब तक मन पर विजय प्राप्त नहीं होगा एकांत साधना कंपल्सरी है । वो ऐसा भ्रम में मत रहो कि मैं तो खुब तन से या धन से या तन मन धन तीनों से सेवा करता हुं साधना कि जरूरत नहीं है हमें ।
बिना मन पर विजय प्राप्त किए ऐसा फिलिंग हो जाना की मैं तो बड़ी सेवा करता हुं साधना कि जरूरत नहीं सिर्फ अहंकार है अज्ञानता है , भ्रम है ।
आप पहले साईकिल चलाना सीखते हैं मैदान में जहां भीड़ भाड़ नहीं है , यानि एकांत है , आप ऐसी जगह पर अभ्यास करते हैं , जब साईकिल चलाने पर फुल कमांड हो जाता है तो उस साइकल से काम करने जाते हैं व्यस्त सड़क से , सेवा में उपयोग करते हैं इसका । अब साईकिल चलाने के प्रैक्टीस करने कि आवश्यकता नहीं है ।अब साईकिल चलाने कि सिद्धि मिल चुकी आपको । उससे पहले अगर साहस करेंगे तो गिरेंगे निश्चित, दुर्घटना निश्चित हैं । उसी प्रकार मन को कंट्रोल करने के लिए एकांत साधना परमावश्यक है ।
मन जब तक वश में नहीं होगा कोई भी साधन करने से सेवा करने से सेवा का अहंकार होना निश्चित है ।
असली चीज तो मन है मन , और इसी मन पर विजय पाना है हमें , तब सेवा करने से अहंकार नहीं होगा । और ऐसी अंहकार रहित सेवा करने पर साधना कि कोई आवश्यकता नहीं । ऐसी हीं सेवा के लिए श्री महाराज जी ने कहा है कि साधना से बड़ी है सेवा ।
अत: श्री महाराज जी के तत्वज्ञान के अर्थ का अनर्थ न समझे, नहीं तो कोई लाभ नहीं होगा जीवन भर ।
मन बड़े बड़े योगी मुनि के वश में नहीं आता बिना साधना के तो हम लोग तो साधारण जीव है । हमारे लिए रूपध्यान कंपल्सरी बतलाया है श्री महाराज जी ने ।
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