मद दो प्रकार का होता है , एक संसार का मद् , दुसरा शौभग मद् ।।ये दोनों अपने अपने एरिया में असफलता का प्रमुख कारण है ।

पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी:- 
मद दो प्रकार का होता है , एक संसार का मद् , दुसरा शौभग मद् ।।
ये दोनों अपने अपने एरिया में असफलता का प्रमुख कारण है । 
संसार में जीव को अपने संसारिक समृद्धि का अहंकार हो जाता है, जैसे पद् प्रतिष्ठा का मद् , शोहरत का मद् , जन का मद् , संबंध का मद् ( हमारी तो जान पहचान बड़े बड़े मिनिष्टर आदि से है , हमारा तो भाई मिनिष्टर है , कलक्टर है आदि आदि ) भौतिक ज्ञान का मद् , अपने सामर्थ्य का मद् , आदि । 

और दुसरा है शौभग मद् यह बड़ा खतरनाक मद् है यह भगवद् एरिया में हो जाता है लोगों को । जैसे हरि गुरू के सेवा का मद् - हम तो बहुत सेवा करते हैं हरि गुरू का , हम उनके साथ रहे वर्षो , उनकी सेवा किए हैं , कर रहे हैं। 
दान का मद् हम हरि गुरू के निमित्त खुब दान किए हैं ‌दान करते हैं आदि ।
ज्ञान का मद् - हम तो तत्वज्ञान सबसे अधिक जानते हैं , हमारे जैसा कोई नहीं , हम सबकुछ जानते हैं , हम तो बहुत सीनियर साधक है , तुम तो आज आए हो । 

संबंध का मद् :- गुरू से तो हमारी नजदीकी रिस्ता है, वो हमारे संबंधी है । हमारे गांव का है, हमारे घर का है । हमारा तो घर उनके बगल में है, हम तो हर रोज उनसे बातें करते थे , उनकी सेवा करते हैं । वो प्रायः हमारे घर आते जाते है । 
हम तो वृंदावन वासी हैं , बरसाना बासी है । गुरूधाम वासी हैं ।
हम तो हरेक दिन वांकेविहारी जी के मंदिर जाते हैं , पुजा पाठ करते हैं । यज्ञ, हवन करते हैं , कोई तीर्थ ऐसा नहीं है जहां मैं नहीं गया है । हम बहुत जप तप उपवास करते हैं । हम भगवान के बहुत बड़े भक्त हैं, पुजारी हैं । गुरू के बहुत बड़े भक्त हैं हम ।

हम तो हर साल मंदिर में दुर्गा जी को कीमती चुनरी चढ़ाते हैं , बजरंगवली को सवा मन लड्डू का भोग लगाते हैं । दान करते हैं , सैकड़ों ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, दक्षिणा देते हैं । हर साल गरीबों को , अनाथों को वस्त्र , रूप्या पैसा दान करते हैं हमारे जैसा कोई दानी नहीं है । 
तो यह सब शौभग मद् कहलाता है 
यह मद पतन का प्रमुख कारण है । इन मदों से सब किया हुआ जीरो हो जाता है ।
सौभग मद तो इतना खतरनाक माना गया शास्त्रों में कि इसमें पर कर साधक का घोर पतन हो जाता है और उसे पता भी नहीं चलता । 

अत: श्री महाराज जी के द्वारा हमें साधना करने पर विशेष रूप बल दिया गया है ।‌
स्वयं को दीन , सब विधि पतित मान कर , रो रो कर हरि गुरू को जो जीव रूपध्यान युक्त होकर जब पुकारता है तो उस जीव का ह्रदय पिघलता है । ह्रदय पिघलने से अंत:करण कि गंदगी साफ होती है । जीव खुद को निराश्रय मान कर , हरि और गुरू की शरणागति स्वीकार करते हुए उनसे याचना करता है रो रो कर कि हे महाप्रभु, हे गुरूदेव हम आपके शरण में है , हम अति दीन है, पतित है , निराश्रय है , बल हीन है , अल्पज्ञ है , सब विधि अनाथ है । हे नाथ आप मुझे अपनाकर हमारा संबल बनिये , मुझ पर कृपा करिए । इस जग में आपके सीवा मेरा कोई नहीं । यह तन भी मेरा नहीं तो यह संसार , ये संसारिक धन दौलत , नाते रिश्तेदार हमारा कैसे ? यह सब छूटने वाले हैं कब छूट जाए पता नहीं । हम आपको क्या दे सकते हैं भला ? सब तो आपका हीं है , आपके कृपा से, आपका हीं आपको समर्पित कर रहे हैं । मेरी क्या औकात है भला जो मैं आपकी सेवा कर सकूं । ये तो आपकी कृपा है जो मुझे आपके चरण शरण में खींच लाई है । 
हे पतित पावन श्री कृष्ण तुम अपने विरद की ओर देख कर हमको अपना लो , हे अकारण करूण पतित पावन श्री कृष्ण तुम अपनी अहऐतू कि कृपा से हमको अपना लो । 
हे दीनानाथ मुझसा भिखाड़ी कोई नहीं इस जग में । हे करूणा सागर अब बहुत देर हो चुका, हे गुरू देव अब देर न करो । न जाने कब प्राण तन का साथ छोड़ दें । 
हे जीवन धन आप हीं हमारे एक मात्र धन है । इस अनाथ को हे गुरूदेव अपना कर सदा के लिए सनाथ बना दो । हम आपकी शरण में हैं । हे गुरू देव अपने को समर्थवान मानने वाले बड़े बड़े धनवान, गुणवान, ज्ञानवान , रूपवान लोग इस दुनियां से चले गए , अपने हीं पुत्रों के द्वारा लठ्ठ खा कर चिता में ।  
और हम तो अति दीन है । 
इस प्रकार जब जीव रूपध्यान साधना के समय रो रो कर स्वयं को निराबलंब मान कर उनको पुकारता है , तो आंसूओं का सैलाव उमरता है साधकों के आंखों में , इन आंसूओं के ताप से ह्रदय पिघलता है , रो रो कर उनको पुकारने से जीव का पंचकोष भष्म होता है जिससे अंत:करण शूद्ध होता है । फिर उस पर किसी प्रकार का अहंकार हावी नहीं होता । 
और भगवान गुरू उसे अपना लेते हैं उसकी रक्षा करते हैं उसका योगक्षेम वहन करते हैं , उसे भवगद् एरिया में आगे बढ़ने के लिए अपना बल , अपना ज्ञान, अपनी बुद्धि प्रदान करते हैं । जीव बहुत तेजी से आगे बढ़ता है । 
तो बिना साधना के सेवा या दान कभी सार्थक नहीं होता उल्टा इसका अहंकार हावी हो जाता है । :- पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी के प्रवचन से ।

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