भक्ति का सबसे प्रमुख तथा अनिवार्य शर्त है शरणागति यानि आत्मसमर्पण हैं ।

साधकों के लिए एक मात्र यही बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। 
श्री महाराज जी :- भक्ति का सबसे प्रमुख तथा अनिवार्य शर्त है शरणागति यानि आत्मसमर्पण हैं ।
भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग पुरा करना शिष्य के लिए अति महत्वपूर्ण है :- 
 
1.अनुकूलस्य संकल्प: : - हरि-गुरू के अनुकूल बने रहना । यानि प्रत्येक क्षण उनके इच्छा में हीं इच्छा रखना । गुरू के उपदेशों व आदेशों को, बिना किन्तु परन्तु के अक्षरस: पालन करना शिष्य का परम कर्तव्य है ।

2.प्रतिकूलस्य वर्जनम् : - हरि-गुरू के सिद्धांतों के विपरित सिद्धांतों से स्वयं की रक्षा करना । शिष्य अनन्यता का पुर्ण रूपेण पालन करे , केवल भगवद् एरिया में हीं मन को लगाए तथा कुसंग से दुर रहे , ( बहिरंग और अंतरंग दोनों प्रकार के कुसंग से बचना, बहिरंग यानि विषई जनों से दुरी और अंतरंग यानि अपने मन में उठे गलत भाव को तुरंत समाप्त कर देना )।

3.रक्षिष्यतीति विश्वास: : - हरि-गुरू प्रत्येक क्षण हमारी रक्षा कर रहें हैं और करेंगे यह विश्वास पुर्ण रूप से दृढ़ हो शिष्य के मन में ।
हरि-गुरू को रक्षक निरीक्षक के रूप में हर समय मानना । हरि गुरू हीं एक मात्र हमारे रक्षक हैं , हम वास्तव में निर्बल जीव है और वे हीं हमारे रक्षक हैं, वे हीं इस समय रक्षा कर रहें हैं और आगे भी हर समय करेंगे हीं ।

4.गोप्तृत्व वरणम् : - शिष्य गुरू द्वारा दिया गया सिद्धांत ज्ञान और सिद्धांत युक्ति यानि सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने की कला दोनों अपना लें । गुरू कि बतलाई साधना , तथा सेवा करने को हमेशा आतुर रहे । 
शिष्य जो भी शुभातिशुभ कर्म करता हैं वो गुरू के बल द्वारा हीं करता हैं यह हमेशा रियलाईजेशन रहे अंतःकरण में ।  

5.आत्मनिक्षेप :- शिष्य अपने गुरू को, मन से आत्मसमर्पण , यानि आत्मदान , तन-मन- प्राण से समर्पित कर दे । गुरू हमारा सबकुछ है , शिष्य अपना तन मन प्राण बुद्धि और आत्मा सबकुछ अपने गुरू को समर्पित कर देता है । तब जाकर पुर्णरूप से गुरू के शरणवरण हो जाता है। 

6. कार्पव्यम् :- दैन्य भाव । भक्त सदा अपने को स्वभाविक तौर पे दीन माने , वो एक्टिंग में नहीं । । यानि - 
(तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। 
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।
 यानि स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक दीन मानकर तथा वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरे सभी साधकों तथा अपने गुरू के सेवकों को सदैव मान देकर एवं छल कपट , संसारी प्रपंच से दुर रहकर शिष्य को सदा ही निष्काम होकर श्री हरिनाम कीर्तन भजन रूपध्यान युक्त होकर तथा विनम्र भाव एवं दीन भाव से करना चाहिए।।)

जो जीव इन छ: शर्तें पुरा कर देता है उस पर गुरू कि अंतिम और सबसे बड़ी कृपा तुरंत हो जाती है ।। 
:- श्री महाराज जी ।

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