कृपालु भक्तियोग तत्त्वदर्शन सार

कृपालु भक्तियोग तत्त्वदर्शन सार
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१. भगवान, जीव एवं माया तीनों नित्य तत्त्व हैं , किन्तु जीव एवं माया का शासक भगवान हैं ।
२. जीव आनन्द ही चाहता है, क्योंकि वह आनन्द स्वरूप भगवान का सनातन अंश हैं ।
३. आनन्द अनन्त मात्रा का होता है एवं अनन्त काल का होता है ।
४. हम दो हमारे दो है ,हम दो का मतलव हमारी आत्मा और हमारा शरीर , तथा हमारे दो का मतलव हमारा ईष्ट और हमारा गुरू । जीव दिव्य एवं सनातन है अतः उसका लक्ष्य दिव्य भगवान हैं । शरीर पंच महाभूत का बना है अतः उसके लिए पंच महाभूत का संसार है ।
५. मानव शरीर दुर्लभ है इसी से परम लक्ष्य की प्राप्ति होगी किन्तु यह क्षणभंगुर है, अत: तत्काल साधना करनी होगी ।
६. वास्तविक कर्ता केवल मन है अतः मायिक मन को हीं साधना करनी होगी ।
७. भक्ति अनेक प्रकार की होती है लेकिन कर्ता केवल एक मन है ।
८. स्मरण भक्ति हीं सार है , मन से हरि-गुरू का स्मरण करना साधना है । 
९. मन से संसार की कामना बनाना हीं दुखों का मूल है ।
१०. संसारी वस्तुओं का त्याग वास्तविक त्याग नहीं वरण मन की आसक्ति का त्याग ही वास्तविक त्याग है ।
११. भगवत्प्राप्ति भगवत्कृपा से हीं संभव है ।
१२. भगवत्प्राप्ति के लिए अंत:करण शुद्ध करना होगा , यह कार्य वास्तविक गुरू द्वारा ही संभव है ।
१३ . हरि-गुरू की तन-मन-धन से निष्काम सेवा एवं उनमें निष्काम भाव से मन लगाना हीं साधना है ।
- श्री कृपालु जी महाराज ।

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