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Showing posts from July, 2023

जगन्नाथ पुरी केमहाप्रसाद का रहस्य , अवश्य जाने इस रहस्य को :-

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पुज्यनियां मां रासेश्वरी देवी जी से जाने जगन्नाथ पुरी के महाप्रसाद का रहस्य , अवश्य जाने इस रहस्य को :-  कलियुग में भगवान के चार सर्वाधिक प्रिय स्थान हैं- रामेश्वरम्, बद्रीनाथ, पुरी और द्वारिका। ये रामेश्वरम् में स्नान करते हैं तो बद्रीनाथ में ध्यान । पुरी में भोजन करते हैं तो द्वारिका में विश्राम। पुरी में भगवान द्वारा भोजन ग्रहण किए जाने के कारण मंदिर के प्रसाद का विशेष माहात्म्य है इसलिए यह प्रसाद नहीं, महाप्रसाद कहलाता है। 'श्री श्री चैतन्य चरितामृत' के अनुसार एक बार अरुणोदय के समय प्राप्त श्री जगन्नाथ जी का प्रसाद लेकर महाप्रभु जी सार्वभौम भट्टाचार्य के घर पहुँचे और उन्हें प्रसाद दिया भट्टाचार्य महोदय प्रभु के कर-कमलों से प्रसाद पाकर प्रसन्नता से अभिभूत हो गए और बिना शौचादि से निवृत्त हुए ही बासी मुँह से प्रसाद पाने लगे जिसे देखकर प्रभु के आनंद की सीमा न रही। वे कहने लगे कि आज मुझे सार्वभौम ने खरीद लिया। इतने भारी शास्त्रज्ञ और शौचाचार को जानने वाले सार्वभौम महाशय का जब महाप्रसाद में इतना अधिक दृढ़ विश्वास हो गया, तो मैं समझता हूँ कि इनसे बढ़कर कोई दूसरा भक्त होगा ही नहीं!...

ब्रह्मा ने सृष्टि के विकास के लिए दस मानस पुत्र उत्पन्न किए। इन्हें प्रजापति कहा गया। उनमें प्रथम है-मरीच। महर्षि कश्यप प्रजापति मरीच के पुत्र हैं ।

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श्री महाराज जी :- ब्रह्मा ने सृष्टि के विकास के लिए दस मानस पुत्र उत्पन्न किए। इन्हें प्रजापति कहा गया। उनमें प्रथम है-मरीच। महर्षि कश्यप प्रजापति मरीच के पुत्र हैं ।   महर्षि कश्यप समस्त जगत के पिता स्वरूप हैं। सारे प्रणियों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई है। इसलिए सभी जीव भाई-भाई हैं । महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियाँ थीं। दक्ष प्रजापति ने अपनी तेरह कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप के साथ किया। इन तेरह कन्याओं के नाम इस प्रकार है-अदिति, दिति दनु, काला, दनायु, सिंहिका, क्रोधा, प्राधा, इरा, विनिता, कपिला, मनु एवं कद्रु । इन तेरह पत्नियों से महर्षि की इतनी संतानें हुई कि उस समय रिक्त पड़ी यह पृथ्वी मानव, दानव, देव तथा नाना प्रकार के पशु-पक्षियों कीट पतंगों , वृक्षों एवं लता पताओं घास-फुस फुल आदि से भर गई। महर्षि कश्यप की प्रिय पत्नी अदिति से इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु, सूर्य आदि सभी देवता उत्पन्न हुए।  और दिति के दो पुत्र हिरण्याक्ष एवं हिरणकश्यप तथा एक पुत्री सिंहिका हुई। इन दोनों महान दैत्यों का वध करने हेतु भगवान ने दो बार अवतार लिया। दैत्य हिरण्याक्ष का वध करने के लिये वराह अवत...

एक महाशय का प्रश्न है कि कैसे जाने हम कहां है?हमारा कितना उत्थान या पतन हुआ है अपने आप कैसे जाने ?

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श्री महाराज जी के श्री मुख से ( हमारे लिए अति महत्वपूर्ण ) - एक महाशय का प्रश्न है कि कैसे जाने हम कहां है? हमारा कितना उत्थान या पतन हुआ है अपने आप कैसे जाने ? और ए सही है अपने आप कोई नही जान सकता ! इसलिय कि जिस मन में उचाई निचाई होती है उत्थान पतन होता है वो मन अपने खिलाप जजमेंट नही दे सकता | अर्थात हमारा मन गड़बड़ है और उसी मन से हम पुछ रहे है - क्यों , गड़बड़ है ? तो वो मन कहेगा नही कहां गड़बड़ है हम तो विल्कुल ठीक है| सो ए तो भगवान और महापुरुष ही जान सकता है कि कौन कहां है | लेकिन थोड़ा बहुत आइडिया फिलौसोफी के द्वारा हो सकता है | और वो होना भी चाहिए , सबको खुद को नापना चाहिए तो वो क्या है नपना ? " यावत् पापयैस्तु मलीनम् ह्रदयं ताव देव ही :" ब्रह्मवैवर्त पुराण मे कहा गया कि जिसका ह्रदय जितना पापयुक्त होता है वो उतना ही गंदी वाते सोचता है , सुनता है , और वोलता है | संसारी बाते , निदंनीय बाते , पाप की बाते सुनना, सोचना , वोलना , पहचान है कि हमारा मन कितना गंदा है | पहली बात तो हम दुसरे में दोष देखने की सोचते है । बस पक्का प्रमाण है कि हमारा मन पापयुक्त है हम अपने गं...

भक्त कौन ? जिसको भक्ति प्राप्त हो चुकी हो , भगवान का प्रेम प्राप्त हो चुका है अर्थात भगवत प्राप्ति हो चुकी हो , माया से सदा के लिए मुक्त हो गया हो , केवल वही भक्त हैं ।

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पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी :- भक्त कौन ? जिसको भक्ति प्राप्त हो चुकी हो , भगवान का प्रेम प्राप्त हो चुका है अर्थात भगवत प्राप्ति हो चुकी हो , माया से सदा के लिए मुक्त हो गया हो , केवल वही भक्त हैं । और अपने इन्हीं भगवद् प्राप्त भक्त के लिए भगवान ने कहा है कि उसका पतन कभी नहीं हो सकता :-  क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।। :- गीता ।   वांकी हम सभी अभी साधक है , भक्ति मार्ग का पथिक है , अभी भक्ति मिली नहीं है हमें , अभी हमारी माया नहीं गई है , अभी मायिक विकार काम , क्रोध , इर्ष्या, राग-द्वेष अहंकार मिटा नहीं है हमारा । भगवद् प्राप्ति से पहले कोई भी जीव माया को चाईलेंज नहीं कर सकता है । बहुत खतरा है । अत: साधक को बहुत सावधान रहने कि आवश्यकता है । नहीं तो एक क्षण का भी कुसंग साधक को पीछे धकेल सकता है । कमाया एक रूप्या और खर्चा दो रूप्या , स्वाभाविक है अगर ऐसे हीं हम पाने से अधिक खोते रहे तो पतन एक दिन निश्चित है ।  आप लोग अजामिल और सौभरि ऋषि मुनि के पतन कि कहानी सुने होंगे श्री महाराज जी से , अजामिल और सौभरि जै...

महापुरुष और भगवान् चोरी चोरी सेवा करते हैं अपने शरणागत की, बिना बताये और अगर वह पूछेगा तो भी कह देंगे नहीं-नहीं मैंने तो कुछ नहीं किया तुम्हारे लिये। वास्तविक महापुरूष आशिर्वाद का नाटक नहीं करता कभी , वो चुप चाप अंदर हीं अंदर कृपा करता हैं अपने शरणागत पर ।

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श्री महाराज जी :- महापुरुष और भगवान् चोरी चोरी सेवा करते हैं अपने शरणागत की, बिना बताये और अगर वह पूछेगा तो भी कह देंगे नहीं-नहीं मैंने तो कुछ नहीं किया तुम्हारे लिये।   वास्तविक महापुरूष आशिर्वाद का नाटक नहीं करता कभी , वो चुप चाप अंदर हीं अंदर कृपा करता हैं अपने शरणागत पर ।  महापुरूष और भगवान जानता है कि हमारे भक्त के लिए क्या कल्याणकारी है, जो कल्याणकारी है वही करता हैं वो उसके लिए ।  आजकल अधिकांश बाबा जी संसार में हाथ उठा कर आशीर्वाद देने का नाटक करते हैं । हाथ उठाया हरेक के सिर पर रख दिया ! यह सब दिखावा है , नाटक है नाटक । ऐसे आशिर्वाद का कोई लाभ नहीं । न उसमें कोई सामर्थ्य है ।  जिसमें सामर्थ्य है वो ऐसा नाटक नहीं करता कभी ।  वास्तविक महापुरूष दया का स्वरुप होता हैं वो कृपा के सिवा कुछ नहीं करता , वो एक नजर देख ले , या नजर फेर कर कृपा करदे , एक चाटा लगा दें या एक मुक्का लगा दें , कृपा है , या कुछ न करें , कोई रेसपोंस न दे उल्टा डांट दे, फटकार दे , किसी को चिपटा ले, किसी को ऐसे ( तिरछी आंख करके ) देख ले , समझना चाहिए सब कृपा है ।   शिष्य ...

प्रश्न :- मां एकांत साधना के लिए समय नहीं मिलता क्या करूं ?

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प्रश्न :- मां एकांत साधना के लिए समय नहीं मिलता क्या करूं ?  पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी :- आपको टाईम मिलता नहीं या टाईम निकालना नहीं चाहते ? टाईम तो पुरा है आपके पास, पर दुसरे में दोष देखने , गिनने , सुनने और सुनाने के लिए , टी भी देखने और नहीं तो सोने के लिए ।   संसार में भी जिसका जिससे प्रेम होता है वो उसके साथ कुछ समय बिताना पसंद करता है, चाहे वो संसारी मां-वाप हो या दोस्त हो ऐसे हीं अगर हरिगुरू से प्रेम वास्तव में होगा तो जीव कुछ समय एकांत का निकाल कर उनके साथ अवश्य बिताना चाहेगा । एकांत में उनका रूपध्यान करते हुए उनके हीं लिखे पदों से उनको पुकारना हीं तो साधना है , उनके साथ बात चित करना है ।  दरअसल आपका उनसे प्रेम नहीं है , केवल मुख का प्रेम है , मुख का श्रद्धा और विश्वास है । वास्तव में न उनसे प्रेम है और न उन पर विश्वास भीतर से , इसलिए बहुत से excuses है आपके पास , ऐसा नहीं है आपके पास साधना के लिए समय नहीं है । समय तो आपके पास अपने बेटा बेटी , पति पत्नी के लिए है , शारीरिक मां बाप के लिय है , इन रिस्तेदारो से आपका प्रेम है , भगवान से और गुरू से प्रेम नहीं ...

मां श्री महाराज जी ने कहा है सेवा हीं साधना है, वल्कि साधना से बड़ी सेवा है । जब श्री महाराज जी को हमेशा साथ मानेंगे और सेवा करेंगे तो साधना कि कोई आवश्यकता नहीं है। इस पर जरा प्रकाश डालें ।।

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मोस्ट इंपोर्टेंंट प्रश्न :- मां श्री महाराज जी ने कहा है सेवा हीं साधना है, वल्कि साधना से बड़ी सेवा है । जब श्री महाराज जी को हमेशा साथ मानेंगे और सेवा करेंगे तो साधना कि कोई आवश्यकता नहीं है। इस पर जरा प्रकाश डालें ।।  पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी :-  श्री महाराज जी के तत्वज्ञान को , सिद्धांतों को पहले पुरा पुरा और ठीक से सुनो , पढ़ो और समझो ।  सेवा तीन प्रकार की होती है ।  एक - तन + मन से सेवा ,  दुसरा- धन + मन से सेवा  तीसरा - तन + मन + धन तीनों से सेवा  और किसी के पास न तन है और न धन है तो मन तो सबके पास है , और मन सबसे अधिक इंपोर्टेंट हैं । लेकिन मन से सेवा तो वहीं कर सकता है जो अपने मन पर विजय हासिल कर लिया है , जिसे सिद्धि मिल चुकी हो , और वो अपने मन को हरिगुरू में लगा चुका हो , वशीभूत मन को हीं हरि गुरू में लगा देने पर जीव का उनसे प्रेम वास्तव में हो जाता है । उसके पहले सब मन के छलावे का शिकार है । हमारा मन उनमें लग गया ऐसा भ्रम होना निश्चित है । अरे पहले मन पर तो विजय हासिल करो और यह बिना साधना के होगा नहीं । हां झूठा अहंकार जरूर हो जाए...

हमारे गुरूदेव श्री महाराज जी के लिखे पद् को रूपध्यान युक्त होकर भावयुक्त ह्रदय से भजन शुरू करते हीं आध्यात्मिक ( दैविक ) , दैहिक तथा भौतिक तीनों तापों का समन एक झटके में हो जाता है । इतनी कृपा-शक्ति है उनके रूपध्यान युक्त पद को दिल से गाने में , निष्काम आर्त पुकार में ।

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हमारे गुरूदेव श्री महाराज जी के लिखे पद् को रूपध्यान युक्त होकर भावयुक्त ह्रदय से भजन शुरू करते हीं आध्यात्मिक ( दैविक ) , दैहिक तथा भौतिक तीनों तापों का समन एक झटके में हो जाता है । इतनी कृपा-शक्ति है उनके रूपध्यान युक्त पद को दिल से गाने में , निष्काम आर्त पुकार में ।  जिस दिन मैं अपने अत्यधिक कठीन दैनिक कर्म ( कठीन संसारिक वर्क लोड ) के बाद घर लौटता हुँ तथा अत्यधिक शारीरिक एवं मानसिक थकावट महसूस करता हुँ तो शाम में उनका रूपध्यान युक्त पद् संकीर्तन करने के बाद सारी थकावट पल भर में गायब हो जाती है । और बिना कहे वो हर प्रकार से रक्षा करते हुए दुसरे दिन पिछले दिन के अनसुलझे कठीन समस्या का हल हेतू प्रेरणा देकर ऐसे हल सूझा देते हैं जैसे असंभव सा लगने वाला एसाइनमेंट स्वत: सिद्ध हो गया हो ।  चाहे कैसा भी कठीन प्रश्न ( आध्यात्मिक या भौतिक ) हो वो हल सूझा हीं देते हैं , जरूरत है उनके रूप का गहन ध्यान ( उनके सिर से लेकर चरण रज तक का गहन ध्यान) करने कि तथा उन पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास की । और सबसे बड़ी बात कि उनके प्रेम का हर रोज उत्तरोत्तर एक नया आभास होता है । श्री महाराज जी इस ध...

****** सेवा कि योग्यता *******

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******* सेवा कि योग्यता ******* श्री महाराज जी :- सुकरात एक फिलॉसफर हुआ है, उसका शिष्य था डायोज़नीज़, उसके पास सिकन्दर बादशाह गया और उसने कहा महाराज! कुछ हमारे लिए सेवा बताइये। तो डायोजनीज ने कहा, हट! धूप छोड़ दे! सेवा करेगा यह। है क्या तेरे पास फटीचर दरिद्री ? तू क्या सेवा करेगा? मेरी सेवा करेगा? मेरी सेवा करना है तो दे स्प्रिचुअल हैपीनेस। है तेरे पास? नहीं वो तो नहीं है। फिर क्या सेवा करेगा तू? रसगुल्ला खिलायेगा मुझे ! इसके लिये मैं बाबा जी बना हूँ क्या ? अरे भाई कोई गरीब पैसा माँगने जाये तो उसको पैसा चाहिए। कोई बुद्धि माँगने जाय उसको ज्ञान चाहिए। हमको स्प्रिचुअल हैपीनेस चाहिए और तू दान करने का स्वांग रचकर के मेरे पास आया है। क्या देगा तू तो खुद भिखारी है !   तुम क्या सेवा करेगा भगवान का , गुरू का ?  सेवा के लिए योग्यता चाहिए, है वो योग्यता तुम्हारे पास ?  सेवा क्या होता है मालूम भी है तुमको ?  संसार में भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति यहां तक एक कलक्टर का भी चपरासी बनने के लिए अनेकों परीक्षा और इंटरव्यू होती है, योग्यता सिद्ध करनी पड़ती है , लाखों में किसी एक क...

दान का महत्व।

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प्रश्न :- महाराज जी कुछ लोग तो कोई दान नहीं करते हैं फिर भी लाखपति और करोड़पति हैं । उनको दान में कोई रूचि नहीं है ।  श्री महाराज जी :- हां आज बहुत से ऐसे लोग हैं जिनको दान में रूचि नहीं है , फिर भी धन है उनके पास ! लेकिन पिछले मानव जन्म में जरूर दान किया रहा होगा वो , चाहे मन से करें या बेमनी से, लेकिन किया रहा होगा उसने भगवान के निमित्त या किसी वास्तविक महापुरुष के निमित्त । किसी ने करवा दिया होगा आग्रह करके कुछ धन जैसे सोना चांदी, रूप्या, पैसा आदि , और बेमनी से कर दिया होगा वो , उसी का मिल रहा है उसको इस जन्म में ।  देखिये आप लोग मनगढ़ आए हैं साधना भवन में बैठें हैं । आपमें से कुछ लोग अन्य दोस्त या रिस्तेदार को पहली बार लाय हैं । इनमें से कुछ लोग जिज्ञासा बस आए हैं पहली बार और कुछ लोग तो हं हं ( हंसते हुए ) मेरी परीक्षा लेने आए हैं कि चलो देखते हैं कृपालु महाराज कौन है ?  अब यहां तो दान के लिए आग्रह किया जाता है आप सबसे आपहीं के कल्याण के लिए । तो कुछ लोग बेमनी से , आपहीं लोगों की देखा देखी लोक लाज से आकर दान के झोली में कुछ डाल देते हैं ।  और कुछ लोग आपहीं लोग...

भगवान और महापुरूष कृपा साध्य है । लेकिन कृपा कि शर्त है शरणागति ।

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 भगवान और महापुरूष कृपा साध्य है । लेकिन कृपा कि शर्त है शरणागति । और केवल महापुरुषों के चरण पर अपना सिर पटक देने से या मुख से बोलने से कि मैं आपके शरण में हूँ शरणागति नहीं होती । शरणागति के लिए पहले मन को शूद्ध करने कि जरूरत है । भगवान और महापुरूष दिव्य हैं ,‌ वो अशूद्ध मन से केवल मुख से बोल देने से इसे शरणागति नहीं मानते । मन को शूद्ध करना होगा पहले , और अंत: करण को शुद्ध करने के लिए साधना अवश्य करनी होगी ।  भगवान को निर्मल मन बुद्धि चित्त चाहिए।  और जीव का अंत:करण गंदा है , इसे शूद्ध करने के लिए श्रोत्रीय-ब्रह्मनिष्ठ महापुरूष को अपना गुरू बनाना हीं होगा और फिर उनकी बतलाई साधना करके अपने अंत:करण को शूद्ध करना होगा तभी वो कृपा साध्य भगवान , गुरू कृपा करेंगे ।  इसलिए इस धोखे में न रहे कि वो कृपा साध्य है अपने आप कभी न कभी कृपा कर हीं देंगे ।  न न ! अगर ऐसे हीं कृपा कर दें तो फिर सब पर कर देगें और फिर यह संसार कि जरूरत क्यों रहती , कृपा कर देते सब पर एक साथ , सब गोलोक चला जाता एक साथ, परमानंद हासिल कर लेता ।  तो ऐसा नहीं है । साधना तो करनी हीं...

संसार में अगर कोई भी मनुष्य यह समझता है कि मुझसे लोग खुश हैं , मुझसे लोग प्यार करते हैं तो यह एक कोरा भ्रम है ।

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श्री महाराज जी :- संसार में अगर कोई भी मनुष्य यह समझता है कि मुझसे लोग खुश हैं , मुझसे लोग प्यार करते हैं तो यह एक कोरा भ्रम है ।  अगर आपको लगता है कि यह भ्रम नहीं है आप भी एक बार आजमा कर देख लीजिए ।  किसी के मन खिलाफ कुछ बात बोल दीजिए , उसके मन के खिलाफ कोई काम करके देखिए , कैसे वो रियेक्ट करता है चाहे वो आपका पति हो ,‌ पत्नी‌ हो , बेटा हो, बेटी हो या कोई भी दोस्त, रिस्तेदार हो ! अप्रैल फुल लोग बनाते हैं न , सुबह सुबह एक के तकिए के निचे दुसरे स्त्री का लव लेटर रख दिया एक ने एक अप्रैल को , वो उसके पत्नी को मिल गया , फिर वो घमासान , प्यार खत्म ।  अरे कोई अप्रैल फुल बना दिया तुमको, आज एक अप्रैल है न । अरे हां आज तो एक अप्रैल है , मैं भी कितना बुद्धू बन गया । किसी ने सचमुच बदमाशी कि है , फिर विश्वास हुआ, तब जाकर मामला शांत हुआ ।  जिसको आप समझते हैं कि वो आपसे बहुत प्यार करता है , आप भी उसके मन के विपरित कोई काम झूठ मुठ का कर के एक बार देख लिजिए । आपको पता चल जाएगा कि वो आपसे कितना प्रेम करता है !  ये जो आपलोग आई लव यू बोलते हैं न वो सब एक धोखा है । झूठ है , आपका ...

स्त्री का पतिव्रता होना मन का बिषय है या सिर्फ तन का?

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स्त्री का पतिव्रता होना मन का बिषय है । श्री महाराज जी :- एक पतिव्रता स्त्री थी । वो ओखली में धान कूट रही थी । वहां उसकी एक सहेली खड़ी थी ।  उस स्त्री के पति ने उससे पानी मांगा ।  उसने मुसल को कहा कि ऐ मुसल अगर आज तक मैंने किसी भी दुसरे पुरूष को छुआ तक नहीं तुम ऐसे ही टंगे रहो मैं अभी अपने पति को पानी देकर आती हुं । वो मुसल हवा में टंगा रह गया ।  उसने अपने पति को पानी देकर वापस आई फिर हवा में टंगे उस मुसल को हाथ लगाया और फिर से धान को कुटने लगी । यह देख कर उसकी सहेली को बहुत आश्चर्य हुआ । उसने इसका रहस्य पुछा , उसने कहा वो एक पति व्रता स्त्री है अपने पति को छोड कर किसी अन्य पुरुष को छुआ तक नहीं इसलिए उसको ऐसा पावर मिल गया है कि वो जर बस्तूओं को भी जो आज्ञा दे तो उसे पालन करना परता है ।  उसकी सहेली यह सोंचते हुए अपने घर दौड़ते हुए लौटी कि उसे भी कोई पराया पुरूष आज तक छूआ नहीं है । उसमें भी यह पावर जरूर होगा लेकिन वो आज तक इस पावर का उपयोग नही किया , आज करेगी । वो घर गई अपने पति को बोली आज तुम हमारा पावर देखना आज मैं क्या बढ़िया चमत्कार दिखाती हुं ।  बस अभी मैं...

भगवान श्री कृष्ण और महर्षि दुर्वासा का लीला ब्रह्मचर्य तथा संन्यासी के बारे में तत्वज्ञान देने के लिए :-

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भगवान श्री कृष्ण और महर्षि दुर्वासा का लीला ब्रह्मचर्य तथा संन्यासी के बारे में तत्वज्ञान देने के लिए :-  एक बार गोपियां भगवान श्री कृष्ण के पास गई और उनसे बोलीं , हम गोपियां एक व्रत की हैं आज हमें एक बहुत बड़े ऋषि को भोजन जिमाना है , आप ही बतलाएं हम किनको जिमाए ? और कहां जिमाये ?  भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा - यमुना जी के उस पार मेरे गुरू महर्षि दुर्वासा हैं तुम सब जाकर उनको जिमा कर अपना व्रत तोड़ो ।  गोपियां युमना जी में आय भयानक बाढ़ के कारण उस पार नहीं जा सकी । वो भगवान श्री कृष्ण से उस पार जाने का उपाय पुछा ।  भगवान ने कहा जाओ जाकर कहो यमुना जी से कि अगर मैं आजीवन ब्रह्मचारी हुं तो वो तुम सभी को पानी के बीच से रास्ता दे दें । गोपियां सोंचने आपस में बातें करने लगी कि ये छलिया जो दिन रात हमारे पीछे पीछे भागता है वो ब्रह्मचारी ?   फिर भी गोपियां जाकर यमुना जी से कहा कि अगर हमारे प्रियतम श्री कृष्ण आजीवन ब्रह्मचारी है तो हमें उस पार जाने का रास्ता दे दों ।‌ यमुना ने झट से उन गोपियों के लिए रास्ता दे दें दिया ।‌ गोपियां आचार्य में । अब उस पार जाकर...

शबरी को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे, तब शबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी।

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शबरी को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे, तब शबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी। शबरी की उम्र दस वर्ष थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी। महर्षि शबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे। शबरी को समझाया "पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे, तुम यहीं प्रतीक्षा करो।" अबोध शबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा, उसने फिर पूछा- कब आएंगे..? महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे। वे भूत भविष्य सब जानते थे, वे ब्रह्मर्षि थे। महर्षि शबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए और शबरी को नमन किया।  आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए।ये उलट कैसे हुआ। गुरु यहां शिष्य को नमन करे, ये कैसे हुआ??? महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका। महर्षि मतंग बोले-  पुत्री अभी उनका जन्म नहीं हुआ। अभी दशरथ जी का लग्न भी नहीं हुआ। उनका कौशल्या से विवाह होगा।फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी।  फिर दशरथ जी का विवाह सुमित्रा से होगा।फिर प्रतीक्षा.. फिर उनका विवाह कैकई से होगा।फिर प्रतीक्षा..  फिर वो जन्म लेंगे, फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा।फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर...

भक्ति का सबसे प्रमुख तथा अनिवार्य शर्त है शरणागति यानि आत्मसमर्पण हैं ।

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साधकों के लिए एक मात्र यही बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।  श्री महाराज जी :- भक्ति का सबसे प्रमुख तथा अनिवार्य शर्त है शरणागति यानि आत्मसमर्पण हैं । भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग पुरा करना शिष्य के लिए अति महत्वपूर्ण है :-    1.अनुकूलस्य संकल्प: : - हरि-गुरू के अनुकूल बने रहना । यानि प्रत्येक क्षण उनके इच्छा में हीं इच्छा रखना । गुरू के उपदेशों व आदेशों को, बिना किन्तु परन्तु के अक्षरस: पालन करना शिष्य का परम कर्तव्य है । 2.प्रतिकूलस्य वर्जनम् : - हरि-गुरू के सिद्धांतों के विपरित सिद्धांतों से स्वयं की रक्षा करना । शिष्य अनन्यता का पुर्ण रूपेण पालन करे , केवल भगवद् एरिया में हीं मन को लगाए तथा कुसंग से दुर रहे , ( बहिरंग और अंतरंग दोनों प्रकार के कुसंग से बचना, बहिरंग यानि विषई जनों से दुरी और अंतरंग यानि अपने मन में उठे गलत भाव को तुरंत समाप्त कर देना )। 3.रक्षिष्यतीति विश्वास: : - हरि-गुरू प्रत्येक क्षण हमारी रक्षा कर रहें हैं और करेंगे यह विश्वास पुर्ण रूप से दृढ़ हो शिष्य के मन में । हरि-गुरू को रक्षक निरीक्षक के रूप में हर समय मानना । हरि गुरू हीं एक मात्र हमारे ...

बिना अंत:करण की शूद्धि के जीव जो भी काम भगवद् एरिया में भी करता है , उसी का अहंकार उसे होना निश्चित है स्वाभाविक तौर पे ।

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पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी :- बिना अंत:करण की शूद्धि के जीव जो भी काम भगवद् एरिया में भी करता है , उसी का अहंकार उसे होना निश्चित है स्वाभाविक तौर पे ।  सेवा का अहंकार - हम तो इतना सेवा किए हैं या करते आ रहे हैं, कर रहे हैं , आ गया अहंकार । उसी प्रकार दान का अहंकार - हमने इतना दान किया या हर साल करते हैं । हो गया अहंकार । अरे बहुत करोगे तो किसी के सामने मुख से नहीं बोलोगे लेकिन मन हीं मन सोचोगे तो जरूर न चाहते हुए भी कि हम तो इतना सेवा करते हैं, दान करते हैं । यह तो और भी खतरनाक है , अंदर हीं अंदर सूक्ष्म अहंकार पल रहा है फल फुल रहा है। यह सूक्ष्म अहंकार हमारे द्वारा किए गए सभी सेवा तथा दान को जीरो बट्टा सौ बराबर जीरो बनाता जा रहा है ।  इसलिए रूपध्यान साधना सबके लिए आवश्यक बतलाया गया है श्री महाराज जी द्वारा । साधना सबके लिए कंपल्सरी है भगवद् प्राप्ति तक । साधना करने के साथ साथ सेवा भी आवश्यक है । दान भी आवश्यक है , साधना होगी तो ह्रदय स्वाभाविक रूप से शूद्ध होगा , फिर सेवा का , दान आदि का अहंकार हावी नहीं होगा मनुष्य के मन पर ।  वर्णा बिना साधना के जीव जो भी करेगा ...

मद दो प्रकार का होता है , एक संसार का मद् , दुसरा शौभग मद् ।।ये दोनों अपने अपने एरिया में असफलता का प्रमुख कारण है ।

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पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी:-  मद दो प्रकार का होता है , एक संसार का मद् , दुसरा शौभग मद् ।। ये दोनों अपने अपने एरिया में असफलता का प्रमुख कारण है ।  संसार में जीव को अपने संसारिक समृद्धि का अहंकार हो जाता है, जैसे पद् प्रतिष्ठा का मद् , शोहरत का मद् , जन का मद् , संबंध का मद् ( हमारी तो जान पहचान बड़े बड़े मिनिष्टर आदि से है , हमारा तो भाई मिनिष्टर है , कलक्टर है आदि आदि ) भौतिक ज्ञान का मद् , अपने सामर्थ्य का मद् , आदि ।  और दुसरा है शौभग मद् यह बड़ा खतरनाक मद् है यह भगवद् एरिया में हो जाता है लोगों को । जैसे हरि गुरू के सेवा का मद् - हम तो बहुत सेवा करते हैं हरि गुरू का , हम उनके साथ रहे वर्षो , उनकी सेवा किए हैं , कर रहे हैं।  दान का मद् हम हरि गुरू के निमित्त खुब दान किए हैं ‌दान करते हैं आदि । ज्ञान का मद् - हम तो तत्वज्ञान सबसे अधिक जानते हैं , हमारे जैसा कोई नहीं , हम सबकुछ जानते हैं , हम तो बहुत सीनियर साधक है , तुम तो आज आए हो ।  संबंध का मद् :- गुरू से तो हमारी नजदीकी रिस्ता है, वो हमारे संबंधी है । हमारे गांव का है, हमारे घर का है । हमारा तो घर उनके...

किसी की निंदा करने का अधिकार केवल उसी को है जो स्वयं निंदनीय न हो।

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किसी की निंदा करने का अधिकार केवल उसी को है जो स्वयं निंदनीय न हो, जिसमें कोई बुराई न हो और जब तक भगवान को प्राप्त नहीं कर लेता जीव तब तक वो निंदनीय हीं है, सब तरह की बुराई उसमें भरा परा है, भले ही वो लोक लाज के डर से अपने बुराईयों को दबा के रखा है, विपरीत परिस्थितियों में जीव के भीतर की बुराई काम क्रोध लोभ घृणा राग द्वेष ईर्ष्या मद मोह मात्सर्य आदि बाहर प्रकट हो हीं जाती है। अत: सबको साधना करके अपने अपने अंत:करण को शूद्ध करना कंपल्सरी है ।  बिना साधना के अंत:करण शूद्ध नहीं हो सकता , और बिना अंत:करण शूद्धि के भगवद् प्राप्ति असंभव है , ये बात रट लो , रट लो यह बात। ये पुजा पाठ, जप तप व्रत तीर्थ उपवास यज्ञ हवन आदि ठीक ठीक करने से जीव के केवल इस जन्म के कुछ पापो का शमन तो हो सकता है लेकिन जीव अपने किए सारे पापों से मुक्त नहीं हो सकता , उपर से प्रत्येक जीव नित नया पाप कर रहा है , क्योंकि पाप करने की प्रवृत्ति सदा के लिए नष्ट नहीं हो सकती है बिना अंत:करण कि शूद्धि के ।   हरेक जीवों के पास उसके द्वारा अनंत जन्मों में किए गए अनंत पापों का भंडार उसके अंत:करण में भरा परा है, जो क...

दी गोल्डेन तत्वज्ञान औफ श्री कृपालु जी महाराज । :- बस तीन ही बस्तूऐ हैं पुरे ब्रह्मांड में , एक भगवान , दुसरा जीव , तीसरी माया , चौथा कुछ है हीं नहीं ।

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दी गोल्डेन तत्वज्ञान औफ श्री कृपालु जी महाराज । :- बस तीन ही बस्तूऐ हैं पुरे ब्रह्मांड में , एक भगवान , दुसरा जीव , तीसरी माया , चौथा कुछ है हीं नहीं ।  जीव तथा माया दोनों का अध्यक्ष ( गवर्नर ) एक मात्र भगवान श्री कृष्ण है । इसी प्रकार दो ही संप्रदाय हैं पुरे ब्रह्मांड में एक भगवान , दुसरी माया । तीसरा कोई संप्रदाय हैं हीं नहीं समुचे विश्व में । माया का ही स्वरूप ये संसार है जो नश्वर है बनने और बिगड़ने वाली है ।  भगवान, जीव तथा माया तीनों सनातन है, नित्य है, यह कभी मिटने वाली नहीं है । केवल माया का स्वरूप ये संसार हर क्षण बनने बिगड़ने तथा बदलने वाली है जबकि माया स्थाई और सनातन है । क्योंकि माया तथा जीव भगवान की हीं शक्ति हैं । इसे कोई कभी मिटा नहीं सकता , स्वयं भगवान भी नहीं । अब जीव को लिजिए तो हम आत्मा है, देह नहीं है, जीव का देह संसार का अंश है जो संसार के पंचमहाभूत तत्त्व से बना है तथा बनने एवं नष्ट होने वाला बस्तु है, लेकिन आत्मा सनातन है दिव्य हैं और हमारा अंशी एक मात्र भगवान श्री कृष्ण हैं । हम उन्ही दिव्य प्रकाश स्वरूप, आनंद स्वरूप भगवान श्री कृष्ण का दिव्य अंश ...

गोपी गीत और भगवान श्री कृष्ण महारास लीला में एक विशेष लीला के माध्यम से यह संदेश दिय है हम जीवों की शौभग मद् होने पर वे क्या करते हैं !

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भगवान श्री कृष्ण महारास लीला में एक विशेष लीला के माध्यम से यह संदेश दिय है हम जीवों की शौभग मद् होने पर वे क्या करते हैं ! जैसा कि आपलोग को कई बार बतलाया जा चुका है। भगवद् एरिया का मद् जिसे शौभग मद कहा गया भागवत् में वो कितना खतरनाक होता है ।  रास के बाद गोपियों को यही मद हो गया , शौभग मद । भगवान जब अनेक बन कर प्रत्येक गोपियों के साथ अलग अलग रास किए । तो गोपियों को अहंकार हो गया , कि भगवान श्री कृष्ण तो हमारे मुठ्ठी में हैं वो केवल मुझसे ही प्यार करते हैं , हम उनके खास है ।  फिर क्या था भगवान राधा रानी को साथ लेकर तत्काल अलक्षित हो गय महारास से । भगवान को मद विल्कूल पसंद नहीं चाहे वो संसार का अहंकार हो या भगवद् एरिया का मद् । भगवान मद को स्वीकार नहीं कर सकते हैं कभी , चाहे वो साधन सिद्ध जीव हो या नित्य सिद्ध ।  तो भगवान अलक्षित हो गय ।‌ अब भगवान को न पाकर गोपियों को अपने भुल का एहसास हुआ और‌ अपने गलती का पश्चाताप करते हुए करूण विलाप करने लगी । इस विलाप में जो गीत गोपियों के द्वारा गाया गया वो गोपी गीत के नाम से विख्यात है । जो इस प्रकार है :-  जयति तेऽधिकं जन्मना ...

अनन्यता का ठीक ठीक परिभाषा तथा संपूर्ण ज्ञान, पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी द्वारा

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अनन्यता का ठीक ठीक परिभाषा तथा संपूर्ण ज्ञान, पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी द्वारा :- भक्ति मार्ग के साधकों का पहला कर्तव्य है कि संसार से बहुत ज्यादा लगाव न रखें । हमारा लक्ष्य तो भगवान की प्राप्ति है !  हम सभी इस संसार में एक यात्री कि भांति आए हैं , हमारा लक्ष्य तो हरिगुरू के लोक में उनकी दिव्य सेवा ,उनका दिव्य प्रेम कि प्राप्ति है । इसलिए हमारे गुरूदेव का आदेश है घोर बिषई जनों से दुरी बना कर रखें ।  कुसंगी और कुसंग के मैटेरियल से दुर रहें ।  चाहे भगवद् पथ पर हमारी गति धीमी हो लेकिन कुसंग हमें बहुत पीछे धकेल देता है। इस प्रकार हम चलेंगे दो कदम और कुसंग के कारण धकेल दिए जाएंगे चार कदम पिछे की ओर तो जरा आप हीं सोंचिए हमारा हाल क्या होगा ? हम कहां पहुंचेंगे ?  संसार में हर किसी से दोस्ती बढ़ाना ठीक बात नहीं । अपने जीविकोपार्जन के लिए जितना आवश्यक हो बस उतना हीं संबंध रखे किसी से , उतना हीं व्यवहार करें संसार से । अधिक लेन देन ठीक नहीं ।  वांकि बिषय भोग में लिप्त तथा भगवद् बिषय में रूचि न रखने वाले लोगों से दुरी बना लें बिना कोई दुर्भावना के ।  दुसरी बात अ...

भगवान को सिर्फ अपनी आंखों से देखना भगवद् प्राप्ति नहीं है ,

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श्री कृपालु जी महाप्रभु :- भगवान को सिर्फ अपनी आंखों से देखना भगवद् प्राप्ति नहीं है , अरे देखा तो है उनको अनेकों बार हमलोगों ने ! लेकिन माना नहीं कि ये भगवान है । क्योंकि तत्वज्ञान नहीं था उस समय आपलोगों के पास । इसलिए उनको हमलोगों ने नहीं पहचाना ।  नरसिंह अवतार , रामावतार , कृष्णावतार, अनंत अवतार के समय भी हमलोग थे , भगवान के अनंत अवतार हुए हैं और हमारा भी अनेकों जन्म हो चुका है ।  हमलोग नृसिंह अवतार काल में भी जन्म लिए थे , रामावतार काल में भी हम थे , कृष्णावतार में भी हमलोग पैदा हुए थे , जन्म लिए थे , उनको देखा , उनको छूआ , उनसे बातें भी की हमने, लेकिन समझ नहीं पाय कि ये भगवान हैं । हां है कोई सिद्ध पुरुष, बहुत से बहुत महापुरूष हैं केवल ऐसा माना ।  क्योंकि तत्वज्ञान का आभाव था । इसलिए उनको पहचान नहीं पाए , उनको समझ नहीं पाय , उनको जान नहीं पाय ।  इसलिए तत्वज्ञान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ।   अत: तत्वज्ञान जिसको ठीक ठीक समझ में आ गया , अपने मस्तिष्क में बैठा लिया , उसे 99.9% भगवद् प्राप्ति हो चुकी । अब कभी यह शरीर छुट गया तो उसे फिर से मानव शरीर मिल जाएग...

चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा ॥

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चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥ नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा ॥ अहं त्वां शरणं प्रपद्ये ।।  अहं नित्यस: भजामी त्वयि ।। अहं सततम स्मरामी त्वयि ।। हे मेरे गुरूदेव आपकी देह चिदानन्दमय है। आपका देह प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट मायिक देह कदापि नही है, केवल अज्ञानता बस संसार में आम जनों को ऐसा दिखाई परता है कि आपका देह प्राकृत है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है , आपका देह उत्पत्ति और विनाश के विकारों से रहित है, क्योंकि आप साक्षात् अवतारी सच्चिदानंद भगवान श्री हरि हैं , इस रहस्य को जो लोग आपकी कृपा से अनुग्रहित हो समझ लिया हैं। वो सहज ही आपके वास्तविक स्वरूप को जान लिया है , मान लिया है तथा रियलाईज भी कर लिया है ।‌  आपने भगवान और संतों के कार्य के लिए दिव्य नर शरीर धारण किया है और प्राकृत प्रतीत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले शरीर ) शरीर में विराट महाराजा कि भांति हम पतितों के उद्धार के लिए इस धरा धाम पर आए हैं, हे श्री हरि , हे परम विराट पुरूष हमारे गुरूदेव हम आपके शरण में हैं । हम केवल आपका हीं ...

कुछ लोग धर्म कर्म तथा तत्वज्ञान जानते हुए भी भगवान कि ओर नहीं चलते और कुछ लोग किसी महापुरुष से थोड़ा सा जानते हीं तुरंत संसार से एवाऊट टर्न लेकर गुरू के शरणागत होकर भगवान के हो जाते हैं , क्या कारण है ?

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प्रश्न - कुछ लोग धर्म कर्म तथा तत्वज्ञान जानते हुए भी भगवान कि ओर नहीं चलते और कुछ लोग किसी महापुरुष से थोड़ा सा जानते हीं तुरंत संसार से एवाऊट टर्न लेकर गुरू के शरणागत होकर भगवान के हो जाते हैं , क्या कारण है ?  उत्तर :- इस बात को समझने के लिए दो सबसे बढ़िया उदाहरण है - एक अर्जुन का और दुसरा दुर्योधन । दोनो महत्त्वपूर्ण है इस बिषय को जानने ,‌ समझने के लिए । याद होगा सबको कि भगवान पांडवों के तरफ से शांतिदूत बन कर गए थे हस्तिनापुर में । धृतराष्ट्र के दरवार में दरवारियों कि सभा बैठी हुई थी ।  भगवान श्री कृष्ण दुर्योधन को समझा रहें हैं कि पांच गांव हीं दे दो पांडवों को सिर्फ। भगवान ने बहुत लौजिक दिया कर्म धर्म का भरी सभा में । पर दुर्योधन कहता है भगवान् को कि -  " जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।  केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि॥'  यानि मैं जानता हूँ कर्म-धर्म अच्छी तरह से लेकिन मेरी प्रवृत्ति इनमें नहीं है , मेरी रूचि इन बिषयों में नहीं है । और मैं अधर्म भी जानता हूँ अच्छी तरह से , लेकिन मेरी निवृत्ति न हुई इसस...