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Showing posts from 2023

मुक्ति की कामना तो भुक्ति से भी भयानक हैं |" गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानम् " ( नारद जी )" सर्वाभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् " ( रुपगोस्वामी)" अहैतुक्यव्यवहिता या भक्ति: पुरुषोत्तमे " ( वेदव्यास )

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मुक्ति की कामना तो भुक्ति से भी भयानक हैं | " गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानम् "                                     ( नारद जी ) " सर्वाभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् "                                     ( रुपगोस्वामी) " अहैतुक्यव्यवहिता या भक्ति: पुरुषोत्तमे "                                    ( वेदव्यास ) तात्पर्य यह कि सभी शास्त्रों का यही निर्विवाद सिद्धान्त है , कि मौक्षपर्यन्त की इच्छायें भगवत्प्रेम में बाधक हैं | इस विषय में तुलसीदास का एक दोहा मुझे अत्यन्त प्रिय लगता है :-  बध्यो बधिक पर्यों पुन्यजल | उलटि उठाई चोंच | तुलसी चातक प्रेम पट | मरतहुं लगी न खोंच || अर्थात एक बहेलिये ने , एक चातक को बाण मारा | वह चातक पुण्यसलिला भगवती - भागीरथी-गंगा में बाण से बिंधा हुआ गिर गया , किंन्तु उसन...

"भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी "" तेही अधीन ज्ञान विज्ञान" " त्यागहिं कर्म शुभाशुभ दायक "

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''ज्ञानकर्मानद्यनावृतं ''  अर्थात् भक्ति में ज्ञान , कर्म , यज्ञ, दान , योग , तपस्या , आदि का आवरण नहीं होता |  तुलसी के शब्दों में भी :- "भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी " " तेही अधीन ज्ञान विज्ञान"  " त्यागहिं कर्म शुभाशुभ दायक " भागवत कहती है :-  "आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान्  धर्मान्सत्यज्य य: सर्वान्मां भजेत्स च सत्तम: "                                   (भागवत् ११ वा स्कंध) अर्थात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वर्णाश्रम- व्यवस्था का विधि - निषेधात्मक विधान मेरा ही वनाया हुआ है , किन्तु जो उसे छोड़कर एकमात्र मेरा ही भजन करता है , उसे कर्मो के परित्याग का दोष नही लगता , एवं वह मेरा अत्यन्त प्रिय हो जाता है |  किंतु यह स्मरण रहे कि यदि भगवदाराधना भी नहीं करता , एवं उन विधि - निषेधात्मक भगवद्विधान का परित्याग कर देता है , तो वह विधान के अनुसार ही दण्डनीय होगा |  यह नियम तो एक विशेष नियम है कि भगवान् निमित्त उसने समस्त धर्मो का परित्याग किया हैं , अतएव यह...

हमारे सद्गुरू देव श्री कृपालु महाप्रभु जी ने क्या दवाई और संयम बतलाई है हमें । हमें उनके बतलाए किस दवा का पान करना है और क्या संयम रखना है ।

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तो हमारे सद्गुरू देव श्री कृपालु महाप्रभु जी ने क्या दवाई और संयम बतलाई है हमें । हमें उनके बतलाए किस दवा का पान करना है और क्या संयम रखना है । ❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️ तो सबसे पहला :-  १. किसी दुसरे साधकों में दोष कभी मत देखो , खुद में दोष देखो । रात को सोने समय यह देखो कि आज मुझसे कहां कहां गलती हुई और प्रण करो कि कल दुबारा वहीं गलती ना हो , दुसरा - २. प्रत्येक जीवों में अपने ईष्ट को मानों । ३. स्वयं के ह्रदय में हर पल अपने ईष्ट को और गुरू को मानो, तुम अकेले नहीं हो , वो सदा तुम्हारे साथ हैं, यह हर पल महसूस करो । ४. अपना संसार का काम करते हुए हरेक दस पंद्रह मिनट में यह सोचो की वो मुझे देख रहे हैं जो भी मैं कर रहा हुं सब नोट कर रहे हैं।  ५. जब भी थोड़ा समय मिले उनका ध्यान कर लो , राधा नाम लेते रहो , सांस सांस में , खाली समय में उनका ध्यान करते हुए उनके गुणों का चिंतन करो । यह कर्मयोग की साधना हुई । ६. अब प्रत्येक दिन, रात को या सुबह समय निकाल कर , या जब भी समय मिले कर्म संन्यास की साधना करो, यानी एकांत में बैठ जाओ थोड़ी देर के लिए और भगवान का, गुरू का रूपध्यान करते हुए...

भगवान् श्रीकृष्ण के इस प्राकृत जगत में अवतरण का मुख्य कारण

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स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के इस प्राकृत जगत में अवतरण का मुख्य कारण :-  चार प्रकार की ऐश्वर्य ज्ञान रहित-माधुर्यमय भक्ति होती है , जिसका आस्वादन करने के लिए रसिक शेखर श्रीकृष्ण सदा लालायित रहते हैं । इस रस में वह चमत्कारिता है कि स्वयं आत्माराम पूर्णकाम आत्मतृप्त भगवान् को भी यह व्याकुल कर देती है । परंतु यह शुद्ध माधुर्य रस ब्रजधाम यानि वृंदावन के सिवा और किसी धाम में नहीं इसलिए इस रस के रसास्वादन हेतु स्वयं श्रीकृष्ण एवं उनकी स्वरुप शक्ति ही अनादिकाल से दास, सखा, माता, पिता एवं कांतागणों के रुप में आत्मप्रकटित होते हैं । इन चारों भागों के परिकरों की सहायता के बिना श्रीकृष्ण इस रस का रसास्वादन नहीं कर सकते । अत: वे इन चारों भागों के परिकरों के वशीभूत रहते हैं । इन परिकरों को नित्य परिकर कहा जाता है । इनके प्रेम में आविष्ट होकर उनके साथ प्रभु अद्भुत लीलाएँ करतें हुए प्रेम रस का आस्वादन करते हैं । और इसिलिए भगवान् स्वयं ब्रह्मा के एक दिन में एक बार प्राकृत जगत् के इस धराधाम पर श्रीवृंदावन धाम में अपने परिकरों के साथ प्रकट होकर लीला क़रते हैं, प्रेम रस लुटाते हैं तथा स्वयं अपने भक्तों ...

श्री कृपालु महाप्रभु जी कि दिव्य वाणी

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श्री कृपालु महाप्रभु जी कि दिव्य वाणी :-  १. "एक दिन ऐसा आएगा जब परिस्थिति ऐसे दुराग्रही नास्तिकों को भी आस्तिक बना देगी तथा वे भी कृतार्थ हो जाएँगे।":- श्री महाराज जी ।। २. "जैसे आँख से शब्द का,कान से रूप का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, इसी प्रकार सिर्फ साधना भक्ति से आध्यात्मिक तत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता।" :- श्री महाराज जी ।।  ३. "महापुरुष को समझने की जटिल समस्या यदि सुलझ जाए, तब फिर बिना किसी किंतु, परंतु, लेकिन, मगर, चूँकि के ही जीव सीधे अपने लक्ष्य पर पहुँच जाएगा।" :- श्री महाराज जी ।। ४.भक्तिमार्ग का अधिकारी वह है जो न तो सांसारिक विषयों में अत्यन्त आसक्त ही होता है, और न तो साधन-चतुष्टयाँ की भाँति अत्यन्त विरक्त ही होता है :- श्री महाराज जी । ५."यदि भगवान् को सर्वांतर्यामी सर्वज्ञ समझकर यह सब उन्हीं पर छोड़ दिया जाए, तो मांगने की बीमारी ही उत्पन्न न होगी" ।। :- श्री महाराज जी ।। ६.भगवद् प्राप्ति का प्रमाण :-  "महापुरूष की प्राप्ति एवं उसके प्रति पूर्ण विश्वास ही भगवत्प्राप्ति का पक्का प्रमाण है।" - श्री महाराज जी ।...

परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् , ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन |तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् ,समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् || ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ )

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परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्                  ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन | तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्                 समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ||                                 ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ ) इस मंत्र का अभिप्राय यह है कि बड़े - बड़े योगियों ने , तपस्वियों ने , अनेक प्रकार के साधन किये किन्तु थक गये | न तो माया निवृत्ति हुई और न आनन्द प्राप्ति हुई | कोई लक्ष्य हल नहीं हुआ | स्वर्ग तक गये | स्वर्ग के सुखों को देखा , भोगा और वैराग्य हो गया | ये स्वर्ग भी हमारे मृत्यु लोक की तरह है , कोई अन्तर नही है | वहाँ भी काम, क्रोध , लोभ , मोह, मद, मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेष सब बीमारियाँ स्वर्ग में भी हैं |  और वह भी कुछ दिन के लिय मिलता है | तब उन लोगों ने निश्चय किया कि उस ब्रह्म को जानने के लिये , भगवान को पाने के लिये और कोई साधन काम नहीं देगा | केवल एक साधन है | क्या ?...

हम हार गये आप लोगों से...!*हमारा जो परपज है कि *तुम लोग भगवान् की ओर चलो, गन्दी भावनायें अन्तःकरण में न लाओ ये हम आशा करते हैं।

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*हम हार गये आप लोगों से...!* हमारा जो परपज है कि *तुम लोग भगवान् की ओर चलो, गन्दी भावनायें अन्तःकरण में न लाओ ये हम आशा करते हैं। हमने अपना सारा जीवन तुम लोगों के लिये अर्पित किया है इसलिए कि तुम लोग एक आदर्श शिष्य बनो,* जो भी देखे बाहर वाला या तुम्हारे घर वाला कोई देखे माँ, बाप, कोई अरे कितना बदल गया ये, कितनी नम्रता है इसमें, हाथ जोड कर बात करता है, हर एक से मीठा बोलता है, क्रोध नहीं करता है। अगर क्रोध आ भी जाय तो भीतर उसको समाप्त कर दो। बाहर से वाक्य न बोलो तो वो बात आगे नहीं बढ़ेगी। फिर एक बात तो ये मुझे कहनी है, कि *आप लोग अपना सुधार करें और हमको भी सुख दें।*माया से छुटकारा मिल जाय ये सब उद्देश्य आप लोगों का घर से रहा होगा, और न रहा हो तो ये होना चाहिए। *मनुष्य देह पाये, भारत में जन्म हो, और गुरु भी मिल जाय, और वो गुरु समझ में आ जाय, सब बात बन जाय और फिर भी हम अपना कल्याण न करें, तो इससे गुरु को दुःख होता है, ये सेवा नहीं है । सेवा का मतलब स्वामी को सुख देना । किसी भी बाप को उसी सन्तान से सुख मिलेगा, जो सन्तान अच्छे आचरण वाली हो, जिसका स्वभाव सरल हो, दीन हो, नम्र हो, मधुर हो, बाप ...

गुरु भक्ति अति कठिन है ज्यों खाड़े की धार,बिना साँच पहुँचे नहीं महा कठिन व्यवहार।।

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गुरु भक्ति अति कठिन है ज्यों खाड़े की धार, बिना साँच पहुँचे नहीं महा कठिन व्यवहार।। भगवान को पाने के लिए हमे गुरु निर्दिष्ट साधना करनी होगी। इसी 'साधना' हेतु हमारे 'कृपालु गुरुदेव' निरंतर अथक परिश्रम कर रहे हैं किन्तु जैसे-जैसे साधक इस मार्ग में अग्रसर होता है उसकी परीक्षाएँ कठिन होती जाती हैं। गुरुदेव का व्यवहार भी समझ से परे होने लगता है। वो उल्टा व्यवहार करने लगते हैं, हम सोचते हैं हमें पहचानते नहीं,जानते नहीं,हमसे अब बात नहीं करते और गुरु में दोष बुद्धि लगा बैठते हैं, तब हमारी भ्रष्ट बुद्धि गुरुदेव संभाल लेते हैं। बाहर से विपरीत व्यवहार करते हुए भी वे अपने सच्चे साधक को अंदर ही अंदर संभालते रहते हैं, बहुत तरह की कठिन परीक्षा लेता है गुरु भी, अत: इस साधना के लिए गुरु भक्ति परमावश्यक है और गुरु भक्ति करना अति कठिन है। प्रेम अथवा भक्ति के ध्वंस होने का कारण हो फिर भी अनुकूल चिंतन बना रहे- यह कठिन है किन्तु परेशान न हों-साँच अर्थात सरल के लिए यह भक्ति सरल है। हम सबको पूर्ण विश्वास है कि गुरु कृपा से हम एक दिन अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। " यह कृपालु जिय पर...

चूँकि यह वेद वाणी अनादि, नित्य, पुंदोष, पंक, कलंक, से सर्वथा असंसृष्ट है, अत: इसी वेद के द्वारा निश्चय होगा कि ' मैं कौन हूँ ' और वास्तव में 'मेरा' कौन है । सो , हमें वेद का अबलंब लेना पड़ेगा । पर हम वेद का अबलंब लें कैसे ? क्यों ?

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चूँकि यह वेद वाणी अनादि, नित्य, पुंदोष, पंक, कलंक, से सर्वथा असंसृष्ट है, अत: इसी वेद के द्वारा निश्चय होगा कि ' मैं कौन हूँ ' और वास्तव में 'मेरा' कौन है । सो , हमें वेद का अबलंब लेना पड़ेगा । पर हम वेद का अबलंब लें कैसे ? क्यों ? क्योंकि -  परोक्षवादो वेदोऽयम् । (भागवत् ११-३-४४) वेद में शब्द कुछ है, अर्थ कुछ है । इसे ईश्वर स्वरुप कहा गया है क्योंकि जैसे ईश्वर बुद्धि से परे है ऐसे वेद भी बुद्धि से परे है । यदि वेद बुद्धि से परे है तो हमारा काम कैसे बनेगा ? इस वेद को जानने वाले से ! वास्तविक महापुरुष से !!  वेदा ब्रह्मात्म विषया: । ( भागवत् ११-२१-३५) इस सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ का वास्तविक लाभ किसी श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मार्गदर्शन में हीं उठाया जा सकता है । वास्तविक महापुरुष , जिसके पास सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ प्रैक्टिकल (अनुभवात्मक ज्ञान ) नॉलेज भी हो । वो भगवान को प्राप्त कर लिया हो , देखा हो , महसूस किया हो । केवल सैद्धान्तिक नॉलिज वाला व्यक्ति , जिसके पास प्रैक्टिकल नॉलेज नही है , गुरु बन जाए तो वो भला अपने शिष्य को कैसे भगवत् प्राप्ति करा सकता है ! वो बेचारा...

स्वर्ग के देवी देवता लोग अपने पुण्य के तेज के बल पर भगवान के धाम जाकर उनसे मिलते हैं , उनका दर्शन कर लेते हैं, उनसे बातें कर लेते हैं और जैसे जैसे उनका पुण्य खर्च होता है वैसे वैसे उनकी आयु क्षीण होती जाती है और एक दिन सभी पुण्य समाप्ति के बाद उनको फिर से धरती पर निकृष्ट योनियों में भेज दिया जाता है भगवान द्वारा ।

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स्वर्ग के देवी देवता लोग अपने पुण्य के तेज के बल पर भगवान के धाम जाकर उनसे मिलते हैं , उनका दर्शन कर लेते हैं, उनसे बातें कर लेते हैं और जैसे जैसे उनका पुण्य खर्च होता है वैसे वैसे उनकी आयु क्षीण होती जाती है और एक दिन सभी पुण्य समाप्ति के बाद उनको फिर से धरती पर निकृष्ट योनियों में भेज दिया जाता है भगवान द्वारा ।  वहीं मनुष्य की आयु उसके पाप से घटता जाता है । जैसे जैसे पाप करता है उसकी आयु क्षीण होती जाती है। फिर पाप का जब आधिक्य हो जाता है भगवान उसका शरीर छिन लेते हैं , वहीं समय मनुष्य मान लेता है उसके जाने का था । कौन भगवान से सवाल कर सकता है कि उसका उम्र कितनी थी ?  सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥ भावार्थ:-मुनिनाथ ने बिलखकर (दुःखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं॥171॥ है कोई ऐसा ज्योतिष भी इस संसार में , बता सके किसी की उम्र कितनी है । असंभव । ज्योतिष शास्त्र भी वैदिक ग्रंथ है , क्या कोई ऐसा ज्योतिष हुआ इस संसार में जो किसी का उम्र बताया हो? क...

प्रश्न १: क्षण-क्षण में हमारे अंदर अहंकार आ जाता है। इससे हम कैसे बचें?

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अहंकार प्रश्न १: क्षण-क्षण में हमारे अंदर अहंकार आ जाता है। इससे हम कैसे बचें? उत्तर: जीव की स्थिति ऐसी है कि अपनी चाल, अपनी बोली, अपना व्यवहार, अपना interest, अपनी style सब उसी को अच्छा लगता है। वह उसी को अच्छा मानता है, बाकी सब उसके सामने बेकार है। अस्मिता जो है वह सबसे भयानक है, अहंकार उसे कहते हैं।  प्रश्न २ : अहंकार तो क्षण-क्षण में आता है?  उत्तर: पानी बरसने का समय आ गया है, बरसात है। यह जानते हैं लोग, तो उसके लिए इन्तजाम करते हैं। मकान बनवाते हैं। छाया का प्रबन्ध करते हैं। भूख लगेगी तो खाने का प्रबन्ध करते हैं। जानते हैं शरीर को ढकना जरूरी है समाज में, तो कपड़ा पहनते हैं। अगर कोई जानता है कि अहंकार आता है हमको बार-बार, तो उसको हटाने का प्रयत्न करना चाहिए। सोचना चाहिए कि किस चीज़ का अहंकार है? जितनी चीजें हैं हमसे आगे, वे हैं कहीं की नहीं? अनन्त गुणा आगे हैं हमसे। स्वर्ग में ही हैं, फिर भगवान के लोक में तो हैं ही। अहंकार तो वह करे, यह माने कि हमसे बड़ा कोई नहीं रूप में, गुण में, बल में, बुद्धि में और जब वह realise करता है कि नहीं जी, हम तो एक subject में भी सर्वज्ञ नहीं ...

भगवत्प्राप्त महापुरुष के जब प्राण जाते हैं,

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श्री महाराज जी :- भगवत्कृपा प्राप्त महापुरुष । भगवत्प्राप्त महापुरुष के जब प्राण जाते हैं, इसका रहस्य मैंने आपको बताया था आप लोगों ने भुला न दिया होगा। ७२ करोड़ नाड़ियाँ हमारे शरीर में हैं, उनमें से. शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति (वेद) एक सौ एक नाड़ियों में से एक नाड़ी मूर्धा की ओर गई है, सीधी सिर की ओर। उस नाड़ी से महापुरुष की आत्मा का वह जीव तत्व निकलता है लेकिन निकलने के पहले यमराज स्वयं आता है। आ करके चरणों में प्रणाम करता है और प्रार्थना करता है, आपका समय हो चुका है अगर आप जाना चाहें तो आप गोलोक जाइए।  कानून नहीं है कि जाना ही पड़ेगा। ऐसा नहीं कह सकता यमराज । वह भगवान् के अवतार काल में भगवान् के पास भी जाता है। आपने पढ़ा होगा, सुना होगा, रामराज्य में भी गया था राम के पास। इसी चक्कर में लक्ष्मण का परित्याग हो गया था। दास का काम क्या ? याद दिलाना स्वामी को कि आपका समय हो गया ग्यारह हजार वर्ष, आप चाहें ग्यारह लाख वर्ष रहें, आपका संसार है। लेकिन मैं आपको स्मरण दिलाने आया हूँ। महापुरुषों के चरणों में यमराज अपना मस्तक रखता है।  फिर...

हमारे लिए आध्यात्मिक ज्ञान कितना आवश्यक है?

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तत्त्व ज्ञान प्रश्न १ : हमारे लिए कितना आध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है? उत्तर : अगर बाजार जाते हो और तुमको मिठाई खरीदना है। रास्ते में माँस की दुकान भी पड़े, जूता-चप्पल की भी पड़े, तुम हर एक दुकान पर नहीं जाते हो क्यों? दुकान खुली है? क्या इसमें सामान है? इन सबसे तुम्हें मतलब क्या है ! अपना मिठाई की दुकान में गए। मिठाई खरीदी। खाए। खाकर बस चले आए। Knowledge ईश्वर के मामले में limited रखनी है। बस! जितनी आवश्यकता है, उतनी knowledge। उसके आगे बात कुछ समझ में आ सकती है, कुछ नहीं भी आ सकती है, हमारे वर्तमान level पर। तो समझने की चेष्टा करेंगे और कोई बात समझ में न आई, तो एक confusion खोपड़ी में बैठ जाएगा। इसलिए उस क्षेत्र में जाना ही नहीं है, खतरनाक क्षेत्र है। बड़े-बड़े बह गए। अपने लिए जो आवश्यक है, उतनी knowledge बस। बाकी बातें जो हैं- ज्यों-ज्यों हम ऊपर को उठेंगे, ईश्वरीय शक्ति हमको मिलेगी, अन्तःकरण शुद्ध होगा, त्यों-त्यों अपने आप सब समझ में आता जाएगा, बिना प्रश्न किए। बाकी ऊपर के class की बातें नीचे की class में अनुभव न होने के कारण ठीक-ठीक नहीं बैठ सकतीं। इसलिए उसके लिए प्रयत्न करना ही नही...

द्रौपदी ने question किया था भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य से भरी सभा में कि जब पाण्डव अपने आप को हार गए तो हमको जुआ पर लगाने का अधिकार क्या है? जुआ खेलने का अधिकार कहाँ ? सब सिर नीचा कर लिए कोई जवाब नहीं दे पाए।

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धर्मस्य गहनो गतिः।  द्रौपदी ने question किया था भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य से भरी सभा में कि जब पाण्डव अपने आप को हार गए तो हमको जुआ पर लगाने का अधिकार क्या है? जुआ खेलने का अधिकार कहाँ ? सब सिर नीचा कर लिए कोई जवाब नहीं दे पाए। अरे भाई, देखो। एक स्त्री है, उसके पति ने कहा- पानी लाओ। ससुर ने कहा- चश्मा उठाओ, हमको दो। सास ने कहा- दूध उबल रहा है, जल्दी उतारो। अब वह किसकी बात माने? अगर कहो कि वह तो बीबी बनी है पति की, उसकी माने। तो वह पति का बाप है, वह पति की माँ है। पति की माँ की बात के आगे पति की बात क्या गलेगी? अगर पति की माँ की मान ले तो वह माँ का पति है, ससुर जो है। उसकी बात क्यों न माने भला? अब बिचारी वह परेशान है, किसकी आज्ञा हम मानें पहले? और जिसकी पहले मानेंगे, बाकी दो का mood off होगा-'हाऽ...! पति के लिए पानी लेने दौड़ गई, हमने चश्मा मँगाया तो नहीं लाई ।  यह इतना टेढ़ा है धर्म का हिसाब कि सरस्वती-बृहस्पति की बुद्धि fail हो जाती है। एक धर्म, एक धर्म को काट देता है। जैसे court में वकालत जब होती है, तो कानून को कानून काटता है। तुम्हारी गोली से यह मरा? हाँ साहब! हमारी गोली स...

अनन्यता ।

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श्री महाराज जी :- अनन्यता प्रश्न १२ पुस्तक, टी.वी. या प्रत्यक्ष दर्शन के माध्यम से हम अन्य संतों और उनके अलग-अलग सिद्धांतों के contact में आते हैं। उनके प्रति हमारी क्या भावना होनी चाहिए?  उत्तर: अपने गुरु के बताए हुए मार्ग के सिवाय अन्य किसी मार्गविषयक उपदेश सुनना-पढ़ना आदि भी कुसंग है, भले ही वह मार्ग महापुरुष निर्दिष्ट ही क्यों न हो। मान लो तुम भक्ति मार्ग की साधना कर रहे हो, कोई ज्ञान मागीय महापुरुष ज्ञान मार्ग का उपदेश कर रहा है। तुम उसे सुनोगे तथा सोचने लगोगे 'अरे! यह तो कुछ और ही कहता है। बस, तुम्हारे दिमाग में कूड़ा भरने लग जाएगा। तुम्हारी लघु बुद्धि की यह सामर्थ्य नहीं है कि वास्तविक तत्त्व पर पहुँच सके। इसी प्रकार अपने मार्ग में भी उपासना के अनेकानेक ढंग हैं, जो कि साधकों की रुचि एवं विश्वास पर निर्भर रहते हैं। तुम दूसरी साधना को देखोगे कि- अरे! यह बड़ी अच्छी साधना होगी क्योंकि मेरी साधना से तो अभी तक भगवत् प्राप्ति नहीं हुई। कदाचित् उस साधना के प्रति यह दुर्भावना पैदा हो गई कि उसकी साधना सही नहीं है, तब तो और भी अपराध कमा बैठोगे। अतएव अपने गुरु के ही बताए मार्ग का निरन्त...

प्रश्न १ : क्या अर्थ दान जरूरी है? अगर है तो हमें कितना दान करना चाहिए?

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श्री महाराज जी :-  प्रश्न १ : क्या अर्थ दान जरूरी है? अगर है तो हमें कितना दान करना चाहिए? उत्तर : धनवान को इस जन्म में पैसा मिल जाता है अपने आप। वह समझता है हम बड़े काबिल हैं। हमने ऐसा किया कि अरबपति हो गए। ऐसा कुछ नहीं है। पूर्व जन्म का दान काम देता है। अदत्तदानाच्च भवेद् दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोति पापम्। पापप्रभावान्न नरके प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी॥ वेदव्यासजी ने कहा कि जो दान नहीं करता, वह अगले जन्म में दरिद्र बनता है। और जब दरिद्र बनता है तो फिर रोटी-दाल के लिए पाप करता है। और जो पाप करता है, तो फिर नरक मिलता है। . गले बद्ध्वा दृढं शिलाम् धनवन्त मदातारं दरिद्रं च तपस्विनं...। वेदव्यास ने कहा है कि उन दोनों को बहुत बड़ी चट्टान गले में लटकाकर पानी में डाल देना चाहिए कि ऊपर न आवें, वहीं खत्म हो जाएँ। कौन दोनो को ? धनवन्त मदातारं- पैसा हाते हुए भी दान न करे और दरिद्र च तपस्विनं- दरिद्र हो फिर भी भगवान की भक्ति न करें, अकड़ा रहे। इन दोनों के गले में बहुत बड़ी शिला बाँधकर और अभंस निवेष्टव्यौ पानी में डाल देना चाहिए समुद्र में, वहीं खत्म हो जाएँ। इनके जिन्दा रहने का क्या फाय...

प्रश्न ३: हमारे देश में गीता बहुत प्रचलित ग्रंथ है। लोग अकसर इसके वाक्य को व्यवहार में लाने का दावा करते हैं, खास कर के जो अपने आप को कर्मयोगी मानते हैं। तो क्या सभी गीता के अधिकारी हैं? वास्तविक गीता ज्ञान वाला कौन है ?

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श्री महाराज जी ।  प्रश्न ३: हमारे देश में गीता बहुत प्रचलित ग्रंथ है। लोग अकसर इसके वाक्य को व्यवहार में लाने का दावा करते हैं, खास कर के जो अपने आप को कर्मयोगी मानते हैं। तो क्या सभी गीता के अधिकारी हैं? वास्तविक गीता ज्ञान वाला कौन है ? उत्तर : ब्रह्मा अपने तीनों बच्चों की सभा में गए- देवता, मनुष्य, राक्षस। सत्त्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी। सबने कहा- महाराज! एक lecture दे दीजिए। तो उन्होंने कहा- 'द, द, द' और चले गए ब्रहा लोक।  हो गया lecture | तो देवता लोग नहीं समझ सके, मनुष्य भी नहीं समझ सके क्योंकि जितना गंभीर तत्व हो, उसके समझने के लिए उतनी बड़ी बुद्धि चाहिए। अधिकारी चाहिए। गीता में लिखा है- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।  न चाशुश्रूषवे वाच्य न च मां योऽभ्यसूयति । यह गीता में लिखा है कि इस गीता के उपदेश को उसको न देना। किसको? जो तपस्वी न हो। तपस्वी माने इन्द्रियों पर control नम्बर दो- तपस्वी भी हो और भगवान का भक्त भी हो। Cent percent शरणागत हो। नहीं तो वह कहेगा- "भगवान ने तारीफ की है गीता में अपनी मैं ही भगवान हूँ, मैं ही भगवान हूँ, मेरी शरण में आ जा...। यह तो अपने मुँह...

क्या मूर्ति पूजा से कोई लाभ मिल सकता है?

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प्रश्न उत्तर : ६ : क्या मूर्ति पूजा से कोई लाभ मिल सकता है? उत्तर -  हॉ-हा! पूजा करो। कुछ करो, लेकिन प्यार से प्यार लक्ष्य रहे, कर्म नहीं। अब देखो, मंदिर का पुजारी पूजा करता • लेकिन लक्ष्य क्या है? भगवान नहीं है उसका लक्ष्य। है, उसका लक्ष्य है- कौन क्या चढ़ावा देता है। तो इन्द्रियों के कर्म का फल नहीं मिलेगा। प्रश्न ७ : मूति पूजा में यह problem रहता है कि इन्द्रियों का work बहुत रहता है, जैसे कपड़ा पहनाना, प्रसाद खिलाना आदि। यह भी danger कि ये सब करते-करते मन का ही attachment छूट जाए और केवल इन्द्रियों से मूर्ति पूजा हो ? उत्तर : नहीं, जैसे अपने बच्चे के लिए कपड़ा बनाते हो, स्वेटर बनाते हो तो प्यार तो रहता ही है उसमें। अपने बच्चे में attachment है और स्वेटर बन रहा है। और एक ऐसा होता है कि पचीस रुपया हमने दे दिया स्वेटर बनाने वाली को और कहा- स्वेटर बना दो हमारे बच्चे के लिए। स्वेटर दोनों का एक-सा है, लेकिन फर्क यह है कि तुमने प्यार से बनाया और उसने पैसे के लिए बनाया, इतना अंतर है। तो इसलिए अपनी-अपनी रुचि के अनुसार करना है सबको इसमें कोई प्रतिबंध नहीं रखा शास्त्र वेद ने। और सबसे बढ़िय...

प्रश्न ९ : जब आत्मा शरीर छोड़ती है, तो सूक्ष्म शरीर धारण करती है, क्या वह सूक्ष्म शरीर में थोड़े दिन के लिए रह सकती है या तुरन्त स्थूल शरीर धारण करना पड़ता है?

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प्रश्न ९ : जब आत्मा शरीर छोड़ती है, तो सूक्ष्म शरीर धारण करती है, क्या वह सूक्ष्म शरीर में थोड़े दिन के लिए रह सकती है या तुरन्त स्थूल शरीर धारण करना पड़ता है? उत्तर नहीं, वह हजार युग रहे। रहने को क्या है! सूक्ष्म शरीर तो सदा है सब आत्माओं के, तुम्हारे भी हैं। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर- तीन शरीर होते हैं। और इन तीन शरीरों को पार कर जाए, तो दिव्य शरीर मिलता है। गोलोक, वैकुण्ठ लोक, भगवान का लोक। तो सूक्ष्म शरीर तो already सबके हैं ही हैं। बिना शरीर के जीव कभी नहीं रह सकता। बिना शरीर के आत्मा नहीं रहती। बिना आत्मा के शरीर नहीं रह सकता। इनका अन्योन्य संबंध है। खाली स्थूल शरीर जो है, इसके बिना आत्मा रह सकता है। लेकिन सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर- कारण शरीर माने संस्कार और सूक्ष्म शरीर जो आँखों से दिखाई न पड़े। अतिवाहिक शरीर भी कहते हैं उसको। तो जैसे यह तमाम योनियाँ हैं भूत, प्रेत, पिशाच आदि, यह सब सूक्ष्म शरीर वाले हैं। देवता भी सूक्ष्म शरीर वाले हैं। वह भी दिखाई नहीं पड़ेंगे आपको material आँख से। यहाँ देवता जा रहा है, आप नहीं देख सकते। तो यह सूक्ष्म शरीर वाले प्राणी हैं हजारों प्रकार ...

प्रश्न २ : ज्ञान, विश्वास और प्रेम- इन तीन शब्दों का व्यापक व्यवहार है संसार में भी और हर धर्म में भी इसका वास्तविक अर्थ हमें बताइए?

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श्री महाराज जी :-  प्रश्न २ : ज्ञान, विश्वास और प्रेम- इन तीन शब्दों का व्यापक व्यवहार है संसार में भी और हर धर्म में भी इसका वास्तविक अर्थ हमें बताइए? उत्तर : इसका तुलसी दास ने बड़ा सुंदर निरूपण किया है। उन्होंने लिखा है जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥ पहला ज्ञान है, दूसरा विश्वास है और तीसरा है प्रेम। ज्ञान और विश्वास ये दोनों दो प्रकार से होते हैं- एक तो theoretical और एक practical । पहले theoretical होगा। कोई भी ज्ञान होगा, तो पहले theory में होगा। जब theory में ज्ञान होगा, तो वह ज्ञान अपरिपक्व होगा, doubtful होगा क्योंकि अनुभवहीन है। इसलिए विश्वास जो उसका होगा, वह भी कच्चा होगा। कभी होगा, कभी कम होगा, कभी नहीं होगा। इस स्थिति में रहेगा वह जो practical साधना करने लगता है ज्ञान के बाद, theory के ज्ञान के बाद! तो जितनी limit में वह साधना में आगे बढ़ता है, उतनी limit में उसका विश्वास पक्का होता है। टिकाऊ होता है। फिर वह गिर नहीं सकता। ५०%, ७०%, ८०% ऐसे विश्वास दृढ़ होता है। और जब साधना पूरी हो जाती है, जिसको मैंने अभी बताया- अंतःकरण शुद्धि! साधना जब परिपूर्ण ...

प्रश्न २ : चाहते हुए भी हम भगवत् विषय में अधिक समय नहीं दे पाते क्योंकि परिवार के लिए duty भी निभाना पड़ता है, इसका क्या समाधान है?

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प्रश्न २ : चाहते हुए भी हम भगवत् विषय में अधिक समय नहीं दे पाते क्योंकि परिवार के लिए duty भी निभाना पड़ता है, इसका क्या समाधान है? उत्तर : अरे भाई, देखो। स्त्री है, बेटा है, बेटी है- यह परिवार हो गया। माँ-बाप मर गए लेकिन बेटा-बेटी, स्त्री हैं। इसी में मन का attachment है, चार-छ: में। इसके आगे बढ़ाओ तो • बहुत बड़ा अपराध है तुम्हारा। तब बेटी का बेटा है, बेटे का बेटा है, वहाँ भी attachment कर लो। इसका मतलब मरने पर तैयार हो तुम ! ८४ लाख में घूमने का शौक सवार है तुमको | तुम्हारी duty अपने बच्चों तक है, बच्चों के बच्चों को बच्चे सँभालें। हम क्यों attachment करके मरें उसके पीछे और अपना भविष्य खराब करें तो यह हमारी नासमझी है। हम भगवान को भूल • जाते हैं, संसार को ही अपना मानने लगते हैं। तो विवेक से अभ्यास करें। भगवत् विषय में, वानप्रस्थ आश्रम में पचास साल के बाद क्या बताया गया है कि अपने बाल-बच्चों को भी छोड़ो और खाली मियाँ-बीबी साधना करो। practice करो, भगवान में मन लगाओ। और कोई काम नहीं तुम्हारा। हम मरते-मरते तक नाती-पोते के चक्कर में पड़े रहते हैं। भला बताओ कि कितनी हमारी duty शास्त्र-वेद ने...

प्रश्न १: हम यह भलीभाँति जानते हैं कि संसार में सुख नहीं है। फिर भी हमारा मन अकसर संसार में आसक्त हो जाता है। ऐसा क्यों?

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श्री महाराज जी :- मन और बुद्धि प्रश्न १: हम यह भलीभाँति जानते हैं कि संसार में सुख नहीं है। फिर भी हमारा मन अकसर संसार में आसक्त हो जाता है। ऐसा क्यों? उत्तर: परीक्षित ने शुकदेव परमहंस से प्रश्न किया था कि महाराज! संसार के सुख में इतना दुःख का mixture है, इतना tension है और भगवान के यहाँ आनन्द-ही-आनन्द है, फिर भी लोग क्यों नहीं भगवान की ओर जाते? तो शुकदेवजी ने कहा- ठीक है, ठीक है। फिर कभी बता देंगे। दो-चार दिन बाद शुकदेव परमहंस गए जंगल में, परीक्षित भी साथ-साथ गए। एक जगह पाखाना पड़ा हुआ था, सूखा हुआ पाखाना। और उसमें कीड़े गोल-गोल गोली बना रहे थे। उसी में मँडरा रहे थे चारों ओर। शुकदेव परमहंस अपने साथ एक फूल ले गए खुशबूदार । १०-१५ फुट की दूरी पर रख दिया और परीक्षित से कहा- 'देखो भाई, वह बेचारा कीड़ा इतनी गंदी जगह पर दुःखी हो रहा होगा, उसको लाकर फूल में रख दो।' अब परीक्षित समझे नहीं कि ऐसा गंदा काम करने को गुरुजी हमको क्यों कह रहे हैं! लेकिन अब आज्ञा है गुरुजी की, तो चलो भाई। तो २-४ कीड़े पकड़कर वे ले आए और फूल में रख दिया। फूल में रखते ही वे कीड़े तुरंत about turn, फिर चले गए पाख...

भगवद् भक्ति के दृष्टिकोण से चार प्रकार के लोग होते हैं ।

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चार प्रकार के लोग होतें है । १. मुढ़ा - जो समझदार होकर भी, पढ़ें लिखे होकर भी नासमझ बने रहतें हैं । इंटरेस्ट नहीं है हरि गुरू में ,भगवान में । मंदीरों में तीर्थों में लोकरंजन के लिए जाते हैं तथा भक्त होने का स्वांग करतें हैं ।  २. नराधम - जो हमलोग हैं , सब तत्त्वज्ञान श्री महाराज जी ने दिए , ज्ञान भी हो गया , जुड़े हैं , पर श्री महाराज जी के आदेश को लागु नहीं किया अभी तक अपने जीवन में । ३. भौतिकबादी - जो संसार को हीं सत्य समझतें हैं , शरीर को मैं समझतें हैं‌। देहाभिमान है । चार्वाक के पुजारी हैं । ४. आसुरी - जो असुर प्रवृति के हैं। भगवान और हरि गुरू के रास्ते पर चलने वाले से द्वेष करतें हैं । आदि आदि । भक्त का मजाक उड़ातें हैं । श्री राधे । इसमें 2सरे नंबर बाले नराधम का कल्याण किसी भी क्षण हो जाएगा जिस क्षण वो सरेंडर कर दें हरि गुरू के चरणों में , शरणागत हो जाए । बस काम बन जाएगा । किंतु बांकी तीनों को तो चौरासी का चक्कर जरूर लगेगा ।  श्री राधे । ( मां के प्रवचन से ) ।

प्रलय क्या है, कब होता है , कैसे होता है , कितने प्रकार का प्रलय होता है , सृष्टि कैसे होता है ?

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बहुत बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न तथा उत्तर ।  प्रश्न :- कुछ लोगों का प्रश्न है कि अनेकों जगह शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान ने माया का संसार का बनाया है, पर तत्वज्ञान कहता है कि जीव और माया सदा से है जैसे भगवान सदा से है और ब्रह्मा जी को भी सृष्टि कर्ता कहा गया है और भगवान श्री कृष्ण को भी । तो यह विरोधाभास क्यों कंफ्यूजन क्यों ?  दुसरा प्रश्न :- प्रलय क्या है, कब होता है , कैसे होता है , श्री महाराज जी के तत्वज्ञान के आधार पर आप संक्षिप्त में समझावें ?  उत्तर :-   सबसे पहले हमें समझना होगा इस संसार के उदाहरण से ही कि संसार में भी कोई भी जीव किसी दुसरे जीव को बनाता नहीं है ,  वल्कि पुरूष और स्त्री के रज और बीज के संयोग से मां के गर्भ में जीव के शरीर का निर्माण या विकाश अपने आप होता है ।यहां तक की यह रज और बीज भी मनुष्य या कोई भी प्राणी या जीव बनाता नहीं स्वयं , यह उसके शरीर के अन्नमय कोष से भगवान की प्रदत शक्ति से स्वयं बनता है ।  बनाना तो उसको कहते हैं जैसे कोई जीव संसार का कोई पदार्थ लेकर अपना घर बना लिया , कोई सामान बना लिया । कोई तसवीर या मुर्...

भक्ति और सेवा ।

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बड़ी दीदी :- भक्ति और सेवा का गहरा रिश्ता है। सेवाभाव के बिना भक्ति हो ही नहीं सकती। यही कारण है कि हम जो भी सेवा करें उसे बड़े प्रेम से करें परम निष्काम भाव से करें। किन्तु याद रहे कि इस सेवा का श्रेय केवल ईश्वर को जाता है। हममें अपने बल पर हरि-गुरु की सेवा करने की क्षमता हो नहीं सकती ! यदि सेवा का सुफल दिखे, तो यह समझिए कि यह ईश्वर की करुणा है। उनकी मात्र कृपा और कृपा है। हमारी योग्यता यह चमत्कार कदापि नहीं कर सकती। यदि हम में कोई दुर्बलता है जो हमारी सेवा में बाधक बनकर उपस्थित होती है तो उसके निराकरण के लिए उसे हम ईश्वर के समक्ष रो रोकर समर्पित करें। कोई अपनी ओर से साध्यातीत साधना कर सकता है, अपनी समस्त शक्ति लगा सकता है, किन्तु अन्ततः सबकुछ निर्भर करेगा ईश्वर की कृपा पर । भगवत्पथ पर कदम रखते ही हमें सबकुछ करना है समर्पण भाव रखकर। साधना और सेवा करने की अभिलाषा निरंतर रखनी पड़ेगी, पुरुषार्थ भी करना पड़ेगा। सामर्थ्य के अनुसार पूरा जोर भी लगाना पड़ेगा, किन्तु अकेला हमारा सामर्थ्य क्या करेगा? हमारी वास्तविक पिपासा देखकर जब गुरु के हृदय में करुणा जागेगी तो असंभव भी संभव हो जाएगा । और यह ...

भगवद् प्राप्त महापुरुष के सानिध्य तथा दर्शन का महत्व।

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हमारी प्यारी बड़ी दीदी :- हरि-गुरु अवलम्बाकांक्षी हम सभी साधकगण 'गुरवे नमः' के सुमधुर उच्चरण के साथ कृतज्ञता का भाव हृदय में समेटे प्रतिदिन अपनी दिनचर्या का शुभारंभ करते हैं। किन्तु यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हमने कभी 'गुरवे नमः' के वास्तविक अर्थ की गहराई में स्वयं को उतारने की कोशिश की है? कौन हैं गुरु? क्यों उन सा हितैषी हमारा कोई नहीं? क्यों ऐसे परम हितैषी के होते हुए भी अब तक हम उनकी कृपा का लाभ नहीं ले पाए हैं? क्यों भगवज्जन मिलन को भगवत्कृपा का सबसे पक्का प्रमाण कहा गया है? जब हम ऐसे अनेक प्रश्न स्वयं से करेंगे तो स्वतः ही हरि और हरिजन की कृपा का चिन्तन बारम्बार होगा। इस चिंतन में जितनी कड़ियाँ जुड़ती जाएँगी, उसके चमत्कार से हम उतने ही अधिक चमत्कृत होते चले जाएँगे। उनके दर्शन मात्र की कामना हमें रोमांचित कर देगी। दर्शन मात्र आनन्द विभोर कर देगा और यदि दर्शन के अतिरिक्त सामीप्य भी मिल गया तो फिर बात ही क्या है ! इस अमूल्य निधि को पाकर क्या इससे भी अधिक और कुछ पाना अभी शेष है । आप कहेंगे- और भगवान का मिलन...। भगवान का मिलन उतना महत्वपूर्ण नहीं होता, जितना उन...

मरते समय बड़ा कष्ट होता है। महापुरुष एवं साधारण मनुष्य के मरने में बड़ा अन्तर है। जनम मरण दुसह दुःख होई ।

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श्री महाराज जी :- विचारणीय बात यह है कि जिसने जीवन भर भगवान का चिन्तन नहीं किया, क्या वह मरते समय भगवान का चिन्तन कर पाएगा? कभी नहीं मरते समय जिसका चिन्तन होगा, उसी की प्राप्ति होगी। मरते समय बड़ा कष्ट होता है। महापुरुष एवं साधारण मनुष्य के मरने में बड़ा अन्तर है। जनम मरण दुसह दुःख होई । जब हमारी मृत्यु होती है और प्राण को शरीर से निकाला जाता है, तब बहुत कष्ट होता है। उससे कम कष्ट जन्म के समय होता है। भगवान एवं महापुरुष जहाँ स्वेच्छा से प्राण छोड़ते हैं, वहीं हमसे प्राण छुड़वाए जाते हैं। अतः मरते समय जैसा चिन्तन होगा, उसी की प्राप्ति होगी। यदि सत्वगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो स्वर्ग का सुख प्राप्त होगा । रजोगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो मृत्युलोक की प्राप्ति होगी। वहीं यदि तमोगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो नरक की प्राप्ति होगी। अब यदि किसी की निर्गुणी महापुरुष और भगवान में आसक्ति हो गई, तो उसे आनन्द मिलेगा । अजामिल जो मृत्युशय्या पर बेहोश पड़ा था। उसने यमदूत एवं विष्णुदूत के मध्य वार्तालाप सुना, जिससे उसे तीव्र वैराग्य हो गया। स्वस्थ होने पर उसने एक वर्ष गंगाद्वार (हरिद्वार) में तप किया...

मन के गंदगी को साफ करने का क्या उपाय है ?

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'चेतोदर्पणमार्जनम्'- भीतर की गंदगी को साफ करने का और कोई उपाय नहीं है।  'प्रेम भगति जल बिनु रघुराई, अभिअंतर मल कबहुँ की जाई'  -केवल अविरल अश्रुपात ही अन्तःकरण को शुद्ध कर सकता है। कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना विनाऽऽनन्दा श्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः ॥ श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा- जब तक शरीर में रोमांच नहीं होगा, आँसू नहीं निकलेंगे तो यह अंतःकरण शुद्ध नहीं होगा। यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ मत्पुणयगाथाश्रवणाभिधानैः । तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं चक्षुर्यथैवांजनसम्प्रयुक्तम् । फिर कहते हैं- जितनी मात्रा में आँसू बहाओगे, उतनी मात्रा में अंतःकरण की सफाई होगी और जितनी मात्रा में सफाई होगी, उतनी मात्रा में वह सूक्ष्म वस्तु दिखाई पड़ेगी। प्रभु, की सेवा, उनके जनों की सेवा हमको दिखाई क्यों नहीं पड़ती? क्योंकि हमारा अंतःकरण उतना निर्मल नहीं है। अंतःकरण में जितनी निर्मलता आएगी, उतनी मात्रा में प्रभु, उनके जन, उनके जनों की सेवा दिखाई पड़ेगी। जितनी में मात्रा में वह दिखाई पड़ेगी, उतनी मात्रा में सेवा की व्याकुलता बढ़ती जाएगी और जितनी मात्रा में व्याकुलता बढ़ती जाएगी, उतन...

मनुष्य सुख चाहता है लेकिन दुख मिल रहा है ऐसा क्यों ?

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कितनी बार बतलाऊं आप लोगो को , ज्ञान,योग,कर्मकांड , कर्म , धर्म , जप तप , पुजा पाठ, व्रत उपवास यज्ञ  आदि अभीष्ट फल दे के समाप्त हो जाती है तत्क्षण ,  वो भी इन सब का महत्व कलयुग में  विल्कूल नहीं है , कलयुग में केवल और केवल भक्ति हीं एक मात्र साधन है जीव को लक्ष्य दिलाने के लिए,  भक्ति तो कामधेनु गाय है ये कभी न समाप्त होने वाली वो फलदार वृक्ष है जो हमेशा भक्त के पास रहती है, और इसलिए भक्त के लिए भगवान का प्राण भी समर्पित है । भक्ति मृत्यू के पहले और मृत्यू के बाद भी अनंत काल के लिए भक्त का कभी न समाप्त होने वाला धन है ।  निमि ने भागवत में कहा है :-  "भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृति:। तन्माययातो बुध आभजेंत्तं भक्त्यैकयेशं गुरूदेवातात्मा ।। मनुष्य सुख चाहता  है । वह भगवान का अंश है,  इसलिए पैतृक संपत्ति चाहता है- अनंत ज्ञान, अनंत  आनंद,  अनंत सत्ता ,  अनंत ऐश्वर्य, अनंत यश ;  लेकिन उनसे विमुख होने के कारण माया की संपत्ति जीव को मिल रही है  । चाहता है आनंद , मिल रहा है दुख,  चाहता  है ज्ञान , मि...

भगवान हर जगह , हर बस्तू , हर जीव में है । जो हर क्षण यह फिलिंग रखता है वो कभी पाप का नहीं सोंच सकता । भक्त वो जो हर किसी में भगवान को देखें और स्वयं में भी ।

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श्री महाराज जी के श्री मुख से :- भगवान हर जगह हैं वो आपके ह्रदय में भी हैं । वो आपके ह्रदय में वही पर है जहां पर आप है। और हमेशा से हैं और रहेंगे । मरने के बाद भी आप जहां जहां जाएंगे वो वहां वहां आपके साथ जाएगें , चाहे स्वर्ग जाए या नरक या दुसरा जन्म लेकर कुत्ते बिल्ली गदहे आदि किसी भी योनि में जाए , वो हमेशा साथ रहते हैं, वो एक सेकेंड को भी‌ हमसे अलग नहीं हो सकते ।  वो हमारे सायुज्य सखा हैं हमेशा साथ रहते हैं , आप इस बात को जानते हैं पर मानते नहीं । इसलिए उनके उपस्थिति से आपको कोई लाभ नहीं हुआ अबतक , आप सदा से भगवान से विमुख है , उल्टा मुख किये है। एक दिन विमुख हुए , ऐसा नहीं, आप सदा से उनसे विमुख हैं। आप उनको भुले हुए हैं । इसलिए मन से पाप कि सोचते हैं और करते हैं ।  आप समझते हैं जो मैं सोच रहा हुं वो कोई नहीं जानता , अरे वो सब नोट कर रहे हैं , भगवान आपके ह्रदय में बैठ कर आपके सभी संकल्पों को हर क्षण नोट करते रहते हैं , वो आपको रोकते टोकते नहीं, केवलआपके मन में उठे संकल्पों को नोट करते रहते हैं और तदनुसार आपको फल देते हैं । कर्म तो आप बाद में करते हैं , पहले कर्म करने कि ...

"भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं ।माने दैन्यभयम्, बले रिपुभयम्, रूपे जराया भयम् ।शास्त्रे वादिभयम्, गुणे कलभयम्, काये कृतान्ताद्भयंसर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ संसार में समस्संत दुखों तथा भय का एक मात्र कारण जीवों का संसार से मोह , अटैचमेंट है । "(Bhartrihari from the Vairagya shatakam)

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संसार में समस्संत दुखों तथा भय का एक मात्र कारण जीवों का संसार से मोह , अटैचमेंट है ।  सार में भगवद् प्राप्त संत को छोड़ कर एक भी जीव इस पृथ्वी पर नहीं हुआ या है जो किसी न किसी रूप में भय का शिकार न हो । और भय से मुक्ति तबतक नहीं हो सकती जबतक जीव भगवद् प्राप्ति न कर लेगा ।  दुनिया का प्रत्येक जीव चाहे वो संसार का कितना भी महान या प्रतापी बलिष्ठ राजा हीं क्यों न हुआ हो या आज पी एम , राष्ट्रपति , सी एम् या डी एम, उद्योगपति मंत्री , संतरी आदि है, कितना पावरफुल मनुष्य क्यों न है, वो भयभीत हैं अंदर से और रहेगा हमेशा तबतक जबतक वो भगवान को प्राप्त न कर ले । अरे मनुष्य को तो छोड़िए इंद्र वरूण कुबेर देवता आदि से लेकर रावण , कंस आदि महाबलशाली राक्षस भी भय से ग्रस्त था और उसी भय के कारण विनाश को प्राप्त किया ।  यह भय ही समस्त दुखों का कारण है ।   अब सवाल उठता है कि भय का असली कारण क्या है ?  तो श्री कृपालुजी महाराज जी ने भर्तृहरि रचित वैराग्य सतकम से निम्नलिखित श्लोक के माध्यम से बड़े अच्छे से हमें समझाए है । जो निम्नलिखित हैं -  "भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वि...