चूँकि यह वेद वाणी अनादि, नित्य, पुंदोष, पंक, कलंक, से सर्वथा असंसृष्ट है, अत: इसी वेद के द्वारा निश्चय होगा कि ' मैं कौन हूँ ' और वास्तव में 'मेरा' कौन है । सो , हमें वेद का अबलंब लेना पड़ेगा । पर हम वेद का अबलंब लें कैसे ? क्यों ?
चूँकि यह वेद वाणी अनादि, नित्य, पुंदोष, पंक, कलंक, से सर्वथा असंसृष्ट है, अत: इसी वेद के द्वारा निश्चय होगा कि ' मैं कौन हूँ ' और वास्तव में 'मेरा' कौन है । सो , हमें वेद का अबलंब लेना पड़ेगा । पर हम वेद का अबलंब लें कैसे ? क्यों ? क्योंकि -
परोक्षवादो वेदोऽयम् । (भागवत् ११-३-४४)
वेद में शब्द कुछ है, अर्थ कुछ है । इसे ईश्वर स्वरुप कहा गया है क्योंकि जैसे ईश्वर बुद्धि से परे है ऐसे वेद भी बुद्धि से परे है । यदि वेद बुद्धि से परे है तो हमारा काम कैसे बनेगा ? इस वेद को जानने वाले से ! वास्तविक महापुरुष से !!
वेदा ब्रह्मात्म विषया: । ( भागवत् ११-२१-३५)
इस सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ का वास्तविक लाभ किसी श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मार्गदर्शन में हीं उठाया जा सकता है । वास्तविक महापुरुष , जिसके पास सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ प्रैक्टिकल (अनुभवात्मक ज्ञान ) नॉलेज भी हो । वो भगवान को प्राप्त कर लिया हो , देखा हो , महसूस किया हो ।
केवल सैद्धान्तिक नॉलिज वाला व्यक्ति , जिसके पास प्रैक्टिकल नॉलेज नही है , गुरु बन जाए तो वो भला अपने शिष्य को कैसे भगवत् प्राप्ति करा सकता है ! वो बेचारा तो खुद खाली वर्तन है । वो भला दुसरे के प्यास को कैसे बुझा सकता है ?
असंभव ! ऐसे हीं हमारे देश में बहूत सारे वक्ता है , भगवत् चर्चा करते रहतें हैं । पर बेचारे खुद खाली है भीतर से । उनसे भला लोगों को क्या लाभ मिलेगा ? ऐसे समझ लिजिए इसको कि एक व्यक्ति जो खुद पानी में तैरना नही जानता , फिर किताब पढ़ कर दूसरे को पानी में तैरना सिखाए ! ये बड़ा गम्भीर प्रश्न हैं , सोंचना चाहिए सबको !
:- श्री महाराज जी
Comments
Post a Comment