अनन्यता ।
श्री महाराज जी :- अनन्यता
प्रश्न १२ पुस्तक, टी.वी. या प्रत्यक्ष दर्शन के माध्यम से हम अन्य संतों और उनके अलग-अलग सिद्धांतों के contact में आते हैं। उनके प्रति हमारी क्या भावना होनी चाहिए?
उत्तर: अपने गुरु के बताए हुए मार्ग के सिवाय अन्य किसी मार्गविषयक उपदेश सुनना-पढ़ना आदि भी कुसंग है, भले ही वह मार्ग महापुरुष निर्दिष्ट ही क्यों न हो। मान लो तुम भक्ति मार्ग की साधना कर रहे हो, कोई ज्ञान मागीय महापुरुष ज्ञान मार्ग का उपदेश कर रहा है। तुम उसे सुनोगे तथा सोचने लगोगे 'अरे! यह तो कुछ और ही कहता है। बस, तुम्हारे दिमाग में कूड़ा भरने लग जाएगा। तुम्हारी लघु बुद्धि की यह सामर्थ्य नहीं है कि वास्तविक तत्त्व पर पहुँच सके। इसी प्रकार अपने मार्ग में भी उपासना के अनेकानेक ढंग हैं, जो कि साधकों की रुचि एवं विश्वास पर निर्भर रहते हैं। तुम दूसरी साधना को देखोगे कि- अरे! यह बड़ी अच्छी साधना होगी क्योंकि मेरी साधना से तो अभी तक भगवत् प्राप्ति नहीं हुई।
कदाचित् उस साधना के प्रति यह दुर्भावना पैदा हो गई कि उसकी साधना सही नहीं है, तब तो और भी अपराध कमा बैठोगे। अतएव अपने गुरु के ही बताए मार्ग का निरन्तर चिन्तन, मनन एवं परिपालन करना चाहिए तथा अन्य मार्गावलम्बी साधकों अथवा अपने मार्ग के अन्यान्य प्रणालीयुक्त साधकों की साधना पर दुर्भाव नहीं करना चाहिए। यह समझ लेना चाहिए कि सभी की साधनाएँ ठीक हैं। जिसके लिए जो अनुकूल होती है, वह वही करता है। हमें इस उधेड़बुन से क्या मतलब।
अनेकानेक शास्त्रों वेदों, पुराणों एवं अन्य धर्म ग्रन्थों को पढ़ना भी कुसंग है। चौको मत! बात समझो। कारण यह कि वे महापुरुष के प्रणीत ग्रन्थ है, अतएव उन्हें हम भगवत् प्रणीत ग्रन्थ भी कह सकते हैं। तुम उन्हें पढ़कर अनन्तानन्त प्रश्न कर बैठोगे, जिनका कि समाधान अनुभव के बिना सम्भव नहीं।
तुलसीदास जी के शब्दों में
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक उरझाई॥
सारांश यह है कि एक प्रश्न के समाधान के लिए तुम शास्त्रों में अपनी बुद्धि को लेकर उत्तर ढूँढ़ने जाओगे, तो शास्त्रों का वास्तविक रहस्य न समझकर सैकड़ो प्रश्न उत्पन्न करके लौटोगे। क्योंकि पुन: तुलसी के ही शब्दों में
मुनि बहु, मत बहु, पन्थ पुराननि, जहाँ तहाँ झगरो सो
(विनय पत्रिका)
अर्थात् अनेक ऋषि-मुनि हो चुके हैं एवं उनके द्वारा अनेक मत भी हो चुके हैं। पुराणादिकों में इस विषय में झगड़े-ही-झगडे हैं। फिर तुम्हारी बुद्धि भी मायिक है, अतएव तुम मायिक अर्थ ही निकालोगे।
प्रश्न २ : ईश्वरीय साधना में अनन्यता पर क्यों इतना जोर
दिया गया है?
उत्तर : यह जानने के लिए पहले अनन्य शब्द का अर्थ समझना चाहिए। अनन्य का अर्थ है भगवान, गुरु, उनके धाम और उनके सन्त। इनके अतिरिक्त जितने जड़-चेतन हैं, सब अन्य हैं। अर्थात् मायिक हैं। किसी भी मायिक पदार्थ में हमारे मन की आसक्ति न हो, यही अनन्यता है।
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