मरते समय बड़ा कष्ट होता है। महापुरुष एवं साधारण मनुष्य के मरने में बड़ा अन्तर है। जनम मरण दुसह दुःख होई ।
श्री महाराज जी :- विचारणीय बात यह है कि जिसने जीवन भर भगवान का चिन्तन नहीं किया, क्या वह मरते समय भगवान का चिन्तन कर पाएगा? कभी नहीं मरते समय जिसका चिन्तन होगा, उसी की प्राप्ति होगी। मरते समय बड़ा कष्ट होता है। महापुरुष एवं साधारण मनुष्य के मरने में बड़ा अन्तर है। जनम मरण दुसह दुःख होई ।
जब हमारी मृत्यु होती है और प्राण को शरीर से निकाला जाता है, तब बहुत कष्ट होता है। उससे कम कष्ट जन्म के समय होता है। भगवान एवं महापुरुष जहाँ स्वेच्छा से प्राण छोड़ते हैं, वहीं हमसे प्राण छुड़वाए जाते हैं। अतः मरते समय जैसा चिन्तन होगा, उसी की प्राप्ति होगी। यदि सत्वगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो स्वर्ग का सुख प्राप्त होगा । रजोगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो मृत्युलोक की प्राप्ति होगी। वहीं यदि तमोगुणी व्यक्ति में आसक्ति है तो नरक की प्राप्ति होगी। अब यदि किसी की निर्गुणी महापुरुष और भगवान में आसक्ति हो गई, तो उसे आनन्द मिलेगा ।
अजामिल जो मृत्युशय्या पर बेहोश पड़ा था। उसने यमदूत एवं विष्णुदूत के मध्य वार्तालाप सुना, जिससे उसे तीव्र वैराग्य हो गया। स्वस्थ होने पर उसने एक वर्ष गंगाद्वार (हरिद्वार) में तप किया, साधना की। चूँकि वह पूर्व में तत्त्वज्ञ-वेदज्ञ-सदाचारी था, इसलिए अतःकरण शुद्ध होने में ज़्यादा समय नहीं लगा। अतः तुलसीदास जी जो श्रद्धा या अश्रद्धा से नाम लेने को कह रहे हैं
भाव कुमाव अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।
इससे भगवत्प्राप्ति नहीं होगी, क्योंकि वे स्वयं ही कहते हैं
वारि मधे बरु होय घृत, सिकता ते बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धांत अपेल ।
स्वयं शंकराचार्य ने भी कहा है -शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते । पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नामग्रहणे भविष्यति ।।
उसी प्रकार गौरांग महाप्रभु भी भगवन्नाम लेने की योग्यता बतलाते हुए कहते हैं नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा |
भगवन्नाम लेने के लिए पूर्व तैयारी आवश्यक है। चाहे गुरु सेवा कहें या साधना । तैयारी परम आवश्यक है। अर्थात् भगवन्नाम तभी काम देगा, जब हम रूपध्यान का भी अभ्यास करेंगे। चूंकि हम ढीठ हैं, इसलिए हमारे अंदर प्रेरणा डालने के लिए ही ऐसा कहा गया है। ऐसा कहने के पीछे उद्देश्य यह छिपा है कि हम किसी प्रकार नाम तो लें । सत्य तो यह है कि जब गुरु मिलेंगे, वे रहस्य बतलाएँगे एवं हम उनके मार्गदर्शन में भगवान के नाम, रूप, लीला, गुण का चिंतन कर अपना अंतःकरण शुद्ध करेंगे, तभी हमारा भाव बनेगा। तभी वह नामी मिलेगा। अतः नामी से नाम महत्वपूर्ण तभी है, जब हम नामी के नाम, रूप, लीला, गुण आदि का रूपध्यान भी करें। ऐसा करने पर ही हमारा काम बनेगा।:- श्री महराज जी 🙏❤️🙏
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