प्रश्न १ : क्या अर्थ दान जरूरी है? अगर है तो हमें कितना दान करना चाहिए?

श्री महाराज जी :- 
प्रश्न १ : क्या अर्थ दान जरूरी है? अगर है तो हमें कितना दान करना चाहिए?

उत्तर : धनवान को इस जन्म में पैसा मिल जाता है अपने आप। वह समझता है हम बड़े काबिल हैं। हमने ऐसा किया कि अरबपति हो गए। ऐसा कुछ नहीं है। पूर्व जन्म का दान काम देता है।

अदत्तदानाच्च भवेद् दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोति पापम्। पापप्रभावान्न नरके प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी॥

वेदव्यासजी ने कहा कि जो दान नहीं करता, वह अगले जन्म में दरिद्र बनता है। और जब दरिद्र बनता है तो फिर रोटी-दाल के लिए पाप करता है। और जो पाप करता है, तो फिर नरक मिलता है।

. गले बद्ध्वा दृढं शिलाम्
धनवन्त मदातारं दरिद्रं च तपस्विनं...।

वेदव्यास ने कहा है कि उन दोनों को बहुत बड़ी चट्टान गले में लटकाकर पानी में डाल देना चाहिए कि ऊपर न आवें, वहीं खत्म हो जाएँ।

कौन दोनो को ?

धनवन्त मदातारं- पैसा हाते हुए भी दान न करे और दरिद्र च तपस्विनं- दरिद्र हो फिर भी भगवान की भक्ति न करें, अकड़ा रहे। इन दोनों के गले में बहुत बड़ी शिला बाँधकर और अभंस निवेष्टव्यौ पानी में डाल देना चाहिए समुद्र में, वहीं खत्म हो जाएँ। इनके जिन्दा रहने का क्या फायदा?

यह पैसा साथ नहीं जाएगा और बच्चों को इतना पैसा इकट्ठा मिल जाएगा तो बचे आवारा होंगे। और पैसा कमाने में जो गलतियाँ की हैं, उसका दंड भी भोगना पड़ेगा।

पैसा अधिक आता है, अरबपति बनते हैं लोग। गरीबों का थोड़ा-थोड़ा पैसा profit लेकर तब millionaire बन जाते हैं। तो पैसा तो गरीबों का ही है वह और शास्त्र - वेद को मानते नहीं कि तुम्हें इतने percent दान करना ही है।

यावत् भृयेत् जठरं तावत्...।

जैसे bank में cashier होता है, वह केवल आठ हजार रुपये तनख्वाह का हकदार है। करोड़ों रुपया bank में वह गिना करे और बाँटा करे। उसका वह अधिकारी नहीं है। अगर हड़प करता है तो government उसके ऊपर case चला देगी और उसको सजा हो जाएगी। दुनियावी government में जैसे ऐसा होता है, ठीक उसी तरह वेदव्यास जी कहते हैं- जितने में तुम्हारे शरीर का काम चल जाए; रोटी-दाल-कपड़ा! तुम्हारा यह काम चल जाए जितने में, बस उतना अपने पास रखो। बाकी दान कर दो।
अब एक सौ रुपये की साड़ी पहनकर भी शरीर तक जाएगा और दस हजार की साड़ी पहनकर भी शरीर तक जाएगा। इस हजार की साड़ी क्यों पहनते हो? लोग तुम्हारी तारीफ थोड़े ही करेंगे? लोग कहेंगे- देखो! क्या शृंगार किए चलती है। school में पढ़ाती है, primary में और ठाठ देखो तो उसके।। तुम समझती हो, लोग तारीफ करेंगे। कोई नहीं करता किसी की तारीफ। सब मुँह पर तारीफ कर देते हैं, बाद में बुराई करते हैं। सबका यह कायदा है, सारे विश्व का तो क्यों इतना पैसा बरबाद करते हो? आदत क्यों खराब करते हो?

तुम्हारा इतना ही अधिकार इस सृष्टि में भगवान ने दिया है, जितने में तुम्हारा काम चल जाए।

अधिकं योभिमन्येऽत- इससे अधिक खर्च करो या इकट्ठा करो तो सस्तेनो वह चोरी है और दंडमर्हति उसको दंड मिलेगा। जैसे income tax चुराने वाले को दंड मिलता है। अरे! दान के बल से ब्रह्मा, विष्णु, शंकर को दास बना दिया हरिश्चन्द्र ने। केवल दान से! और कोई तपस्या नहीं की। और फिर जितने धर्म के स्वरूप हैं, वे सब कलियुग में लुप्त हो गए हैं।

प्रकट चारी पद धर्म के कलि मँह एक प्रधान।
 येन केन विधि दीनउ दान करै कल्याण ॥

दान एक धर्म ऐसा है कलियुग में, जो सबसे important है। लेकिन वहाँ भी शर्त है कि सत्पात्र में होना चाहिए। पात्र के अनुसार दान का फल मिलता है। ऐसा भी हो सकता है कि तुमने दान किया और तुमको नरक भोगना पड़े। एक भूखा आदमी था, उसको तुमने खाना खिला दिया और ताकत आ गई। उसने murder कर दिया। तुम जिम्मेदार हो। 'अरे साहब ! मुझे क्या मालूम ?' मालूम हो, न हो। Government का कानून किसी को नहीं मालूम है, तो सजा नहीं मिलेगी क्या? वह दंड तो मिलेगा ही।

दान भक्ति का सहायक है। 
चेतस् तत् प्रवणं सेवा तत् सिद्ध्यै तन्निमित्तजा।

 मन से उपासना करना, यह भक्ति है। तन और धन, इन दोनों के द्वारा सेवा करना परमार्थ की ये helper हैं। भक्ति तो मन वाली ही असली है। वह तो चूँकि उसके पास शरीर है, चूँकि उसके पास धन है, इसलिए उसका सदुपयोग करने की उसकी compulsory duty है। करना चाहिए। वरना वह हानिकारक हो जाएगा मन की साधना में अहंकारवर्धक हो जाएगा और तमाम दोष पैदा हो जाएँगे उसमें। इसलिए इनको देता रहे तो शरीर का अहंकार भी न होने पाए, धन का अहंकार भी न होने पाए। तब मन वाली उपासना ठीक चलेगी।
:- श्री महाराज जी 🙏❤️🙏

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