प्रश्न ३: हमारे देश में गीता बहुत प्रचलित ग्रंथ है। लोग अकसर इसके वाक्य को व्यवहार में लाने का दावा करते हैं, खास कर के जो अपने आप को कर्मयोगी मानते हैं। तो क्या सभी गीता के अधिकारी हैं? वास्तविक गीता ज्ञान वाला कौन है ?

श्री महाराज जी । 
प्रश्न ३: हमारे देश में गीता बहुत प्रचलित ग्रंथ है। लोग अकसर इसके वाक्य को व्यवहार में लाने का दावा करते हैं, खास कर के जो अपने आप को कर्मयोगी मानते हैं। तो क्या सभी गीता के अधिकारी हैं? वास्तविक गीता ज्ञान वाला कौन है ?

उत्तर : ब्रह्मा अपने तीनों बच्चों की सभा में गए- देवता, मनुष्य, राक्षस। सत्त्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी। सबने कहा- महाराज! एक lecture दे दीजिए। तो उन्होंने कहा- 'द, द, द' और चले गए ब्रहा लोक। 

हो गया lecture | तो देवता लोग नहीं समझ सके, मनुष्य भी नहीं समझ सके क्योंकि जितना गंभीर तत्व हो, उसके समझने के लिए उतनी बड़ी बुद्धि चाहिए। अधिकारी चाहिए। गीता में लिखा है-

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
 न चाशुश्रूषवे वाच्य न च मां योऽभ्यसूयति ।

यह गीता में लिखा है कि इस गीता के उपदेश को उसको न देना। किसको? जो तपस्वी न हो। तपस्वी माने इन्द्रियों पर control नम्बर दो- तपस्वी भी हो और भगवान का भक्त भी हो। Cent percent शरणागत हो। नहीं तो वह कहेगा- "भगवान ने तारीफ की है गीता में अपनी मैं ही भगवान हूँ, मैं ही भगवान हूँ, मेरी शरण में आ जा...। यह तो अपने मुँह मिया मिट्ठू बन रहे हैं भगवान श्रीकृष्ण! हमारे संसार में तो लोग अपने को दीन भाव से पेश करते हैं।'

तो तपस्वी भी हो, भक्त भी हो और जो मुझको भगवान मानकर के भक्ति करता हो। यानी ये चार शर्तें पूरी हो जाएँ, उसको गीता सुनना चाहिए। वह समझ सकता है गीता को, वरना गीता तो सब पढ़ते हैं। छोटी-सी किताब तो है, ७०० श्लोक हैं। याद किए हैं इतने-इतने बच्चे। लेकिन क्या मतलब है उसका? कुछ नहीं। practical में कुछ नहीं। 

बड़े-बड़े lecturer गीता का lecture देते हैं, खुद संसार में आसक्त हैं। एक बूँद आँसू नहीं भगवान के लिए, वह क्या जाने गीता क्या होती है?
गौरांग महाप्रभु के जमाने में एक भक्त गीता का पाठ करता था और गलत-फलत। संस्कृत आती नहीं थी, तो गलत-फलत बोलता था। किसी पंडित ने सुन लिया, तो पंडित ने कहा कि तुम तो गीता का पाठ गलत कर रहे हो, यह तो पाप है , यह भगवान की वाणी है।

वह चुप हो गया। तो गौराग महाप्रभु से शिकायत किया कि 'महाराज जी, वह गीता का पाठ करता है और संस्कृत आती नहीं उसको।'

तो उन्होंने बुलवाया और कहा-'क्यों भाई, तुम कैसे गीता का पाठ करते हो? कुछ समझते भी हो?' वह बोला- नहीं महाराज, हम तो कुछ नहीं समझते।

 बस, यह ध्यान करते हैं कि भगवान रथ में बैठे है, अर्जुन बैठा है और भगवान बोल रहे हैं, अर्जुन सुन रहे हैं- यही ध्यान करता हूँ। तो गौरांग महाप्रभु ने चिपटा लिया उसको कि यही तो गीता है। गीता का अभिप्राय यही है बस। जितनी देर भगवान में मन लगाओ, बस उतनी देर तक गीता का ज्ञान तुमको है। मान लिया गया। भगवान में जिस क्षण मन नहीं लगा, तुम गीता नहीं जानते। गीता का तुम्हें ज्ञान नहीं है, धोखा है तुमको। चाहे दिन-रात lecture दिया करो। भगवान में मन लगाओ- यह गीता है। गीता के अंत में भगवान ने अर्जुन से कहा:-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
निरन्तर मन मेरे में रहे और युद्ध कर।

तो मन जहाँ रहेगा उसका फल मिलेगा। कर्म जो करेगा उसका फल नहीं मिलेगा। Murder कर, डर मत हजार खून कर उसका दंड नहीं मिलेगा, अगर मन मुझमें रहेगा। बस यही गीता का सारांश है, यही तत्त्वज्ञान है।

जो गीता के तत्त्वज्ञान का जिज्ञासु होगा, वह तत्त्वज्ञान सुनते ही तल्लीन हो जाएगा भगवान में यह पहिचान है कि यह श्रोता सही है। और जो सुनकर सिर हिला दिया खाली और उसके बाद अपनी natural अवस्था में संसार में मस्त है, उसने कहाँ समझा गीता? उसको विश्वास नहीं है गीता के वाक्य पर • विश्वास main चीज़ है भक्ति में बहुत कमाल किया श्रोता ने जो कह दिया- 'बड़ा अच्छा समझाया। वाह वाह वाह !"" अरे! उसने समझाया, उससे तुम्हारा काम भी बना कुछ? खाली समझने से क्या होगा? जब से पैदा हुआ आदमी सुन रहा है, पढ रहा है- सच बोलना चाहिए, झूठ बोलना पाप है। हर एक गँवार भी इसको जानता है, पढ़ता है। लेकिन झूठ बोलता है। वह तत्त्वज्ञान से फायदा क्या हुआ? जब तक अमल में न आवे तो सुनता रहे, याद भी कर ले, वक्ता बन जाए तो भी कोई फायदा नहीं। :- श्री महाराज जी

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।