भगवद् प्राप्त महापुरुष के सानिध्य तथा दर्शन का महत्व।
हमारी प्यारी बड़ी दीदी :- हरि-गुरु अवलम्बाकांक्षी हम सभी साधकगण 'गुरवे नमः' के सुमधुर उच्चरण के साथ कृतज्ञता का भाव हृदय में समेटे प्रतिदिन अपनी दिनचर्या का शुभारंभ करते हैं। किन्तु यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हमने कभी 'गुरवे नमः' के वास्तविक अर्थ की गहराई में स्वयं को उतारने की कोशिश की है? कौन हैं गुरु? क्यों उन सा हितैषी हमारा कोई नहीं? क्यों ऐसे परम हितैषी के होते हुए भी अब तक हम उनकी कृपा का लाभ नहीं ले पाए हैं? क्यों भगवज्जन मिलन को भगवत्कृपा का सबसे पक्का प्रमाण कहा गया है?
जब हम ऐसे अनेक प्रश्न स्वयं से करेंगे तो स्वतः ही हरि और हरिजन की कृपा का चिन्तन बारम्बार होगा। इस चिंतन में जितनी कड़ियाँ जुड़ती जाएँगी, उसके चमत्कार से हम उतने ही अधिक चमत्कृत होते चले जाएँगे। उनके दर्शन मात्र की कामना हमें रोमांचित कर देगी। दर्शन मात्र आनन्द विभोर कर देगा और यदि दर्शन के अतिरिक्त सामीप्य भी मिल गया तो फिर बात ही क्या है ! इस अमूल्य निधि को पाकर क्या इससे भी अधिक और कुछ पाना अभी शेष है । आप कहेंगे- और भगवान का मिलन...। भगवान का मिलन उतना महत्वपूर्ण नहीं होता, जितना उनके जन का मिलन क्योंकि हरि-गुरु कृपा का बार-बार चिन्तन गुरु द्वारा प्रदत्त तत्त्वज्ञान से ही संभव है। उनकी कृपा को बार-बार फील करना ही सर्वश्रेष्ठ साधना है। जब तक साधना से पात्रता नहीं आएगी, तब तक भगवान के मिल जाने पर भी हममें उनके प्रति भगवत्बुद्धि अंकुरित नहीं होगी। हममें संबंध ज्ञान नहीं पनपेगा। हमारे अन्तर में उनके लिए वास्तविक प्रेम प्रस्फुटित नहीं होगा। तब हम पर हरि की वह वास्तविक कृपा कैसे होगी, जिससे हमें अपने प्रिया प्रियतम का दिव्य प्रेम प्राप्त हो सकेगा ।
अतः हमारा काम तो गुरु से ही बनेगा, हरि से नहीं। हम सब पर ऐसे परम 'कृपालु' प्रभु की कृपा हो चुकी है। उन्होंने हमें अपना लिया है। यदि ऐसा न होता तो हमें उनके दर्शन ही क्यों होते ! बस, हमारा अब एक ही काम है, उन पर पूर्ण विश्वास रखना। इससे हमारा संबंध दृढ़तर से दृढ़तम होता चला जाएगा और इस क्रम में एक दिन पूर्णता की प्राप्ति अवश्य होगी।
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