प्रश्न २ : ज्ञान, विश्वास और प्रेम- इन तीन शब्दों का व्यापक व्यवहार है संसार में भी और हर धर्म में भी इसका वास्तविक अर्थ हमें बताइए?
श्री महाराज जी :-
प्रश्न २ : ज्ञान, विश्वास और प्रेम- इन तीन शब्दों का व्यापक व्यवहार है संसार में भी और हर धर्म में भी इसका वास्तविक अर्थ हमें बताइए?
उत्तर : इसका तुलसी दास ने बड़ा सुंदर निरूपण किया है। उन्होंने लिखा है
जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥ पहला ज्ञान है, दूसरा विश्वास है और तीसरा है प्रेम। ज्ञान और विश्वास ये दोनों दो प्रकार से होते हैं- एक तो theoretical और एक practical । पहले theoretical होगा। कोई भी ज्ञान होगा, तो पहले theory में होगा। जब theory में ज्ञान होगा, तो वह ज्ञान अपरिपक्व होगा, doubtful होगा क्योंकि अनुभवहीन
है। इसलिए विश्वास जो उसका होगा, वह भी कच्चा होगा। कभी होगा, कभी कम होगा, कभी नहीं होगा। इस स्थिति में रहेगा वह जो practical साधना करने लगता है ज्ञान के बाद, theory के ज्ञान के बाद! तो जितनी limit में वह साधना में आगे बढ़ता है, उतनी limit में उसका विश्वास पक्का होता है। टिकाऊ होता है। फिर वह गिर नहीं सकता। ५०%, ७०%, ८०% ऐसे विश्वास दृढ़ होता है। और जब साधना पूरी हो जाती है, जिसको मैंने अभी बताया- अंतःकरण शुद्धि! साधना जब परिपूर्ण हो गई, तब विश्वास परिपूर्ण हुआ। तब प्रेम मिलता है! तो प्रेम मिलने के बाद फिर ज्ञान और विश्वास उसी में लीन हो जाते हैं, फिर खाली प्रेम बचता है।
यह भगवत् विषय ज्ञान की theory है। इस प्रकार का क्रम है। उसका। और जगत में भी ऐसा ही होता है करीब-करीब। हम किसी के गुण को सुनते हैं, किसी की प्रशंसा सुनते हैं तो विश्वास करते हैं। लेकिन वह doubtful विश्वास होता है। जब उसको हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, तो हमारा विश्वास दृढ होता है। फिर उससे प्यार होता है। लेकिन यहाँ का ज्ञान, यहाँ का विश्वास, यहाँ का प्रेम सब क्षणभंगुर है, वह कितना ही बड़ा हो जाए! क्योंकि मायिक जगत का ज्ञान परिवर्तनशील है और ईश्वरीय जगत का ज्ञान सदा के लिए स्थायी है प्रतिक्षणवर्धमानम् । :- श्री महाराज जी 🙏❤️🙏
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