मन के गंदगी को साफ करने का क्या उपाय है ?

'चेतोदर्पणमार्जनम्'- भीतर की गंदगी को साफ करने का और कोई उपाय नहीं है।

 'प्रेम भगति जल बिनु रघुराई, अभिअंतर मल कबहुँ की जाई'
 -केवल अविरल अश्रुपात ही अन्तःकरण को शुद्ध कर सकता है।

कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना विनाऽऽनन्दा श्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः ॥

श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा- जब तक शरीर में रोमांच नहीं होगा, आँसू नहीं निकलेंगे तो यह अंतःकरण शुद्ध नहीं होगा।

यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ मत्पुणयगाथाश्रवणाभिधानैः ।

तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं चक्षुर्यथैवांजनसम्प्रयुक्तम् ।

फिर कहते हैं- जितनी मात्रा में आँसू बहाओगे, उतनी मात्रा में अंतःकरण की सफाई होगी और जितनी मात्रा में सफाई होगी, उतनी मात्रा में वह सूक्ष्म वस्तु दिखाई पड़ेगी। प्रभु, की सेवा, उनके जनों की सेवा हमको दिखाई क्यों नहीं पड़ती? क्योंकि हमारा अंतःकरण उतना निर्मल नहीं है। अंतःकरण में जितनी निर्मलता आएगी, उतनी मात्रा में प्रभु, उनके जन, उनके जनों की सेवा दिखाई पड़ेगी। जितनी में मात्रा में वह दिखाई पड़ेगी, उतनी मात्रा में सेवा की व्याकुलता बढ़ती जाएगी और जितनी मात्रा में व्याकुलता बढ़ती जाएगी, उतनी मात्रा में में अंतःकरण की गंदगी की सफाई होती जाएगी। 

तो, नाम संकीर्तन का लाभ- अंतःकरण की शुद्धता -यह प्रथम लाभ है ।  

प्रारब्ध के अनुसार संसार में कष्ट होगा, लेकिन उसका अनुभव नहीं होगा यह दूसरा लाभ‌है।

 हृदय में शीतलता का अनुभव -तीसरा लाभ।

 वास्तविक विद्या का स्वत: प्राकट्यकरण गुरू द्वारा -चौथा लाभ है ।

उस विद्या का स्वरूप क्या है? -विद्या वधू जीवनम्। 
यह बहुत ही प्रासंगिक है। वह विद्या अपने को छिपाती है वधू के समान शास्त्र - वेद के शाब्दिक ज्ञान को भी वेद ने कह दिया- अपरा विद्या। यह आवश्यक है, लेकिन यह विद्या यदि अनुभवात्मक ज्ञान में रूपांतरित नहीं होगी, तो यह अहंकार को बढ़ाएगी।

"द्वे विद्ये वेदितव्ये परा चैवापरा च'

दो विद्या आवश्यक है- एक है शाब्दिक 'तत्रापरा'। वह अपरा क्या है? - शास्त्र वेद का शाब्दिक ज्ञान। दूसरा है परा विद्या। जब शाब्दिक ज्ञान अनुभवात्क ज्ञान में रूपान्तरित होगा, तभी वह परा विद्या है। शुद्ध विद्या है। गौरांग महाप्रभु कहते हैं। चौथा लाभ 'विद्यावधूजीवनम्'-वास्तविक विद्या तो वधू के समान है, जो अपने आपको छिपाती है। और यह जो अविद्या है, वह अपने आपको दिखाती है। 'आनन्दाम्बुधिवर्धनम्'- और जो आनन्द सदा के लिए मिल जाए, सब समय बढ़ता जाए, अनंतमात्रा का हो वह दिव्यानंद है, जिसकी हम तलाश में हैं।

यानी हमलोग जो-जो चीजें चाहते हैं, सारी चीजें नाम संकीर्तन से मिलेंगी- अंतःकरण की सफाई होगी, संसार में कष्ट होगा, लेकिन अनुभव नहीं होगा। हृदय में शीतलता का अनुभव होगा। वास्तविक विद्या का प्राकट्य होगा। और दिव्यानंद की प्राप्ति होगी। लेकिन शर्त्त वही है! नाम में नामी विद्यमान हैं -यह विश्वास और यह विश्वास दृढ कैसे होगा जब चार योग्यताओं से युक्त होते जाएँगे। जितनी मात्रा में यह विश्वास होता जाएगा कि नाम चेतन है, जितनी मात्रा में ये चार योग्यताएँ आएँगी, उतनी मात्रा में हम निष्काम बनेंगे और व्याकुल होंगे। यह निष्कामता और व्याकुलता क्यों आवश्यक हैं? क्योंकि! वे जो हमारे शरण्य हैं, उनकी सेवा करना हमारा नित्य धर्म है । :- पुज्यनियां राजेश्वरी देवी जी ।

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