"भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी "" तेही अधीन ज्ञान विज्ञान" " त्यागहिं कर्म शुभाशुभ दायक "

''ज्ञानकर्मानद्यनावृतं '' 

अर्थात् भक्ति में ज्ञान , कर्म , यज्ञ, दान , योग , तपस्या , आदि का आवरण नहीं होता | 

तुलसी के शब्दों में भी :-

"भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी "
" तेही अधीन ज्ञान विज्ञान" 
" त्यागहिं कर्म शुभाशुभ दायक "

भागवत कहती है :- 
"आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान् 
धर्मान्सत्यज्य य: सर्वान्मां भजेत्स च सत्तम: " 
                                 (भागवत् ११ वा स्कंध)
अर्थात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वर्णाश्रम- व्यवस्था का विधि - निषेधात्मक विधान मेरा ही वनाया हुआ है , किन्तु जो उसे छोड़कर एकमात्र मेरा ही भजन करता है , उसे कर्मो के परित्याग का दोष नही लगता , एवं वह मेरा अत्यन्त प्रिय हो जाता है | 
किंतु यह स्मरण रहे कि यदि भगवदाराधना भी नहीं करता , एवं उन विधि - निषेधात्मक भगवद्विधान का परित्याग कर देता है , तो वह विधान के अनुसार ही दण्डनीय होगा | 
यह नियम तो एक विशेष नियम है कि भगवान् निमित्त उसने समस्त धर्मो का परित्याग किया हैं , अतएव यह सर्वथा क्षम्य एवं भगवत् प्रिय हैं भागवत कहती है :-

" देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किंकरो नायमृणी च राजन् !
सर्वात्मना य: शरणं शरणव्यं गतो मुकुन्दं परिह्रत्य कर्तम् "
                                  ( भा. ११ स्कंध)

अर्थात जो विधि-निषेधात्मक धर्मो का परित्याग करके , सर्व - भाव से मेरी ही शरण हो जाता है , उसके लिये , देवऋण , ऋषिऋण , पितृऋण एवं अन्य भूत्ऋण , मनुष्यऋणादि के बंधनों से छुटने का आवश्यक नियम लागू नहीं होता |
वह इन ऋणों का दास नहीं माना जाता | यह भी एक विशेष नियम है | किन्तु जो उच्छृंखलतावश शरणागत न होते हुये भी विधिनिषेधात्मक विधान का परित्याग करेगा , वह विधान के अनुसार दण्डनीय होगा | 
यदि साधक भक्त , जो एकमात्र श्रीकृष्ण के शरणागत है , कदाचित् कुछ पाप - कर्म कर भी जाता है तो अकारण - करुण भगवान् श्री कृष्ण उसके ह्रदय में प्रविष्ट होकर उस विकार को नष्ट कर देते हैं , एवं उसको फिर उठा लेते हैं | 
यही तो उनका दयालुता है , तथा यही तो महापुरुषों के योगक्षेम वहन करने का अन्तरंग रहस्य है | 
चलते चलते यदि कदाचित् बच्चा गिर जाता है , तब पुत्रवत्सलता अम्बा अधीर होकर तत्क्षण ही उसे उठा लेती है , क्योंकि वह वालक तो एक मात्र माता के उपर हीं निर्भर है , किंतु यदि सम्पूर्ण - भाव से शरणागत नही है , नाटकीय रुप से ही शरणागति का स्वांग रचता है , तब योगक्षेम वहन करने का विधान लागू नहीं होता |
उसके उत्थान , पतन के विषय में तटस्थ हो कर कर्मानुसार ही भगवान् फल प्रदान करते हैं | यह गूढ़तम रहस्य है | 
अतएव शरणागत - साधक को अपने किसी भी कर्मादि की अपेक्षा नहीं , उसे तो केवल अपने भक्तिमार्ग - सम्बन्धी विधि - निषेधों का ही पालन करना चाहिये | 
संक्षेप में विधि यह हैं :- 

" स्मर्तव्य: सततंकृष्ण: " अर्थात निरन्तर श्री कृष्ण का स्मरण करना चाहिये , तथा निषेध यह है :- 
"विश्वमर्तव्यो न जातुचित् " अर्थात श्री कृष्ण को कभी न भूलना चाहिये , जो शरणागत भक्त इस विधि-निषेध का पालन करता है , उसके लिये किसी भी अन्य लैकिक , वैदिक , विधि- निषेध की अपेक्षा नहीं | 

 - श्री महाराज जी ( भक्तियोग पेज ५९, ६०) 
राधे राधे

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