मुक्ति की कामना तो भुक्ति से भी भयानक हैं |" गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानम् " ( नारद जी )" सर्वाभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् " ( रुपगोस्वामी)" अहैतुक्यव्यवहिता या भक्ति: पुरुषोत्तमे " ( वेदव्यास )
मुक्ति की कामना तो भुक्ति से भी भयानक हैं |
" गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानम् "
( नारद जी )
" सर्वाभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् "
( रुपगोस्वामी)
" अहैतुक्यव्यवहिता या भक्ति: पुरुषोत्तमे "
( वेदव्यास )
तात्पर्य यह कि सभी शास्त्रों का यही निर्विवाद सिद्धान्त है , कि मौक्षपर्यन्त की इच्छायें भगवत्प्रेम में बाधक हैं |
इस विषय में तुलसीदास का एक दोहा मुझे अत्यन्त प्रिय लगता है :-
बध्यो बधिक पर्यों पुन्यजल | उलटि उठाई चोंच |
तुलसी चातक प्रेम पट | मरतहुं लगी न खोंच ||
अर्थात एक बहेलिये ने , एक चातक को बाण मारा | वह चातक पुण्यसलिला भगवती - भागीरथी-गंगा में बाण से बिंधा हुआ गिर गया , किंन्तु उसने यह सोंच कर चोंच, जल के उपर उठा लिया कि कहीं मृत्युकाल में , गंगाजल के द्वारा मेरी मुक्ति न हो जाय !
धन्य है उस चातक को ! जिसने मृत्यु काल में भी प्रेम के उज्ज्वल वस्त्र पर मोक्ष का धब्बा नहीं लगने दिया | चोंच के ऊपर उठाते ही चातक मर गया , किंतु अपने प्रेम को अमर कर गया | यही तो प्रेम का आनंद है |
मेरी राय में तो मुक्ति से भी अच्छी भुक्ति ( संसारीक विषय-भोग ) ही है , जिसमें कम से कम , यह आशा तो रहती है कि कभी न कभी संसार से वैराग्य होगा , महापुरुष मिलेगा , साधना होगी , एवं भगवत्प्रेम मिलेगा | किंतु यदि कहीं मुक्ति हो गई , तब तो सारा खेल खत्म हो जाएगा | तात्पर्य यह कि पुनर्जन्म न होने के कारण जीव , सदा के लिये प्रेमरस से वंचित हो जायगा | अतएव मुक्ति की कामना तो भुक्ति से भी भयानक है | उससे सदा सावधान रहना चाहिये | क्योंकि भगवान् भी मुक्ति देकर भक्त को धोखा देना चाहते हैं | महापुरुषों ने तो मुक्ति को पिशाचिनी बताया है | यथा रुपगेस्वामी :-
" भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत् पिशाची ह्रदि वर्तते
यावद्भक्तिसुखास्यात्र कथमम्युदयो भवेत् "
:- श्री महाराज जी ( भक्तियोग पेज :- ९४)
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