गुरु भक्ति अति कठिन है ज्यों खाड़े की धार,बिना साँच पहुँचे नहीं महा कठिन व्यवहार।।

गुरु भक्ति अति कठिन है ज्यों खाड़े की धार,

बिना साँच पहुँचे नहीं महा कठिन व्यवहार।।

भगवान को पाने के लिए हमे गुरु निर्दिष्ट साधना करनी होगी। इसी 'साधना' हेतु हमारे 'कृपालु गुरुदेव' निरंतर अथक परिश्रम कर रहे हैं किन्तु जैसे-जैसे साधक इस मार्ग में अग्रसर होता है उसकी परीक्षाएँ कठिन होती जाती हैं। गुरुदेव का व्यवहार भी समझ से परे होने लगता है। वो उल्टा व्यवहार करने लगते हैं, हम सोचते हैं हमें पहचानते नहीं,जानते नहीं,हमसे अब बात नहीं करते और गुरु में दोष बुद्धि लगा बैठते हैं, तब हमारी भ्रष्ट बुद्धि गुरुदेव संभाल लेते हैं। बाहर से विपरीत व्यवहार करते हुए भी वे अपने सच्चे साधक को अंदर ही अंदर संभालते रहते हैं, बहुत तरह की कठिन परीक्षा लेता है गुरु भी, अत: इस साधना के लिए गुरु भक्ति परमावश्यक है और गुरु भक्ति करना अति कठिन है। प्रेम अथवा भक्ति के ध्वंस होने का कारण हो फिर भी अनुकूल चिंतन बना रहे- यह कठिन है किन्तु परेशान न हों-साँच अर्थात सरल के लिए यह भक्ति सरल है। हम सबको पूर्ण विश्वास है कि गुरु कृपा से हम एक दिन अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेंगे।

" यह कृपालु जिय परम भरोसों कबहूँ तो हरि अपनाईहैं।

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।