प्रलय क्या है, कब होता है , कैसे होता है , कितने प्रकार का प्रलय होता है , सृष्टि कैसे होता है ?
बहुत बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न तथा उत्तर ।
प्रश्न :- कुछ लोगों का प्रश्न है कि अनेकों जगह शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान ने माया का संसार का बनाया है, पर तत्वज्ञान कहता है कि जीव और माया सदा से है जैसे भगवान सदा से है और ब्रह्मा जी को भी सृष्टि कर्ता कहा गया है और भगवान श्री कृष्ण को भी । तो यह विरोधाभास क्यों कंफ्यूजन क्यों ?
दुसरा प्रश्न :- प्रलय क्या है, कब होता है , कैसे होता है , श्री महाराज जी के तत्वज्ञान के आधार पर आप संक्षिप्त में समझावें ?
उत्तर :-
सबसे पहले हमें समझना होगा इस संसार के उदाहरण से ही कि संसार में भी कोई भी जीव किसी दुसरे जीव को बनाता नहीं है ,
वल्कि पुरूष और स्त्री के रज और बीज के संयोग से मां के गर्भ में जीव के शरीर का निर्माण या विकाश अपने आप होता है ।यहां तक की यह रज और बीज भी मनुष्य या कोई भी प्राणी या जीव बनाता नहीं स्वयं , यह उसके शरीर के अन्नमय कोष से भगवान की प्रदत शक्ति से स्वयं बनता है ।
बनाना तो उसको कहते हैं जैसे कोई जीव संसार का कोई पदार्थ लेकर अपना घर बना लिया , कोई सामान बना लिया । कोई तसवीर या मुर्तियां बना ली ।
पर वही जीव अपने रज बीज को बना नहीं सकता , ना कोई वैज्ञानिक बना सकता है इसे ।
फिर मां के गर्भ में उसी रज और बीज के मिलने से जीव के शरीर का निर्माण होता है उसके अन्नमय कोष से , वो भी स्वत: , इसमें जीव की इच्छा या अपेक्षा का कोई जगह नहीं ।
ऐसा नहीं की कोई जीव अपनी इच्छा से अपने तरिके से किसी मुर्तिकार या चित्रकार की तरह अपने अनुरूप कोई तसवीर बना लें ।
यह असंभव है । तो बनाना तो उसको कहते हैं जैसे कोई चित्रकार अपनी इच्छा से जैसा चाहे वैसा रूप वाला, रंग वाला , मुर्ती या तस्वीर बना लें ।
अत: पुरूष तथा स्त्री के रज एवं बीज से एक जीव के शरीर के निर्माण की प्रक्रिया अपने आप होती है , इसमें जीव का कोई ऐसा योगदान भी नहीं की वो अपनी मर्जी से चाहे तो लड़की का शरीर या लड़का का शरीर और उसका रूप रंग का विकाश भी अपनी इच्छा से कर ले , और अपनी इच्छा से जब चाहे , जितना देर चाहे और फिर जन्म दे दे , ऐसा विल्कूल संभव नहीं है चाहे विज्ञान कितना भी तरक्की कर लें ।
तो यह हम सभी जानते हैं कि पुरूष के रज से एवं स्त्री के बीज के संयोग से स्त्री के गर्भ में भगवान की इच्छा से उनके नियम से किसी तीसरे जीव के शरीर का निर्माण होता है, फिर उसमें जीवात्मा का प्रवेश होता है जो सदा से है, जीवात्मा की उत्पत्ति नहीं होती है , उसका नव शरीर में प्रवेश होता है केवल और फिर नौवें महीने में वो अपने मां के उदर से इस संसार में प्रकट होता, जिसको जीव का जन्म कहते हैं , जबकी आत्मा अजन्मा है भगवान की तरह , केवल ने शरीर में उसका जन्म होता है । तो यह तो मायिक जगत् की बात है ।
पर दैविक जगत् में यह रज और बीज वाली बात भी नहीं है लेकिन दुसरी बात लगभग वैसा हीं मिलता जुलता है कुछ हद तक , जिसमें परम पुरुष यानि भगवान के महोदर ( यानि महाऊदर ) में प्रलय काल में जो पेंडिंग में जो ब्रह्मांड लय रहता है वो भगवान के संकल्प शक्ति से फिर प्रकट होता है , उसका नियमन होता है , संचालन होता है और फिर समय आने पर उनके हीं संकल्प शक्ति से संसार का प्रलय होकर उनके महोदर में लय हो जाता है ।
तो इसी प्रकटीकरण तथा लय के प्रक्रिया के कारण भगवान को सृष्टि का निर्माता कहा गया है , उनको सृष्टि कर्ता भी कहा गया है , बनाने वाला भी कहा गया है, और कहीं कहीं उनको सृष्टि का कारण भी कहा गया है । और उनके इस कार्य को "विश्व व्यापार बर्जनं" भी कहा गया है ।
अत: एक बात हमेशा के लिए नोट कर अपने दिमाग में बैठा लिजिए की शास्त्रों के बातों को उसके शाब्दिक अर्थों के आधार पर कोई जीव नहीं समझ सकता है कभी अपने मायिक बुद्धि-विवेक से ।
क्योंकि शास्त्रों में , वेदों में , पुराणों में , भगवद् , गीता या रामायणो में शब्द कुछ और है पर उसका वास्तविक अर्थ कुछ और है ।
भोले भाले पंडित और ज्ञानि इन शास्त्रों के शब्द का शाब्दिक अर्थ के आधार पर अपने बुद्धि से समझने के कारण अनर्थ कर लेते हैं और वही अनर्थ के रूप में संभाषण के रूप में लोगों को बांचते रहते हैं तथा स्वयं तो भ्रम का शिकार होते हीं है और दुसरे को भी भ्रमित कर नर्क में धकेलने का भागी बनते हैं , अंधविश्वास और कुरितियो का निर्माण ऐसे ही अनर्थ ज्ञानियों के द्वारा संसार में फैला है ।
शास्त्रों को भगवान को , तथा स्वयं को समझना है तो इसलिए कहा गया है कि वास्तविक महापुरूष को अपना गुरू बनाओ , उनसे समझो , तुम कौन हो , संसार क्या है , माया क्या है , जीव क्या है और भगवान क्या है , शास्त्रो के शब्दों का वास्तविक अर्थ क्या है तब जाकर साधना करो और फिर भगवान को प्राप्त करो ।
अपनी खोपड़ियां मत लगाओ और शब्दक ज्ञानि से ज्ञान मत लो । नहीं तो पतन होगा ही होगा ।
किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ट महापुरुष की शरण में हीं जाओ । यह सब बतलाया गया है श्री महाराज जी द्वारा ।
अब आइए प्रलय को समझते हैं
तो श्री महाराज जी ने हमें ज्ञान कराये है कि :-
प्रलय के चार प्रकार के होते हैं- १. नित्य प्रलय ,। २. नैमित्तिक प्रलय ३. आत्यांतिक प्रलय और ४. प्राकृतिक प्रलय या प्राकृत प्रलय ।
पहला - नित्य प्रलय , यह प्रलय प्रति दिन होता है जीवों के लिय । जब जीव रात को गहरी निंद में सोता है , और जब सपना देखना भी बंद हो जाता है तो उसके लिए यह नित्य प्रलय है , इस अवस्था में जीवात्मा का लय , उसका मिलन भगवान से होता है, और फिर जगने पर उसके लिय सृष्टि हो जाती है जो सदा प्रकट हीं होती है उसके सोने के बाद भी । तो इसको नित्य प्रलय कहते हैं ।
२. नैमित्तिक प्रलय :- यह ब्रह्मा जी के एक दिन के समाप्ति पर होता है , जब ब्रह्मा जी दिन बितने के बाद रात शुरू होने पर सो जाते हैं तो सारा सृष्टि का प्रलय हो जाता है , यानि सारी सृष्टि सुसुप्ति की अवस्था में चली जाती है पर यथावत होती है , केवल सृष्टि में कोई हलचल नहीं होती ब्रह्मा जी के एक रात तक सोय रहने तक । लेकिन ऐसी प्रलय में पुरा संसार जडबत् हो जाता है , कोई हलचल नहीं होती संसार में , केवल दिव्य लोक को छोड़कर ।
ब्रह्मा जी का एक दिन हमारे दिन और रात के अनुसार कितने बर्ष का होता है यह सभी जानते हैं आप लोग ।
अब ब्रह्मा जी का दिन जितना बड़ा होता है , उतनी हीं बड़ी उनकी राते होती है। उनके एक दिन के बराबर के काल में सृष्टि में सारा कार्य चलता रहता है और रात होने पर जब वो सो जाते हैं तो फिर सारा सृष्टि , ब्रह्मांड जड़बत हो जाता है , जीव भी ।
इसमें एक बात नोट करने की है कि नैमित्तिक प्रलय में सृष्टि का लय भगवान में नहीं होता है। यह उनके महोदर में लीन नहीं होता है । केवल जड़बत हो जाता है, स्टैच्यू की तरह ।
नैमित्तिक प्रलय में ब्रह्मा़ड का सभी लोक ( पाताल लोक , स्वर्ग , देव लोक , तथा दिव्य लोकादी सभी लोक यथाबत रहते है जिसमें केवल माया के लोक सभी लोक यानि पृथ्वी लोक से लेकर , देव लोक ,स्वर्ग लोक , पितृ लोक , गंधर्व लोक और ब्रह्म लोकाधदि तक सुषुप्त अवस्था में चली जाती है , किंतु दिव्य लोक नहीं , दिव्य लोको के सभी लोकों का काम चलता रहता है, ) फिर जब ब्रह्मा जी का दिन होता है तो वो फिर से ब्रह्मांड में हलचल पैदा करते हैं पहले की तरह । इसलिए ब्रह्मां जी को भी सृष्टि कर्ता कहा गया है वो पर केवल नैमित्तिक प्रलय और सृष्टि का कारण तथा अधिकारी है । प्राकृतिक प्रलय का अधिकारी वो नहीं है । क्यों नहीं है वे प्राकृतिक प्रलय की प्रक्रिया में समझेंगे ।
३. आत्यांतिक प्रलय : यह प्रलय केवल उन्ही जीवों के लिय होता है जो जीव ज्ञान मार्ग, आदि द्वारा मौक्ष को प्राप्त करके भगवान में , ब्रह्म में लीन हो जाते हैं , उनकी माया से निवृत्ति हो जाती है । वो दिव्य होकर भगवान में लीन हो जाते हैं । तो ऐसे प्रलय को आत्यांतिक प्रलय कहते हैं वो यह सभी के लिए नहीं होता केवल मौक्ष प्राप्त करने वाले जीव विशेष के लिए होता है । इसलिए इसमें मायिक जगत् का सारा काम चलता रहता है ।
४. प्राकृतिक प्रलय :- यह बहुत महत्वपूर्ण है , इसको महाप्रलय भी कहते हैं । यह तब होता है जब ब्रह्मा जी अपना सौ बर्ष कि आयु पुर्ण करके पुरा ब्रह्मांड सहित भगवान के महोदर में प्रवेश कर जाते हैं , ऐसी अवस्था में पुरा ब्रह्मांड का लय भगवान में हो जाता है , इसमें पुरा ब्रह्मांड अपने कारण प्रकृति यानि मूख्य आधार यानि पुर्णत: पुरूषोत्तम एक मात्र आदि कारण ब्रह्म श्री कृष्ण के महोदर में लय हो जाता है ।
इसलिए इसको महाप्रलय या प्राकृतिक प्रलय भी कहते हैं । क्योंकि इसमें पुरा ब्रह्मांड , मायिक जगत् के साथ-साथ समुचा दिव्य लोकों का भी ( केवल गोलोक को छोड़ कर ) भगवान श्री कृष्ण के महोदर में लय हो जाता है ।
चाहे वो माया के अधिनस्थ सभी लोक ब्रह्म लोक तक हो , या विराजा नदी के बाद बाला दिव्य लोक भी, यानि, शिव लोक, विष्णु लोक, सिद्ध लोकादि कोई भी लोक हो , केवल गोलोक को छोड़कर कुछ भी नहीं बचता ।
ब्रहां विष्णु महेशादि सभी अपने लोकों के साथ भगवान के महोदय में समाधिस्थ हो जाते हैं ऐसे प्रलय में । इसलिए ना जीव की उत्पत्ति होती है और माया का नाम ब्रहां विष्णु तथा शंकर जी का , सभी का केवल प्रकटीकरण होता है सृष्टि के समय ।
ऐसी अवस्था में भगवान श्री कृष्ण अपने गोलोक में अकेले हो जाते हैं । फिर जब उनका मन नहीं लगता तो वो फिर से अपने संकल्प शक्ति से ब्रह्मां विष्णु महेशादि के साथ साथ उनके लोको को अपनी संकल्प शक्ति से प्रकट कर देते हैं , सृष्टि कर देते हैं और फिर ब्रहां विष्णु , शकंर आदि फिर से प्रकट होकर सभी अपना अपना कार्य भार संभालना शुरू करते हैं एवं फिर से सृष्टि का संचालन करते हैं ।
:- संजीव 🙏❤️🙏
Radhe Radhe 🙏 very nice 👍
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