शरणागति और भक्ति
कोई भी मायाधीन जीव भगवान कि भक्ति कर हीं नहीं सकता कभी , भक्ति का मतलव हीं सेवा होता है। जीव के पास न तो कोई दिव्य सामान है और न सामर्थ्य, भला मायाधीन जीव , मायाधीश भगवान और गुरू की सेवा कैसे कर सकता है ? भला एक असमर्थ , सर्वसमर्थ की सेवा कैसे कर सकता है ?
इसलिए कोई भी मायाधीन जीव न तो भगवान या गुरू की सेवा कर सकता है और न भक्ति कर सकता है । हां भगवान तथा गुरू जीव की सेवा करते हैं ।
जीव का तन माया का , मन माया का , बुद्धि माया की, सामान माया का, धन माया का , इंद्रियां माया का , संसार माया का , भला इनसे भगवान और गुरू भक्ति और सेवा कैसे कर सकता है जीव ? असंभव ।
सर्वसमर्थ भगवान जीव की भक्ति करते हैं । जीव भगवान की भक्ति कभी नहीं कर सकता है ।
तो फिर जीव क्या कर सकता है जिससे वो उनको प्राप्त कर सकें , प्राप्त कर लेता है , अनेकों ने प्राप्त कर लिया इसी कलयुग में ? मायाधीन जीव के हांथ में एक हीं साधन ऐसा क्या है जिससे वो भगवान को प्राप्त कर सकता है , गुरू को रिझा सकता है ? वो ऐसी कौन सी दुर्लभ साधन है मायाधीन के पास जिसके द्वारा वो भगवद् प्राप्ति करने के बाद उनकी सेवा और उनकी भक्ति प्राप्त कर सकता है ?
तो मायाधीन जीव के पास वो एक हीं दुर्लभ साधन कौन सी है जिससे वो भगवान को गुरू को रीझा सकता है और फिर उनकी भक्ति प्राप्त कर सकता है , उनकी सेवा कर सकता है । उनका दिव्य प्रेम प्राप्त कर सकता है और सदा के लिए आनंदमय हो सकता है !
तो जानने के लिए पढ़िये श्री महाराज जी का निम्न लिखित प्रवचन :- 👇👇👇👇👇👇👇👇👇
श्री कृपालु महाप्रभु जी के श्री मुख से उनके दिव्य वाणी :-
शरणागति और भक्ति ( पोस्ट -A)
मायाधीन जीव भगवान की भक्ति कर नहीं सकता , भगवान जीव की भक्ति करते हैं , सेवा करते हैं । जीव तो केवल शरणागत हो सकता है मन बुद्धि से गुरू की , जीव जो कुछ मायिक साधन भक्ति करता है, दान करता है , सेवा करता है हरि की , गुरू की वो केवल अपने अंत:करण की शुद्धि मात्र के लिए
जीव तो शरण जाय गोविन्द राधे
जीव भक्ति करे भगवान बता दे ॥
वेद से लेकर रामायण तक सब ग्रन्थ, सब सन्त, कहते हैं। कि ए जीवो! ऐ मनुष्यो ! तुम भक्ति करो तो भगवान् कृपा करेंगे। आप लोगों को बहुत बार समझाया गया है ये बात, कोई नई नहीं। लेकिन कृपालु उलटा बोल रहा है। ये कहता है कि जीव भक्ति नहीं करेगा, जीव कुछ नहीं करेगा, तुमको भक्ति करना पड़ेगा। भक्ति भगवान् करेगा, जीव कुछ नहीं करेगा। खामखाह जीव भक्ति करे भगवान् कृपा करें, ऐसा नहीं होगा। ऐसा कैसे बोल रहा है ? समस्त शास्त्र वेद और सन्त महात्मा कहते हैं कि भगवान् की भक्ति करो तो दुःख निवृत्ति, आनन्द प्राप्ति, भगवत्प्राप्ति होगी। भक्ति कहते किसको हैं ये समझिये पहले -
भज इत्येषवैधातुः सेवायां परिकीर्तितः
तस्मात्सेवा बुधैः प्रोक्ता भक्तिः साधन भूयसी ॥ (गरुड़ पुराण)
वेदव्यास ने भक्ति शब्द का अर्थ बताया है और व्याकरण से भी भज् धातु से क्तिन् प्रत्यय होकर भक्ति शब्द बनता है और भज धातु का अर्थ होता है सेवा तो भक्ति शब्द का अर्थ है सेवा। बस एक अर्थ है भक्ति माने सेवा। समस्त जीव भगवान् के दास हैं ये तो आप लोग जानते ही हैं।
दासभूतमिदं तस्य जगत्स्थावर जंगमम् ।
श्रीमन्नारायणः स्वामी जगतां प्रभुरीश्वरः ॥
(पद्म पु. उत्तर खण्ड २२७.३८,३९) समस्त जगत् के स्वामी भगवान् हैं और सब जीव उनके दास हैं। तो दास का काम क्या ? सेवा। संसार में भी सर्वेण्ट होते हैं न आप लोगों के। बड़े आदमियों के यहाँ छोटे आदमी सर्वेण्ट होते हैं, ऑफिसेस में सर्वेण्ट होते हैं, गवर्नमेन्ट सर्वेण्ट्स कहते हैं। वो क्या करते हैं? सेवा। तो बहुत प्रकार की सेवा होती है, मिलट्री में भी होती है, पुलिस में भी होती है और सब ऑफिसेस में होती है सेवा। तो सेवा कहते हैं, उसी का नाम भक्ति। तो सेवा करना ये हम लोगों का स्वभाव है। स्वभाव। स्वभाव माने सेवा। बस यही करते ही हैं। दूसरे की सेवा नहीं अपनी सेवा, अपनी अपनी माने 'मैं' की, 'मैं' माने आत्मा की। ये शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि, आत्मा के सर्वेण्ट हैं। ये सब मैं को सुख देने के लिये चौबीस घंटे प्लानिंग, प्रैक्टिस प्लानिंग, प्रैक्टिस करते रहते हैं। क्या करें कि सुख मिले ? क्या खायें ? क्या देखें ? क्या सुनें ? क्या स्पर्श करें? ये पाँचों इन्द्रियों का जो सुख है ये आत्मा को दे रहे हैं। क्यों? इसलिये कि हम अपने को शरीर मान रहे हैं। तो संसार का विषय दे रहे हैं। तो आत्मा कहती है कि ये हमारा सामान नहीं है । अनन्त जन्म बीत गये देते देते, अनन्त सन्त मिले उन्होंने समझाया बुद्धि को हमारी कि यहाँ ये संसार के विषय से आत्मा को सुख नहीं मिलेगा, आत्मा तो परमात्मा का दास है। हमने नहीं माना। लेकिन दासता करते हैं, आत्मा की, आत्मा के सुख की और कुछ नहीं करते। माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति किसी से कोई प्यार नहीं करता। जब तक वो हमारा काम करता रहे तब तक प्यार है। हमारी बात मानता रहे, हमको सुख देता रहे, हमारे अनुकूल रहे बस तब तक प्यार, प्रतिकूल हो गया प्यार खतम। दुश्मनी हो गई। बाप को, माँ को, बेटे को, पति को, बीबी को गोली मार देते हैं, रोज देखते हैं आप संसार में। हम सुख से प्यार करते हैं, सुख के सर्वेण्ट हैं। वो कोई दे, बाप दे, माँ दे, बेटा दे, पड़ोसी दे जहाँ से सुख मिलेगा बस उसी से हमारा प्यार होता है।
तो हम सदा से दास हैं, भक्त हैं, संसार के हैं। ठीक है । तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम भगवान् के भक्त हैं हम संसार के भक्त हैं, हैं भक्त। उन लोगों ने दूध को मथा तो मक्खन मिला, हम पानी को मथ रहे हैं। उन लोगों ने तिल से तेल निकाला, हम बालू से तेल निकालने का प्रयत्न कर रहे हैं। बस यही अन्तर है। प्यार का तरीका वही है। कोई संतों के अलग से इन्द्रिय नहीं होती, हमारे ही भाई तो हैं वो, पहले हमारी तरह थे।
अब उन्होंने भगवान् की भक्ति कर ली तो ये सन्त महात्मा हो गये। प्यार में कोई अन्तर नहीं है। तुलसीदास ने क्या कहा है. कामिहिं नारि पियारि जिमि लोभिहिं प्रिय जिमि दाम ।
लोभी दिन-रात पैसे का चिन्तन करता है। क्यों? रोटी दाल के लिये ही, नहीं खरबपति भी दिन रात पैसे का चिन्तन करता है। वो क्यों करता है? वो तो खरबपति हैं? वो रोटी के लिये नहीं करता। ये बीमारी है, इसको बीमारी कहते हैं, खुजली की बीमारी। गरीब के लिये आप कह सकते हैं कि वो रोटी के लिये। अमीर क्यों करता है? वो जो सुख चाहता है न, सुख का सर्वेण्ट है जो, तो वो समझता है कि वहाँ सुख होगा एक खरब में नहीं मिला। उसके आगे होगा। उसको ये नहीं पता है कि स्वर्ग के कुबेर को भी सुख नहीं है। संसार के सामान में सुख है ही नहीं । क्रमशः............
:- श्री महाराज जी ( भगवद्गीता ज्ञान -५ )
इसके आगे पोस्ट- B में पढ़िए ।
श्री कृपालु महाप्रभु जी के श्री मुख से उनके दिव्य वाणी :-
शरणागति और भक्ति ( पोस्ट -B)
भगवद् गीता ज्ञान - 5
सुख यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥ (भागवत ९.१९.१३) नालमेकस्य पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्। (विष्णु पु. ४.१०.२४)
सम्पूर्ण संसार किसी के नाम लिख दिया जाय तो भी सुख नहीं मिलेगा। सारा संसार मिलेगा और मानसिक मन का सुख भी मिल जायगा, अहा ! सब संसार मेरा हो गया। लेकिन न कामना जायगी, न क्रोध, न लोभ, न मोह, सब बीमारी रहेगी वो तो भगवान् की कृपा से जाती है, भगवान् की कृपा से माया जाती है तब उसके सर्वेण्ट ये सब जाते हैं। वो गुरु के द्वारा होता है। नानक ने एक बड़ा सुन्दर दोहा लिखा है -
'हरि सम जग में वस्तु नहीं।'
भगवान् के समान कोई वस्तु नहीं, अनन्त कोटि स्वर्ग मिल जाय।
हरि सम जग में वस्तु नहीं प्रेम पन्थ सो पन्थ
और उनको पाने के लिये प्रेम मार्ग के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है कि हम तपस्या करके भगवान् को झुका देंगे।
सद्गुरु सम हितकर नहीं गीता सम नहीं ग्रन्थ ॥ (नानक)
सद्गुरु के समान कोई हितैषी नहीं है, भगवान् भी नहीं है। भगवान् तो आयेंगे नहीं हमको ज्ञान देने, वो तो सद्गुरु ही देगा।
तो हम लोग भी भक्त हैं लेकिन भगवान् को छोड़कर वो माया के भक्त हैं, बस सीधी सी बात। भगवान् क्या कहते हैं? कि मेरे भक्त बनो। नहीं नहीं, भगवान् की भक्ति तो हम कर ही नहीं सकते। क्यों? इसलिये कि भक्ति माने क्या ? सेवा। भगवान् की सेवा आप कैसे करेंगे? आपके पास क्या है - शरीर गन्दा, मन पापयुक्त, बुद्धि मायिक। अरे सेवा करने के लिये सेव्य के अनुसार सामान चाहिये। भगवान् तो दिव्य हैं। हमारे पास कोई दिव्य सामान होता तो कहते कि लो महाराज ! खाओ। हम क्या कहेंगे कि रोटी खाओ ? भगवान् रोटी खायेंगे ! अरे वो तो अलौकिक हैं, वहाँ ये सब संसार के गन्दे सामान नहीं होते।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ (श्वेता, उप. ६.१४, मुण्डक, उप, २.२.१०, कठ उप. २.२.१५ )
ये पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य ये सब भगवान् के यहाँ नहीं हैं। स्वयं भगवान् वहाँ सूर्य बनते हैं. स्वयं भगवान् ही वहाँ पृथ्वी बनते हैं। वहाँ की पृथ्वी का एक कण अगर परमहंस देख ले तो दीवाना हो जाय इतना आनन्द, तो हम क्या देंगे उनको। ये ठीक है वो कृपा करके हमारी कोई चीज ले लें लेकिन हम सेवा करने का दावा नहीं कर सकते। सेवा समर्थ करता है असमर्थ की। नोट करो। समर्थ, बलवान, पावरफुल कमजोर की सेवा करता है। हम लोग पैदा हुए थे जब । तो कमजोर थे न ? हाँ । करवट बदलना भी नहीं जानते थे। हाँ। तो माँ सेवा करती थी। हाँ। अब कोई कहे कि हम जब पैदा हुए थे तो हम माँ की सेवा करें। अरे क्या बक बक करता है, माँ की सेवा करेंगे। अरे करवट बदलना भी हमारे लिये असम्भव था। समर्थ असमर्थ की सेवा करता है। भगवान् सर्वसमर्थ हैं वो हम लोगों की सेवा कर रहे हैं।
देखो, माँ के पेट में जब हमको भेजा तो वहाँ माँ के खाने से जो रस गया शरीर में, उससे हमारा शरीर बन गया। ये सेवा कर रहे हैं भगवान्। हमारे आँख, कान, नाक, मुँह, सब बन गये। ये क्या हमारे माँ बाप ने बनाया है? उनको तो पता भी नहीं कि क्या हो रहा है पेट में। सब बन रहा है। ये कौन कर रहा है ? ये भगवान् कर रहे हैं, क्योंकि हम तो असमर्थ थे। भगवान् सेवा कर रहे हैं हमारी। फिर पैदा होते ही हम रोटी दाल कैसे खाने लगेंगे, माँ के स्तन में दूध बना दिया। वाह ! वाह ! क्या कमाल है! कितना दयालु है बाप! ये सब सेवा कर रहा है भगवान् और बड़े हुए तो पृथ्वी पर सब सामान; फल, तरकारी, अन्न सबका प्रबन्ध कर दिया। अब खाओ बेटा। अब माँ कब तक गोद में रखेगी ? हाँ चलना भी आ गया, अब और बड़ा हो गया। तो सेवा समर्थ असमर्थ की करता है। इसलिये (ध्यान दो) भगवान् ने गीता में कहा -
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (गीता ४.११)
जीव शरणागत होता है भक्ति नहीं करता। 'भजाम्यहम्' मैं भक्ति करता हूँ जीव की। जीव शरणागत होता है। शरणागत माने क्या? कुछ न करना । जैसे बच्चा पैदा होता है तो शरणागत होता है। कम्पलीट सरेण्डर। हम पड़े हैं, माँ की गरज हो तो हमको उठावे, दूध पिलावे। हम पड़े-पड़े ही पाखाना कर रहे हैं, माँ को गरज हो तो साफ करे। कम्पलीट सरेन्डर कहते हैं इसको, पूर्ण शरणागत। भगवान् कहते हैं कि तुम सब कुछ कर रहे हो अभी इसलिये मैं नोट कर रहा हूँ केवल बस। अगर हम कुछ कुछ शरणागत हों तो भगवान् बाकी करते हैं।
:- श्री महाराज जी ( भगवद्गीता ज्ञान )
शेष अगले पोस्ट संख्या :- C में पढ़िए ।
श्री कृपालु महाप्रभु जी के श्री मुख से उनके दिव्य वाणी :-
शरणागति और भक्ति ( पोस्ट -C)
भगवद्गीता ज्ञान -5
जब हम पूर्ण शरणागत होते हैं तो भगवान् कहते हैं कि-
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (गीता ९.२२)
जो पूर्ण शरणागत हो जाते हैं उनके योगक्षेम को मैं वहन करता हूँ। ये जो सन्त लोग कहते हैं न -
"होइ हैं सोइ जो राम रचि राखा । "
हम कुछ नहीं करते।
जो करै सो हरि करै होत कबीर कबीर ।
ये क्यों कहते हैं? वो शरणागत हो गये। वो कहते हैं कि मैं कुछ नहीं करता, मैं तुम्हारा हो गया। अब तुम ठेका लेकर
हमको सम्भालो, हमारी सेवा करो। हा! क्या, कौन सी सेवा भगवान् ने नहीं की? अभी पाँच हजार वर्ष पहले भगवान् थे, उनको पाण्डवों ने कहा कि हम आपको आचार्य बनायेंगे, जगद्गुरु। उन्होंने कहा देखो, मैं इस शर्त पर बनूँगा कि ब्राह्मणों का जो उच्छिष्ट पत्तल होगा वो मैं उठाऊँगा अब तो सारे पाण्डव बड़े आश्चर्य में कि ये क्या बोल रहे हैं! अब भगवान् से जूठा पत्तल उठवावें तो लोग क्या कहेंगे! लेकिन इन्होंने शर्त लगा दी कि ये सेवा हमको दो तो हम जगद्गुरु बनेंगे। हार कर कहना पड़ा कि ठीक है। अर्जुन का रथ हाँक रहे हैं, अर्जुन आर्डर कर रहा है - सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ (गीता १.२१)
ए कृष्ण ! अरे डाँट कर! हाँ। दोनों सेनाओं के बीच में मेरा रथ खड़ा कर । कीजिये नहीं, 'स्थापय'। संस्कृत में इसका अर्थ होता है कर। जैसे नौकर को कोई कहे ए ड्राइवर ! गाड़ी ला। कोई कहता है ड्राइवर से कि गाड़ी लाइये। कौन सी दासता गोपियों की नहीं की भगवान् ने ? हर अवतार
में भगवान् ने दासता की है और जो भगवान् के खिलाफ हैं उनकी भी दासता करते हैं। भगवान् को गाली देने वाले को भी भगवान् कहते हैं कि हमारी पृथ्वी पर चलो, हमारा ये पानी है पृथ्वी पर पियो। हमारा ये बनाया हुआ अन्न है खाओ। वरना भगवान् को तो ये करना चाहिये था कि जो भगवान् को गाली देता है वो पानी पिये और मर जाय अरे संसार में अगर कोई हमारा बेटा भी गाली दे बाप को तो हम क्या करेंगे, उसको घर में बैठा कर के उसको और बेटों के साथ खिलायेंगे पिलायेंगे ? लेकिन भगवान् सबको बराबर देते हैं। अरे हमारा बेटा है खराब है तो क्या हुआ, आओ। उसी कुएँ का पानी तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम पियें और उसी कुएँ का पानी वो राक्षस भी पिये, वो चाहे रावण हो चाहे कोई हो, सबके लिये एक-सा ।
तो हमको शरणागत होना है। सेवा करने की हिम्मत अभी नहीं है। जब भगवान् कृपा करके अपनी पावर दे देंगे, हम गोलोक जायेंगे, तब सेवा कर सकेंगे। जब उनका ज्ञान,
उनकी शक्ति, उनका आनन्द सब पा लेंगे, उनके बराबर की शक्ति हो जायगी, तब सेवा कर सकते हैं। उसके पहले क्या सेवा करेंगे, वो करेगा सेवा। हम केवल उसको अपना स्वामी मान लें बस, ये हमारी ड्यूटी है। वही हमारा है, बस ये हम मान लें। वो कहता है कि तुम ये मान लो, जिद्द मत करो। ये जो तुम्हारे माँ बाप हैं, पता है तुमको ि कितने बाप बना चुके तुम? अरे हर जन्म में बाप बदलता है, माँ बदलती है। ये कुत्ते-बिल्ली जो देखते हैं ये सब बाप बन चुके हैं तुम्हारे । अनन्त जन्म बीत चुके चौरासी लाख योनियों में हम घूम चुके। अरे ये सब तुम्हारे हो चुके हैं।
जब अभिमन्यु मर गया तो अर्जुन ने कहा कि एक बार दिखा दो। भगवान् ने कहा दिखा दो! क्या दिखा दूँ? मेरा बेटा। अरे! बेटा तो ये सामने तेरे लेटा है। नहीं, वो जो चला गया वो। अरे वो तेरा बेटा अब नहीं है रे। ए! वेदान्त मत बोलो। वो सखा था न अर्जुन। वो कहने लगा कि हमको दिखाओ, तुम कर सकते हो। भगवान् ने बुलाया जीवात्मा को। अर्जुन ने कहा बेटा ! तो अभिमन्यु ने कहा अरे अर्जुन! तू मेरा हजार बार बेटा बन चुका है, मुझे बेटा कहता है! तेरा बेटा तो मैं वहीं छोड़ आया। मैं तेरा बेटा नहीं हूँ, मैं तो तेरे जो बगल में बैठे हैं न श्रीकृष्ण उनका बेटा हूँ। अर्जुन चुप हो गया बेचारा कि हाँ हाँ, ठीक कह रहा है ये तो । अब गीता ज्ञान याद आ गया उसको। अनन्त जन्म बीत चुके हैं। अनन्तकाल से अनन्त बार स्त्री, पति, बेटा, बेटी बन चुके हैं और जब तक भगवत्प्राप्ति न होगी आगे भी बनते रहेंगे।
तो हमको शरणागत होना है, और कोई कमाल हम नहीं कर सकते। ये जो भक्ति शब्द का प्रयोग होता है ये शरणागति के लिये होता है। हम भक्ति करते हैं इसलिये कि मन से संसार को हटा दें, खाली कर दें कमरा भगवान् के लिये, इसका मतलब कुछ न करना यहाँ पहुँच जायें। जैसे पैदा हुए थे वैसे ही फिर वहीं पहुँच जायें। ये जितनी चार सौ बीस इकट्ठा की है ये सब छोड़ दें, फेंक दें और भोले बन जायें। छोटा बच्चा कितना भोला होता है। जिसने टॉफी दिया उसी के पास पहुँच गया, वो चाहे दुश्मन हो। देखो संसार में टॉफी देकर के लोग बच्चा उठा ले जाते हैं, चुरा ले जाते हैं, वो चला जाता है।
तो हमको शरणागत होना है, भगवान् कृपा करके हमारी भक्ति करेंगे, हमारे पापों को नष्ट करेंगे, हमारे तीन कर्म भस्म करेंगे, हमारे पाँच जो क्लेश हैं वो समाप्त करेंगे। कितने सारे भगवान् ने वाक्य बोले हैं।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। (गीता १२.७) मैं उनका ठेका लेता हूँ जो मेरे शरणागत हो जाते हैं इसलिये हमको शरणागति को ही समझना है, अहंकार नहीं करना है कि मैं साधना करके भगवान् को पा लूँगा, ये गलत है।
वोलिए आलवेली सरकार की
कल भगवद्गीता के द्वारा आहार विहार विज्ञान पर चर्चा होगी ।
-श्री महाराज जी ( भगवद्गीता ज्ञान -५)
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